
हिन्दुत्व क्या है?
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(परम पूज्य गुरुदेव से देव-संस्कृति व हिन्दुत्व संबंधी प्रश्नोत्तर माला का तीसरा पुष्प)
प्रश्न:-समग्र देव संस्कृति का ढाँचा मानव को अनगढ़ से सुगढ़ बनाने में नियोजित है। इसके लिए आर्ष वाङ्मय से लेकर अब तक अनेकानेक मार्ग सुझाए गये हैं, जिनमें साधना उपचारों का विशेष स्थान है। ऐसी क्या विशेषता देव-संस्कृति में है कि भारतीय साधना पद्धति को सर्व श्रेष्ठ कहा जाता है ?
उत्तर:- देव संस्कृति के प्रणेता ऋषि थे। ऋषि उन्हें कहते हैं जो देहात्मवादी जीवन न जीकर आत्मसत्ता करी प्रयोगशाला में सूक्ष्म चेतना के स्तर पर प्रयोग-परीक्षण कर प्रसुप्ति की स्थिति को जाग्रति में बदलते हैं। सर्व-प्रथम जन्में श्रेष्ठ पुरुष (आर्य) की सन्ततियाँ ऋषिगणों के रूप में प्रतिष्ठित हुई व उनने हर मनःस्थिति के व्यक्ति के लिए विभिन्न प्रकार की साधना पद्धतियों का प्रतिपादन कर उन्हें लोकप्रिय किया। अपने-अपने बौद्धिक व भावनात्मक विकास के अनुरूप हिन्दू संस्कृति में कोई भी सुगम पड़ने वाला कोई सा भी उपचार अपनाकर अगले सोपान पर बढ़ सकता है। “योगः कर्मसु कौशलम् “ कहकर जहाँ देव-संस्कृति कर्मयोग को महत्व देती है वहाँ “श्रद्धावान लभते ज्ञानम्” कहकर समर्पण व भक्ति तथा ज्ञानयोग को भी उतना ही श्रेष्ठ ठहराती है। अपनी सार्वभौमिकता के कारण ही, सर्वजनीन होने के कारण ही, इन साधना उपचारों के प्राण हैं व इनकी उपयोगिता लाखों वर्षों के बाद उतनी ही है। तंत्र व योग दोनों ही साधना पद्धतियों का अद्भुत समन्वित रूप देव-संस्कृति करती आयी है।
प्रश्न:-पंचोपचारों से लेकर षोडशोपचार तथा सर्व देव नमस्कार से लेकर गौरी, गणेश, कलश पूजन आदि अगणित कर्मकाण्डों की हमारी संस्कृति में महत्ता व प्रचलन है। क्या आपको नहीं लगता कि आज इनका स्वरूप बाह्योपचार व येन−केन प्रकारेण निपटाने तक सीमित होकर रह गया है। कार्य की गंभीरता नहीं देखी जाती व मंत्र अशुद्ध बोले जाते हैं। भाव विहीन होने के कारण मात्र उनके उच्चारण से क्या किसी को कोई लाभ मिलेगा ? ऐसे में वह मूल भावना नहीं समाप्त हो जाती, जिसके कारण इनका कभी प्रावधान रहा होगा?
उत्तर:- प्रश्न युगानुकूल है व वास्तविकता भी यही है । आज की नयी पीढ़ी का भी व अन्याय व्यक्तियों का भी विश्वास कर्मकाण्डों पर से इस कारण उठता जा रहा है कि वे मात्र बाह्य ढकोसले बनकर रह गए हैं। कोई कितना ही पूजन करे, मूर्ति को नहलाए, प्रसाद चढ़ाए किन्तु यदि भाव मात्र मनोकामना पूर्ति के हैं व आचरण निकृष्ट स्तर का है तो लाभ मिलना तो बहुत दूर की बात है, परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ने से औरों की अनास्था भी बढ़ती है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है “धर्मतंत्र से लोकशिक्षण” की इस प्रक्रिया के पुनर्जीवन की धर्मतंत्र के धर्माचार्यों से अपेक्षा थी । वह पूरी न हुई। हमने शान्तिकुँज से पुरोहितों-परिव्राजकों, साधुओं का शिक्षण कर उन्हें कार्य क्षेत्र में भेजकर इस क्षेत्र में एक बड़ी क्रान्ति की है। नारियों को मंत्रोच्चार व यज्ञ सम्पादन से लेकर पौरोहित्य के संबंध में मध्यकाल में पीछे धकेल दिया गया था। उन्हें प्रशिक्षित कर उनकी तपः शक्ति तथा भाव संवेदना की सामर्थ्य के सहारे यह कार्य किया है। कर्मकाण्डों के भावार्थ व विज्ञान सम्मत व्याख्या लिखकर हमने जन-जन तक पहुँचाया है व बहुसंख्य के गले उतारा है। इस सदी के अंत तक हम विश्वभर तक पौरोहित्य के प्रगतिशील स्वरूप को पहुँचाने की अपेक्षा रखते हैं।
प्रश्न:-पंचोपचार का एक संक्षिप्त उपक्रम समझायें ताकि आज की युवा पीढ़ी को समझ में आए कि क्यों हम चित्र या मूर्ति के समक्ष स्थूल सामग्री निवेदित करते हैं?
उत्तर:- जल अर्पण करने से अर्थ है अपना समग्र श्रद्धा देवसत्ताओं, सत्प्रवृत्तियों, श्रेष्ठताओं के समुच्चय को समर्पित करना। गंध-अक्षत से तात्पर्य है- हमारा जीवन सद्गुणों की सुगंधि से भरा पूरा हो जैसा देव सत्ताओं का होता है तथा कर्म अक्षत हों। अक्षत अर्थात्- जो संकल्प लें, वे कभी क्षत न हों, टूटें नहीं। निष्ठा श्रेष्ठता के प्रति अटूट बनी रहे। पुष्प से अर्थ है- खिले हुए फूल का उल्लास अपने जीवन व्यवहार में सदैव समाहित रखेंगे। देवताओं के चरणों में खिला पुष्पित फूल ही भेंट चढ़ाया जाता है। कभी उदास न रह सदैव प्रसन्नता बिखरेंगे। धूप-दीप समर्पण से अर्थ है श्रेष्ठ कार्यों के लिए तिलतिल कर जलेंगे-सर्वत्र अपने सत्कार्यों की सुगंध का विस्तार करेंगे। नैवेद्य का भावार्थ है- अपने श्रम-साधनों का एक अंश देव-सत्ताओं को समर्पित करते हैं-समाज के हर पुण्य कार्य के लिए इसे नियमित रूप से अर्पित करते रहेंगे। हर कर्मकाण्ड के पीछे प्रेरणात्मक शिक्षण समाहित है, यह स्पष्ट देखा जा सकता है।
प्रश्न:-आपने प्रज्ञा परिजनों से साधारण पूजा उपासना से लेकर नैष्ठिक अनुष्ठान साधना, गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना कुण्डलिनी व षट्चक्र जागरण तथा प्राण प्रत्यावर्तन से लेकर चाँद्रायण कल्प साधनाएँ भी संपन्न करालीं। क्या यह एक असाधारण व असंभव मानी जाने वाली उपलब्धि नहीं है?
उत्तर:- आज का समय बड़ा विषम है। हम सतयुग के द्वार पर खड़े हैं। (क्रमशः)