
अश्वमेध अर्थात्-अजेय राष्ट्र का सामर्थ्य सम्पादन
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इन दिनों हर किसी की आँख-राष्ट्र को बिखराव के तूफानों से घिरा देख रही हैं। इस आँधी में एकता के तिनके समेटे जा सकेंगे-किसी को कल्पना तक नहीं उठती। पंजाब-कश्मीर आसाम आँधी के इन्हीं हिचकोलों में झूल रहे हैं। अलगाव में तत्पर आतंक फैलाने में जुटे संगठनों की फेहरिस्त बनाई जाय तो एक पुस्तक के पृष्ठों का कलेवर शायद छोटा पड़ जाय। इन विपन्नताओं-विषमताओं का कारण एक ही है-राष्ट्रीय भावना का अभाव। इसके विकसित हुए बिना नागरिकों में संवेदना और साहस कदापि नहीं पैदा हो सकता, जिसके वशीभूत हो वे अपने स्वार्थों को “इदं राष्ट्रीय इदं न मम्” कहते हुए राष्ट्र देवता के लिए न्यौछावर कर सकें।
देश की प्राचीन स्वर्णयुगीन परिस्थितियों के पीछे नागरिकों की यही भावना थी। विख्यात इतिहासकार ए.एल.बाशम अपनी पुस्तक “द वन्डर देट वाज इण्डिया” (भारत जो आश्चर्य था) में लिखा है-यदि कहीं के निवासियों ने अपने राष्ट्र को जीवन्त जाग्रत और उपास्य माना है-तो वह भारत है। उनके अनुसार ‘अश्वमेध’ राष्ट्र उपासना की सर्वाधिक प्रचलित प्रक्रिया थी। जिसका अनुष्ठान शासक श्रोत्रिय (मनीषी) एवं जन समूह सभी मिलजुलकर करते थे। इसी के द्वारा न केवल राजनीतिक क्षितिज पर बल्कि आर्थिक बौद्धिक और सामाजिक दायरों में विकास के मापदण्ड स्थापित किए गए।
शतपथ ब्राह्मण 12/1/2/9/3 में अश्वमेध के इसी स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-
“श्री वै राष्ट्रं । राष्ट्रं वै अश्वमेधः तस्मात् राष्ट्री अश्वमेधेन् यजेत् ।
सर्षाः वै देवताः ।अश्वमेधे अवयताः । तस्मात् अश्वमेधे थाजी सर्व दिशों अभिजयन्ति।”
अर्थात् वर्चस्व ही राष्ट्र है। राष्ट्र ही अश्वमेध है। राष्ट्र-परायण अश्वमेध का संयोजक सर्व विजयी होता है।
यजुर्वेद संहिता के 18 वें अध्याय के 22 वें मण्डल के मंत्र-अग्निश्चमे ....................... अश्वेंधश्चमे ..................... यज्ञेन कल्पन्ताम्॥ में राष्ट्र को अखण्डित होकर रहने की बात कही गई है। इसके अनुसार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान राष्ट्र की अखण्डता के लिये किया जाता था।