
सुसंस्कारिता प्रयासपूर्वक जगानी पड़ती है।
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अंतःकरण में उच्चस्तरीय तत्वों के बीज अवश्य हैं, पर हैं वे इतनी प्रसुप्त स्थिति में कि उनका प्रयोग सर्वसाधारण के लिए नहीं हो सकता उसे समाज संपर्क एवं नैतिक वातावरण के माध्यम से जगाना पड़ता है। यदि इसे प्रशिक्षण, जागरण का अवसर न मिले तो पूर्व जन्मों की पशु-प्रवृत्तियाँ ही काम करती रहती हैं और व्यक्तित्व हेय स्तर का ही बना रहता है।
अंतःकरण का उच्चस्तर जीवन्त हैं, इसका इतना ही प्रमाण मिलता है कि सभी अपने लिए न्याय चाहते हैं। सज्जनता बरते जाने की अपेक्षा करते हैं, बुराई से उसी सीमा तक घृणा करते हैं जिससे वह अपने ऊपर आक्रमण न करें। चोर भी अपने यहाँ चोर नौकर नहीं रखना चाहता। व्याभिचारी भी अपनी पत्नी को पतिव्रता देखना चाहता है। भगवान के दरबार में उसे दुख-दण्ड न भुगतना पड़े, उसका अनुग्रह अनुदान सहज ही मिलता रहे। मित्रों की मित्रता हर कसौटी पर खरी उतरे। जहाँ तक अपनेपन संबंध वहाँ तक सभी भले हैं, पर जब दूसरों के साथ व्यवहार करने का प्रसंग आता है तो स्थिति उलट जाती है। तब लोगों पर स्वार्थ सवार होता है और वह मनोभूमि नहीं रहती जो दूसरों से अपने लिए चाही गई थी। दूसरों के साथ ठगी, चोरी, बेईमानी आदि दुष्कृत्य करने और आक्रमण का शिकार बनाने में संकोच नहीं होता।
यह संकीर्णता की स्थिति है जिसमें दूसरों को अपना शिकार समझा जाता है। उसकी पीड़ा या कठिनाई को इस दृष्टि से नहीं देखा जाता कि वैसी ही विपत्ति अपने ऊपर टूटे तो कितनी कष्टकर हो। दूसरों की पीड़ा एक विनोद मालूम पड़ती है। कई बार तो दूसरों को छटपटाने की स्थिति में देखकर एक ऐसा मनोविनोद भी होता है जिसे नृशंस स्तर का कहा जा सकता है।
मेढ़ा, तीतर, मुर्गे, बटेर, हाथी आदि की लड़ाई देखने में कितनों को ही बड़ा मजा आता है और ऐसे आयोजनों को देखने के लिए ठट्ट के ठट्ट जा पहुँचते हैं। उन निरीह प्राणियों को उत्तेजित करने के लिए किस प्रकार आहत कराया जा रहा है, यह करुणा भरा दृश्य होता है, पर हृदयहीन आँखें उसमें भी मजा लूटती हैं। रोम का बादशाह नीरो नगर में आग लगवा देता था और उसके कारण होने वाली जान-माल की हानि से अपना विनोद करता था। चौराहों पर जब फाँसी लगा करती थी या सरेआम कैदियों के शत्रु सैनिकों के सर काटने का प्रचलन था तब भी लोग उस नृशंस कृत्य को देखने के लिए हज्जूम बाँधकर पहुँचते थे।
माँसाहारियों का समुदाय भी धीरे-धीरे अपनी मानवोचित दया भावना खो बैठता है। अपने शरीर में सुई चुभ जाये तो प्राण निकलते हैं, पर दूसरों की गर्दन इसलिये काटी और चमड़ी उधेड़ी जाती है कि वे बदला लेने की स्थिति में नहीं होते। सिंह-व्याघ्र आदि जो बदला ले सकते हैं, उन्हें माँस खाने के लिए मारने की कोई योजना नहीं बनाता। सबकी निगाह उन्हीं प्राणियों पर जाती है जो आसानी से हाथ आ जाते और काटते मारते समय-बधिक-के लिए कोई संकट खड़ा नहीं करते।
कभी’-कभी तो इस क्रूर कृत्य में धर्म भावना भी जोड़ ली जाती है। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि चढ़ाना पुण्य माना जाता है और सोचा जाता है कि इस उपहार के बदले देवता से माँगी हुई मनौती पूरी होगी।
यह निर्दयता मात्र अन्य जीवधारियों तक ही सीमित नहीं रहतीं। जब मनुष्य स्वार्थ की चरमसीमा तक पहुँचता है और नृशंसता में अपने अहंकार की पूर्ति देखता है तो क्रूर कर्मों की झड़ी लगा देता है। तब उसे स्वजातियों और प्रियजनों का मोह नहीं रहता। मध्यकाल के सत्ताधारी मरने से पूर्व ऐसा प्रबंध करते थे कि उनके दफन होने के साथ ही उनके दास दासी स्त्री-बच्चे भी जीवित दफन कर दिए जायँ जिससे वे परलोक में उनकी उपस्थिति का लाभ उठाते रहे। किसने कितनों का वध किया इसकी चर्चा पिछले दिनों बड़े उत्साह के साथ हुआ करती थी।
पशुबलि में माँसाहार का लाभ और देवी देवताओं का अनुग्रह तथा बधिक के दुस्साहस, बल आतंक आदि में वृद्धि होती थी। इसलिये छोटी-छोटी बातों को लेकर युद्ध भी छिड़ जाते थे। सैनिक इसकी ताक में रहते थे कि उन्हें वेतन के अतिरिक्त लूटमार में से भी अच्छी कमाई हो जाती थी। भले घरों के युवक युवती उन्हें पकड़कर दास बनाते और पशुओं की तरह काम लेते थे। इनकार तो वह किसी से नहीं कर सकते थे। सिर हिलाते ही निर्दय उत्पीड़न चल पड़ता था और वह तब तक जारी रहता था जब तक कि उसके प्राण न निकल जायें। यह एक प्रकार का मान्यता प्राप्त प्रचलन था। राजदण्ड में कैदी बन्द करने की अपेक्षा उनके सिर उतार लेना ही सस्ता पड़ता था। कैदियों के लिए भोजन वस्त्र तथा चौकीदारी का प्रबंध करना पड़ता था जबकि उसको छोटे अवरोध के बदले मार डालने की सजा देकर सदा के लिए पीछा छुड़ा लिया जाता। माँत्रिक-ताँत्रिक बलि देकर देवताओं को बलि देकर देवताओं को प्रसन्न करने और उनसे मनौती माँगने पर पूरी होने की आशा करते थे।
उन दिनों धर्म रुचि, समाज के पंच अधिकारी, सामन्त, राजा एक कदम आगे बढ़कर नरबलि को महत्व देने लगे थे। सोचा जाने लगा था कि पशु से मनुष्य का मूल्य और महत्व अधिक है इसलिये उसकी बलि चढ़ाने पर लाभ भी अधिक मिलेगा। नरबलि का यह प्रचलन किसी जमाने में इतना अधिक रहा है कि दक्षिण अमेरिका के आदिवासी क्षेत्रों में पेड़ों के नीचे तथा कुएँ खड्डों में विशाल संख्या में नर मुण्ड पाये गए हैं।
यह क्रूरता के विदित और अविदित अनेक तरीके हैं जिससे प्रतीत होता है कि मानवीय अन्तःकरण की उत्कृष्टता उसके अपने लिए प्रयुक्त किए जाने की कामना तक ही सीमित है। जब दूसरों के संबंध में बात आती है तो वह हिंसक पशुओं की भूमिका निभाने लगता है। जंगल का कानून बरतता और ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ पर विश्वास करता है।
सन् 1519 में ऐटेक साम्राज्य काल में देवी-देवताओं को प्रसन्न रखने हेतु नरबलि का प्रचलन था। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के जनसाँख्यिकी विभाग के प्रवक्ता डॉ. ‘शेरबर्न कुक’ द्वारा किए गए अनुसंधानों से जो निष्कर्ष सामने आयें हैं उनके अनुसार मैक्सिको के ऐटेक मन्दिर में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत जनसंख्या को नरबलि का शिकार बनना पड़ता था। ऐटेक के राजा के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह इतना क्रूर था कि स्वजातिओं का माँस खाने की भी उसकी आदत थी। इसी तरह की परम्परायें उसके सैनिकों ने भी अपनायी हुई थीं।
भूतकालीन तथ्यों को देखते हुए हमें यह मानकर चलना होगा कि मनुष्य में सुसंस्कारिता जगाने की जिम्मेदारी समाज की है, अन्यथा बालक जैसे भी वातावरण में पलेंगे, जिन लोगों के बीच रहेंगे, उन्हीं की रीति-नीति अपनालेंगे चाहे वे कितने भी घिनौने क्यों न हों। यह मान्यता एक सीमा में ही, चित है कि मनुष्य की अन्तरात्मा स्वभावतः पवित्र है। यदि ऐसा भी हो तो भी सामाजिक कर्तव्य है कि शालीनता, सज्जनता , दयालुता, नीतिमत्ता बढ़ाने-सँजोने के लिए योजनाबद्ध प्रयत्न किए जायें अन्यथा लोकप्रचलन में पड़कर अधिकाँश लोग निष्ठुर, उद्दण्ड और अपराधी प्रवृत्ति अपनाते चले जायेंगे।