
अपनों से अपनी बात- - देव संस्कृति दिग्विजय अर्थात् ऐतिहासिक अश्वमेध आयोजन
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दुर्बुद्धि तथा दुष्प्रवृत्तियों से लोहा लेने के लिए सृजन-सेना कमर कसकर तैयार हो
महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया-जागरुकों के सिर पर चढ़ कर बोलती और उन्हीं के हाथों से अपना प्रयोजन पूरा करा लेती है। भूतकाल में यह तथ्य किस तरह क्रियान्वित होता रहा, इसकी कथा-गाथा अवतार लीला के नाम से इतिहास-पुराणों में अंकित है। जिन्हें इस परिवर्तन-प्रयास का प्रत्यक्ष अनुभव करना हो, वह पिछले दिनों शाँतिकुँज में सम्पन्न हुए ‘शपथ समारोह’ में शपथ ग्रहण करने वाले व्रतशील बलिदानियों के अन्दर उभरे-उमड़े उत्साह शौर्य का सूक्ष्म निरीक्षण करके जान सकते हैं। इनमें से एक बड़ा वर्ग वह है-जो तीन माह के लिए बाहर जाकर काम करने के लिए तैयार हुआ। यह ऐतिहासिक उपलब्धि युगावतार के संकल्प की प्रतीक है।
देव मानवों को जन्म देने वाली यह वीर भूमि हमेशा से कर्म योद्धा पैदा करती रही है। भटकाव के बावजूद देवत्व के पर्याप्त-संस्कार यहाँ अभी भी मौजूद हैं। भटकाव के कारण उद्बोधन का अभाव समझा जा सकता है। देव पुत्र पाण्डव तब तक वन-वन भटकते घूमते रहे, जब तक माता’-कुन्ती ने प्रेम और फटकार से सना विदुलोपख्यान नहीं सुनाया। धर्म की व्यापकता को पूजा-पत्री तक सीमित रखने वाले युधिष्ठिर को झकझोरते हुए कहा’-युधिष्ठिर ! धर्मात्मा होकर तुम कायरों जैसी बाते करते हो। तुम्हें सिर्फ अपनी चिन्ता है। सोचो इस देश की क्या दशा है ? यही रहा तो एक दिन समूची दुनिया पर श्मशान की नीरसता छा जाएगी। अनीति को सामने देखकर भी यदि उससे जूझने के लिए भुजाएँ नहीं फड़कती तो किस काम का वह पराक्रम-वह शौर्य। फिर क्या गाण्डीव की टंकार-अनीति के माथे पर महाबली भीम के गदाघात के सामने कौरवों के सरंजाम धरे रह गए। उत्पीड़कों का उन्मूलन उत्पीड़ितों को संरक्षण-इस महाव्रत को निभाने के लिए तत्पर पाण्डव अश्वमेध के यजन में संलग्न हो गए।
कुछ इसी प्रकार इन दिनों अपने आत्मीय परिजनों की समर्थ चतुरंगिणी सेना को “देव संस्कृति दिग्विजय” अभियान रचाने वाले दस दशाश्वमेध यज्ञों को सम्पन्न करने की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। जिसमें पहला अश्वमेध आयोजन वीर भूमि राजस्थान में 8-9-10 नवम्बर 92 को सम्पन्न होगा। दूसरे और तीसरे आयोजन नागपुर (महाराष्ट्र) व गुना (म.प्र.) में क्रमशः 6-7-8 जनवरी एवं 4-5-76 अप्रैल 93 को सम्पन्न किए जाएँगे। अन्य स्थानों के लिए तिथियाँ अभी निश्चित की जानी हैं। राजसूय, वाजपेय, नरमेध, सर्वमेध यज्ञों की तरह अपने देश में अश्वमेध यज्ञों की गौरवपूर्ण परम्परा रही है। जितने भी अवतार पुरुष हुए हैं, उन सभी ने अपनी-अपनी तरह के अश्वमेध किए हैं।
‘मेध’ शब्द ‘मेधा संगमनयोर्हि सायाँ च’ एकता परस्पर मिलन के अर्थों में प्रयोग किया जाता रहा है। ‘अश्व’ को शक्ति का मानदण्ड मानने की परम्परा आज भी है। इन अर्थों के अनुरूप अपनी शुरुआत के दिनों से ही अश्वमेध-ब्राह्मशक्ति और क्षात्रशक्ति के सम्मिलित प्रयोगों के रूप में आयोजित होते रहे हैं। विचारणा-क्रिया के बिना पंगु है। भावना-शौर्य के अभाव में निरी भावुकता बनकर रह जाती है। आतंक और अनीति सहते-सहते मरने वालों की संख्या तो हर युग में ढेरों होती है। पर प्रवाह को उलटने वाले बहादुर विरले होते हैं। अश्वमेध की इस महान शृंखला का प्रयोजन भावना और शौर्य से भरे-पूरे नर रत्नों का आह्वान है। इसके द्वारा जन-मानस में करुणा के दैवी प्रकाश के साथ महाकाल की हुँकार से उपजे प्रबल मन्यु को पैदा करना है जिससे कि बुद्धि और हृदय के क्षेत्र में घुसपैठ करने वाली दूषित वृत्तियों को उखाड़ कर सत्प्रवृत्तियों की रोपाई की जा सके। इसके अलावा इस विराट प्रयोग के माध्यम से पूज्य गुरुदेव की कारण सत्ता कुछ ऐसी अलौकिक प्रक्रियाएँ सम्पन्न कर रही है, जिसके परिणाम जीवन के सभी क्षेत्रों में तरह-तरह के अनुदानों-वरदानों के रूप में अनुभव किए जा सकेंगे। इस धर्मानुष्ठान में भाग लेने का पुण्य असाधारण है। ऐसे यज्ञों का दर्शन, उनकी परिक्रमा के लिए साधना करने, साधन प्रदान करने से ऋग्वेद के अनुसार दुर्लभ रत्नों(धन, धान्य, संतति, सद्गति) की प्राप्ति होती है। ऐसा सुयोग महाभारत के बाद पहली बार बन सका है।
दिग्विजय चक्रवर्ती-होती है। इन अश्वमेधों को सम्पन्न करने वाले सृजन सैनिकों की वाहिनी, अपने इस अभियान में इंच-इंच भूमि नाप लेगी। इसके माध्यम से ही घर-घर देव-संस्कृति की स्थापना सम्भव होगी। मनुष्य में देवत्व की झलक दिखाई पड़ने लगेगी। इस अभियान का प्रत्येक चरण अपने आप में शक्ति सामर्थ्य का स्रोत है।
1-उपासना-श्रद्धा सुसंस्कारिता की जननी है। उसका विकास उपासना से होता है। अन्तः चेतना जब विराट ब्रह्माण्ड से तादात्म्य करती है तो उसे सर्व शक्तिमान नियन्ता के दर्शन होते हैं। यहीं से आत्मानुशासन पैदा होता है। अपने आस-पास के वातावरण में भी श्रद्धा उपजती है। अतएव घरों में उपासना का वातावरण बनाया जाना युग-परिवर्तन की पहली आवश्यकता उसके लिए 2400 करोड़ मंत्र जप का एक ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान भी इस अश्वमेध से जुड़ा हुआ रहेगा। लोग उसमें भावनापूर्वक भाग लें।
इसके लिए चौकी पर गायत्री माता का चित्र, जलपात्र, अगरबत्ती, पूजा उपकरण रखें जायँ। शरीर के पंच पवित्र संस्कार-पवित्रीकरण, आचमन, प्राणायाम, शिखाबन्धन न्यास सम्पन्न कर जप आरम्भ किया जाय। नियत संख्या पूरी होने पर सूर्य भगवान को जलपात्र से अर्घ्य चढ़ा दिया जाय। स्वयं को सूर्य शक्ति से जोड़ने-सविता देव को उपहार अर्पित करने का यह भावभरा प्रयोग है। शास्त्रकारों ने अश्वमेध योजकों के लिए से अनिवार्य ठहराया है। यह प्रयोजन देवस्थापना द्वारा पूर्ण किया जायेगा।
2-ग्राम प्रदक्षिणा-सूर्य की तरह ऊर्जा, हवा की तरह प्राण वायु बिखेरने वाले समयदानी परिव्राजकों की कई-कई टोलियाँ आयोजन करने वाले प्रान्त में तीन माह पहले से भेजी जा रही हैं। जो अपनी शक्तिपीठों-प्रज्ञा संस्थानों को केन्द्र बनाकर गाँव-गाँव साइकिलों से प्रव्रज्या करेंगी। साइकिल टोली जिस गाँव में पहुँचेगी वहाँ दिन में देवस्थापना-एवं सायंकाल-दीप यज्ञ सम्पन्न करेंगी। दीपयज्ञ के साथ देवदक्षिणा अनिवार्य रूप से जुड़ी है। उपस्थित जन एक बुराई छोड़ने एक अच्छाई ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करेंगे। देवस्थापना कार्यक्रम में व्यक्तिगत मुलाकात-पारस्परिक चर्चा, प्रत्येक घर में श्रद्धा का बीज बोने जैसे तत्व समाए हैं। जिनके परिणाम-परिवारों में सुसंस्कारिता, आपसी सहयोग की बढ़ोतरी के साथ, प्रतिभाओं की ढूंढ़-खोज उन्हें तराशने खरीदने जैसे व्यापक प्रयोजन सिद्ध करने वाले होंगे।
अगली प्रातः युग संकीर्तन करते हुए टोली सदस्य और ग्रामवासी ग्राम प्रदक्षिणा (प्रभात फेरी) सम्पन्न करेंगे। बीच-बीच में नवयुग का सन्देश देने वाले नारों का उद्घोष होगा। ग्राम देवता की स्थापना का भूमि पूजन संस्कार होगा। इस पूजित स्थान से अश्वमेध यज्ञ के लिए मिट्टी जाएगी। इस तरह सारे प्रान्त के गाँवों से आई मिट्टी अश्वमेध यज्ञ के यज्ञ कुण्ड बनाने में प्रयुक्त होगी। हर गाँव में प्रज्ञामण्डल स्थापित होगा और गाँव वालों ने चाहा तो इस पूजित स्थान को पीछे संस्कार चबूतरे के रूप में बना दिया जाएगा। जहाँ भविष्य में बाल-संस्कार होते रहेंगे। ग्राम-वासियों को अश्वमेध का आमंत्रण देने के साथ उस एक गाँव के कार्यक्रम का समापन होगा। इस तरह प्रान्त का कोई गाँव न बचेगा-जहाँ देव-संस्कृति का आलोक न पहुँचा हो।
3-तीर्थ परिक्रमा- कार्यक्रम आयोजन प्रान्त के ही परिजन करेंगे। सारे प्रान्त में जितने भी तीर्थ हैं, उनकी एक परिक्रमा अंकित कर वहाँ की शाखाओं के लोग नारे लगाते हुए चलेंगे। पुराने व्यक्ति वापस होते जाएँगे-नए जुड़ते जाएँगे। इस तरह सभी तीर्थों का जल-रज संग्रह कर यज्ञ स्थल पर लाकर प्रतिष्ठित किया जाएगा।
4-संस्कार महोत्सव-अक्टूबर मास में शाँतिकुँज से निकल रही टोलियाँ प्रारम्भ में राजस्थान ही पहुँचेंगी और प्रान्त के सभी नगरों कस्बों में संस्कार महोत्सव के माध्यम से इस अश्वमेध यज्ञ में भाग लेने के लिए जन आमंत्रण देंगी। देवस्थापना-देव दक्षिणा कार्यक्रम यह टोलियाँ भी सम्पन्न करेंगी। इस तरह कोई नगर, कोई कस्बा बाकी न रहेगा, जहाँ देव-संस्कृति का उद्घोष न पहुँचा हो। 6 नवम्बर को तीर्थ परिक्रमा के साथ ये टोलियाँ भी यज्ञ स्थल पहुँच जाएंगी। कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद उनके अन्य प्रान्तों के लिए विदाई होगी। यही क्रम सभी प्रान्तों में अश्वमेध आयोजन से पूर्व रहा करेगा।
5-सहस्र कुण्डीय अश्वमेध- प्रथम आयोजन जयपुर में है। सवालाख याजक इस महायज्ञ में गायत्री मंत्र से 24 करोड़ आहुतियाँ देवताओं तक पहुँचाने वाले पुरोहित की संज्ञा दी गई है। वेद का कथन है, इस महायज्ञ से इतनी बड़ी ऊर्जा उत्पन्न होगी, जिसे कौरवी अनीति से जूझने वाले गाण्डीव, वृत्तासुर के आक्रामक प्रयासों को तहस-नहस करने वाले वज्र की उपमा दी जा सके। इससे न केवल आयोजन क्षेत्र में व्याप्त अनास्थाओं का जड़-मूल से विनाश होगा, बल्कि सत्प्रवृत्तियों का व्यापक विस्तार होगा। जहाँ सुमति तहं संपत्ति नाना की उक्ति से जा परिचित हैं वे इस महायज्ञ के पुण्य फल की सहज कल्पना कर सकते हैं। ऐसा आयोजन किसी ने देखा क्या सुना भी नहीं होगा।
6-समयदान-अंशदान- आयोजन जितना विराट है समय और साधनों का नियोजन भी उतने ही बड़े स्तर का चाहिए। इनसान अपनी हल्की-ओछी माँगों को पूरा करवाने के लिए भगवान का दरवाजा हर समय खटखटाता ही रहता है। पर भगवान ने आज धरती का भाग्य विधान नए सिरे से लिखने के लिए समर्थ हाथों और कागज-कलम स्याही-जुटाने वाले उदारचेताओं को गुहार लगाई है। समय-समय पर दैवी प्रयोजनों के लिए अपने जीवन के पल-पल की आहुति देने वाले शंकराचार्य उनके लिए साधनों की कमी न पड़ने देने का संकल्प करने वाले राजा माँधाता, महात्मा बुद्ध और बिम्बसार, राणाप्रताप और भामाशाह, महात्मा गाँधी तथा जमनालाल बजाज-जैसे समयदानियों-अंशदानियों के युग्म इस वीर भूमि में पैदा होते रहे हैं। आज भी ऐसे ही युग्मों की जरूरत है।
अश्वमेध प्रयोजन के लिए की जा रही समयदान और अंशदान की माँग को-युग की चुनौती के रूप में लिया जाना चाहिए। कौन कितना देगा ? प्रश्न इसका नहीं है। परन्तु जो जितनी समय आर साधन की आहुतियाँ इस महायज्ञ में अर्पित कर सकता है उन्हें अर्पित करने में कृपण न बनें। हरेक को अपनी श्रद्धा के फूल युगदेवता के चरणों में चढ़ाना ही चाहिए। इस आयोजन में सम्मिलित होने की भाव-भरी अपेक्षा सभी से है। अश्वमेध प्रयोजन में लगने वाले ‘राम काज कीन्हें बिना, मोहि कहाँ विश्राम का, सामयिक संस्करण प्रस्तुत करेंगे ऐसा विश्वास है।