
हिंसा की कल्पना करने वाले और कुछ भी हों विद्वान नहीं
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इतिहास के पन्ने इस बात की हामी भरते हैं कि जब-जब राष्ट्र परायण लोकहित में समर्पित शूरवीरों, भावनाशीलों के मन में राष्ट्र को संगठित समर्थ बनाने की ललक जगी- अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किए जाते रहे। पृथु, अम्बरीष, नहुष, दिलीप, रघु आदि शासकों वशिष्ठ-याज्ञवल्क्य, देवल आदि श्रोत्रियों द्वारा अश्वमेध सम्पन्न करने के विवरण इतिहास पुराणों में मिलते हैं। रावण के आतंक को समाप्त करने वाले भगवान राम द्वारा अश्वमेध रचाने के वर्णन से वाल्मीकीय रामायण के उत्तर काण्ड के 91 और 92 सर्ग भरे हैं। युधिष्ठिर-जनमेजय आदि के अश्वमेध पराक्रम का विवरण महाभारत में देखा जा सकता है। इन सभी प्रयासों में ‘राष्ट्रं वा अश्वमेधः। वीर्यवा अश्वः (शतपथ ब्राह्मण 13/1/6 अर्थात्-पराक्रम ही अश्व है, राष्ट्र को संगठित-समर्थ बनाना ही अश्वमेध है। उक्ति चरितार्थ होती दिखती है।
महाभारत काल के बाद अश्वमेध की प्रक्रिया उतनी सघन और व्यापक नहीं रही। परिणाम में राष्ट्र भी बिखरता टूटता-बँटता चला गया। ईसा के 185 वर्ष पहले राष्ट्र की इस दुर्दशा ने महर्षि पतंजलि को व्याकुल किया। उनके निर्देश से पुष्यमित्र का शौर्य जगा। संगठित राष्ट्र ने अश्वमेध का यजन किया पुष्यमित्र शुँग के बाद गुप्त वंश के द्वितीय सम्राट समुद्र गुप्त द्वारा 330 ईसवी में अश्वमेध में सम्पन्न करने का उल्लेख इतिहास में मिलता है। अश्वमेध यज्ञ का पूर्णाहुति के अवसर पर यशस्वी सम्राट ने ऋग्वेद के मंत्र
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाँ चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्
ताँ माँ देवा व्यदधुः पुरुत्राभूरिस्थानाँ भूर्यावेशयम्न्तीम
(ऋग्वेद 10/10/125)
“मैं राष्ट्र की अधीश्वरी (भारत माता) समृद्धियों का संगम परब्रह्म से अभिन्न तथा सभी देवताओं में प्रधान हूँ। पूरे परिवेश में मैं ही स्थित हूँ। नाना स्थानों में रहने वाले देवता-जो भी करते हैं मुझे जानकार करते हैं” को राष्ट्र मंत्र घोषित किया।
हिन्दू धर्म कोश के लेखक डा. राजवली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ के अश्वमेध प्रकरण में इसके स्वरूप और महत्व पर प्रकाश डालने वाले ढेरों शास्त्र प्रमाणों को उद्धृत किया है। आप स्तम्ब स्मृति के अनुसार साँस्कृतिक दिग्विजय के लिए लगभग चार सौ वीरों का वाहिनी निकलती थी। इसकी पूर्णाहुति के रूप में तीन दिन चलने वाला अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न होता था। यज्ञ में सम्मिलित होने वाले याजक सविता देव को अपनी भावांज्जलि समर्पित करने वाले सूर्योपासक होते थे। ऐतरेय ब्राह्मण 8-20 में भी इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले महापुरुषों का विवरण मिलता है।
मध्ययुगीन अन्धकार और परतंत्रता की त्रासदी के दिनों में न केवल वैदिक प्रक्रियाएँ विलुप्त हुई बल्कि उनके अर्थ के अनर्थ निकाले गए। इन्हीं में से एक मेध का अर्थ हत्या या हिंसा किया जा सकता है। जबकि वेद के मर्मज्ञ विद्वान पं. दामोदर सातवलेकर ने मेध को मेधृ धातु से निष्पक्ष ‘मेध’ शब्द के लोगों में मेधा, एकता और प्रेम बढ़ाने के अर्थों में प्रयुक्त किया है। भाष्यकार महीधर ने यजुर्वेद 2 दामोदर सातवलेकर ने मेध को मेधृ धातु से निष्पक्ष ‘मेध’ शब्द के लोगों में मेधा, एकता और प्रेम बढ़ाने के अर्थों में प्रयुक्त किया है। भाष्यकार महीधर ने यजुर्वेद 23-40 का भाष्य करते हुए कहा है-तेष्वारण्याः सर्वे उत्स्रष्टव्या न तु हिंसया “अर्थात्-याज्ञिक क्रियाओं को सम्पादित कर पशुओं को जंगल छोड़ दिया जाता था उनकी हिंसा नहीं की जाती। यज्ञ का एक नाम है ‘अध्वर’ जिसका अर्थ होता है हिंसा रहित कृत्य। उसमें अग्नि का उपयोग तो होता है पर साथ ही पुरोहितों और याजकों में से प्रत्येक को यह भी ध्यान रखना पड़ता है कहीं समिधाओं या शाकल्य में कृमि-कीटक तो नहीं है और उस गर्मी से चींटी आदि प्राणियों की जीवन हानि तो नहीं हो रही। जहाँ इतनी सतर्कता के निर्देश हों वहाँ प्राणिवध की तो कल्पना सम्भव नहीं। वेद भगवान का तो स्पष्ट आदेश है-”पशुन पाहि गाँ मा हिंसी, अजा मा हिंसी। अपिमा हिंसी, इमं मा हिंसी द्विपाद पशुँ॥ माँ हिंसी रेकशंक पशुँ माँ हिंस्यात सर्वभूतानि। अर्थात् पशुओं की रक्षा करो, गाय को मत मारो, बकरी को मत मारो, भेड़ को मत मारो, दो पैर वाले (मनुष्य , पक्षी) को मत मारो। एक खुर वाले पशुओं (घोड़ा, गधा) को मत मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। पशुओं की हिंसा करना अच्छे मनुष्य का लक्षण नहीं है। इसी तथ्य को पंचतंत्रकार ने स्वीकार किया है-
एतेऽपि ये याज्ञिका यज्ञकर्मणि पशून व्ययापादयन्ति
ते मूर्खाः परमार्थं श्रुतेर्न जानन्ति।
तत्र किलैतयुक्तम् अजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति अजास्तावद् ब्रीह्यः साप्तवार्षिकाः कथ्यनते न पुनः पशु विशेषाः। उक्तंच ‘वृक्षान् क्षित्वा पशूनहत्वा कृत्वारुधिर कर्दमम्।
यद्येवं गम्यते स्वर्ग, नरकं केन् गम्यते॥”
अर्थात्-जो याज्ञिक यज्ञ में पशुओं की हत्या करते हैं, वे मूर्ख हैं। वे वस्तुतः श्रुति (वेद) के तात्पर्य को नहीं जानते। वहाँ जो यज्ञ करना चाहिए, उसमें अज से तात्पर्य व्रीह या पुराने अनाज विशेष से हैं न कि बकरों से।’ आप्तकथन भी है यदि पशुओं की हिंसा करके उनकी रुधिर की धारा बहा कर स्वर्ग में जाया जा सकता है तो नरक में जाने का मार्ग कौन सा है?
अश्वमेध के हिंसा रहित होने का प्रमाण महाभारत शान्तिपर्व के अध्याय-3-336 में देखा जा सकता है। इसमें वसु महाराज द्वारा अश्वमेध करने का रोचक वृत्तांत इसमें आचार्य बृहस्पति के अतिरिक्त कपिल, कठ, कण्व, तैत्तिरीय आदि ऋत्विक् थे। महाभारतकार के अनुसार यहाँ “न तत्र पशुघातोऽभूत” पशुओं की किसी तरह की हत्या नहीं की गई। यों तो यज्ञ में किसी तरह की हिंसा वर्जित है, फिर अश्वमेध के अश्व को तो-स्तुत्य ठहराया गया है। आचार्य महीधर के शब्दों में हे अश्व यस्त्वमभिधा असि। अभिधीयते स्त्यत् इत्याभिधाः । अर्थात्-हे अश्वमेध के अश्व आप स्तुत्य है (महीधरयजुर्वेद 22-3)
वैदिक यज्ञों में अश्वमेध का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे महाक्रतु कहा गया है। इसकी ऐतिहासिक सर्वथा असंदिग्ध है। राष्ट्रहित के लिए-दैवी शक्तियों के आह्वान और मानवीय सामर्थ्य को नियोजन करने वाली इस प्रक्रिया में किसी भ्रान्ति की रत्तीभर गुँजाइश नहीं। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मंत्र हैं। यजुर्वेद में 22 से 25 अध्याय में इसका विधि-विधान दिया गया है।शतपथ ब्राह्मण (13 काण्ड) में इसका विशद वर्णन है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3-8-9) कात्यानीय श्रौतसूत्र (20) आपस्तम्ब (20) आश्वलायन (10,6) शखाँयन (16) आदि में इसके स्वरूप और महात्म्य के विस्तृत विवरण मिलते हैं।
इन सबका गहराई से अध्ययन करने वाले डा. ब्लूमफील्ड ने न केवल इसे राष्ट्रीय उपासना की संज्ञा दी बल्कि अपने ग्रन्थ “आइडियाज एण्ड इंस्ट्टूयशन्स् इन वैदिक इण्डिया” में यह भी कहा-क्या ही सुखद हो यदि विश्व के सभी राष्ट्र, राष्ट्र उपासना की इस पद्धति को अपना कर अपनी संगठन सामर्थ्य और चरित्रबल की वृद्धि करें। अश्वमेध आयोजनों की वर्तमान शृंखला पर विचार करके यही कहा जा सकता है कि मनीषी ब्लूमफील्ड की आकाँक्षा पूर्ति का समय आ गया । राष्ट्रीय और मानवीय भावनाओं को विकसित करने वाली यह योजना न केवल भारत वरन् समूचे विश्व को नया रंग, वातावरण , एक उच्चतर भावना, एक बड़ा उद्देश्य प्रदान करेगी। इसके परिणाम में यदि’राष्ट्र’ शब्द विश्व राष्ट्र का व्यापक बोध कराने लगे तो किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।