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Magazine - Year 1992 - Version 2

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आश्विन नवरात्रि पर सामयिक संदर्भ:- - आत्मिक शक्ति संवर्धन हेतु विशिष्ट अवसर

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ईश्वरोपासना-आराधना के लिए किसी मुहूर्त विशेष की प्रतीक्षा नहीं की जाती। सारा समय भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने के लिए हर घड़ी शुभ मुहूर्त है, इतने पर भी प्रकृति जगत में कुछ विशिष्ट अवसर ऐसे आते हैं कि कालचक्र की उस प्रतिक्रिया से मनुष्य सहज ही लाभ उठा सकता है। उन दिनों किये गये साधनात्मक प्रयास संकल्प बल के सहारे शीघ्र ही गति पाते व साधक का वर्चस् बढ़ाते चले जाते हैं। ऐसे अवसरों पर बिना किसी अतिरिक्त पुरुषार्थ के अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल जाता है। उस काल विशेष में किया गया संकल्प, अनुष्ठान, जप, तप, योगाभ्यास आदि साधक को सफलता के अभीष्ट द्वार तक घसीट ले जाता है। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाता ऋषियों ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को दृष्टिगत रखकर ही ऋतुओं के इस मिलन काल की संधिवेला को “नवरात्रियों” की संज्ञा दी है। नवरात्रि पर्वों का साधना विज्ञान में विशेष महत्व है।

इस प्रकार रात्रि और दिन का मिलन प्रातः कालीन और सायंकालीन ‘संध्या’ के नाम से प्रख्यात है और पूजा-उपासना के लिये महत्वपूर्ण माना गया है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के परिवर्तन के दो दिन पूर्णिमा एवं अमावस्या के नाम से जाने जाते हैं तथा अधिकाँश महत्वपूर्ण पर्व जैसे दीपावली, होली, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, शरदपूर्णिमा आदि प्रधान पर्व इसी संधिवेला में मनाये जाते हैं। इसी प्रकार ऋतुओं का भी संधिकाल होता है। शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन का यह संधिकाल वर्ष में दो बार आया करता है। चैत्र में मौसम ठण्डक से बदलकर गर्मी का रूप ले लेता है और आश्विन में गर्मी से ठण्डक का। आयुर्वेद के ज्ञाता शरीर शोधन-विरेचन एवं कायाकल्प जैसे विभिन्न प्रयोगों के लिए संधिकाल की इसी अवधि की प्रतीक्षा करते हैं। शरीर और मन के विकारों का निष्कासन-परिशोधन भी इस अवसर पर आसानी से हो सकता है। जिस प्रकार बीज बोने की एक विशेष अवधि होती है और चतुर किसान उन दिनों सतर्कतापूर्वक अपने खेतों में बीज बो देते हैं, उसी प्रकार इन नवरात्रियों में भी कुछ तपश्चर्या की जा सके तो उसके अधिक फलवती होने की संभावना रहती है। स्त्रियों को महीने में जिस प्रकार ऋतुकाल आता है, उसी प्रकार नवरात्रियाँ भी प्रकृति जगत में ऋतुओं का ऋतुकाल हैं। जो नौ-नौ दिन के होते हैं। उस समय उष्णता और शीत दोनों ही साम्यावस्था में होते हैं। पृथ्वी की गति मंद पड़ जाती है। इन दिनों यदि आध्यात्मिक बीजारोपण किये जाएँ तो उनके फलित होने की संभावना निश्चय ही अधिक रहेगी।

नवरात्रियों को देवत्व के धरती पर उतरने का, जागृतात्माओं में दैवी प्रेरणा फूँकने वाला समय माना गया है। इन नौ दिन विशेषों में प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल व मानवीकाया का सूक्ष्म कलेवर एक विशिष्ट परिवर्तन प्रक्रिया से गुजरता है। शरीर में ज्वार-भाटे जैसी हलचलें उत्पन्न होतीं हैं और जीवनी शक्ति पूरी प्रबलता से देह में जमी विषाक्तताओं एवं मानसिक विकृतियों को हटाने के लिए तूफानी संघर्ष करती हैं। मनुष्य की उमंगे भी इन दिनों अविज्ञात उभार के दौर के रूप में विशेषतः सक्रिय पायी जाती है। वातावरण कुछ इस प्रकार का बनता है कि आत्मिक प्रगति के लिए अन्तः प्रेरणा सहज ही उठने लगती है। इन दिनों सूक्ष्मजगत से दैवी प्रेरणायें अनुदान रूप में बरसती हैं और सुसंस्कारों आत्मायें अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरते देखती हैं। इन उमंगों का सुनियोजन कर सकने वाली देव प्रकृति की साधना परायण आत्मायें अदृश्य प्रेरणाशक्ति से बरबस प्रेरित होकर आत्मकल्याण व लोक-मंगल के क्रियाकलापों में नियोजित होती और बहुमूल्य रत्न-राशि उपलब्ध कर कृतकृत्य बनता है। संधिकाल के इन अवसरों पर न केवल मानवी चेतना को प्रभावित करने वाली, वरन् अनुकूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बन जाती हैं। मनुष्य का चिन्तन ही नहीं, कर्म भी ऐसी दिशा विशेष में तनिक से प्रयास-पुरुषार्थ से बढ़ने लगता है जिसकी किसी को कभी संभावना नहीं होती। जो इस अवसर के पहचानते हैं वे कभी चूकते नहीं। आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनाते और साधना-पुरुषार्थ के लिए कटिबद्ध होते हैं।

मध्यकाल में तंत्र प्रयोजनों की मान्यता अत्यधिक थी। अधिकाँश कर्मकाण्डों का, मंत्र सफल बनाने की साधनाओं के तंत्रवेत्ता इन नवरात्रियों में ही सम्पन्न करते थे। वाममार्गी साधक अभी भी अभीष्ट इच्छापूर्ति हेतु इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते हैं। सतोगुणी साधनाओं को अपनाने वाले दक्षिणमार्गी साधक आत्मिक प्रगति हेतु इसे एक विशिष्ट अनुदान रूप में मानकर अपनी तथा साधना का सुयोग बिठाते हैं। मानवी चेतना के परिमार्जन-परिशोध हेतु योग साधना एवं तपश्चर्या की जाती है और इसके लिए संधिका की नवरात्रिबेला से श्रेष्ठ और कोई समय नहीं।

नवरात्रि-पर्व वर्ष में दो बार आता है। आश्विन सदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक और चैत्र सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक 9-9 दिन की दो नवरात्रियाँ होती हैं। आश्विन में दशमी को विजयादशमी पड़ती है, जबकि चैत्र नवमी को रामनवमी का पर्व आता है। एक तीसरी नवरात्रि ज्येष्ठ सुदी प्रतिपदा से नवमी तक भी होती है। दशमी को गंगा जयन्ती अथवा गायत्री जयन्ती होने के कारण यह नौ दिन का पर्व भी मानने योग्य है। पर यदि उसकी व्यवस्था न बन पड़े तो 6-6 महीने के अन्तर से आने वाली आश्विन और चैत्र मास की दो नवरात्रियाँ तो तपश्चर्या के लिए नियत रखनी ही चाहिए। तिथियाँ प्रायः घटती-बढ़ती रहती हैं। साधना उस झंझट में नहीं पड़ती। इस वर्ष आश्विन नवरात्रि 27 सितम्बर से 5 अक्टूबर 92 की तारीखों में है।

वैदिक साहित्य में नवरात्रियों का सुविस्तृत वर्णन है। ऋषियों ने उसकी व्याख्या विवेचना करते हुए कहा कि इसका शाब्दिक अर्थ तो नौ रातें हैं, पर इनका गूढ़ार्थ कुछ और ही है नवरात्रि का तात्पर्य यह है कि मानवी काया रूपी अयोध्या में नौ द्वार अर्थात् नौ इन्द्रियाँ हैं। अज्ञानतावश दुरुपयोग के कारण उनमें जो अन्धकार छा गया है उसे अनुष्ठान करते हुए एक-एक रात्रि में एक-एक इन्द्रिय के ऊपर विचारना, उनमें संयम साधना तथा सन्निहित क्षमताओं को उभारना ही वस्तुतः नवरात्रि की साधना कहलाती है। रात्रि का अर्थ ही है-अन्धकार । जो मनुष्य इन नौ द्वारों से-नौ इन्द्रियों के विषयों से जागरुक रहता है, वह उनमें लिप्त नहीं होता और न ही उनका दुरुपयोग करके अपने ओजस्-तेजस् और वर्चस् को गँवाता है। अज्ञानान्धकार से प्रकाश में लाने का नाम ही नवरात्रि जागरण है। अनुष्ठान भी इसी अन्धकार को-अज्ञानता को नष्ट करने के लिये किया जाता है। अनुष्ठान शब्द की परिभाषा यदि दी जाय तो वह इस प्रकार होगी-”अतिरिक्त आध्यात्मिक सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिये संकल्पपूर्वक नियत संयम-प्रतिबंधों एवं तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना।” इन नवरात्रियों में सर्वसाधारण से लेकर योगी, यती, तपस्वी सभी अपने-अपने स्तर की संयम साधना एवं संकल्पित अनुष्ठान करते हैं। इस अवधि की प्रत्येक अहोरात्रि महत्वपूर्ण मानी जाती है और उन प्रत्येक क्षणों को साधक अपनी चेतना को परिष्कृत-परिशोधित करने-उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने में लगता है।

नवरात्रि साधना की विशिष्टता यह है कि यह संकल्पित साधना है। इसमें उपासना क्रम का निर्धारण कुछ ऐसा है जिसका पालन कर सकना सभी के लिए सुलभ है। इस अवधि में 24 हजार का लघु गायत्री अनुष्ठान भी सम्पन्न हो जाता है। इसमें वाममार्गी साधनाओं जैसे मंत्रोपचार के किन्हीं भी पेचीदे विधि-विधानों का झंझट भी नहीं रहता। पुरश्चरण कड़े होते हैं और उन्हीं के लिए उपयुक्त पड़ते हैं जो पूरा समय-पूरा मनोयोग उसी कार्य में नियोजित रखे रह सकते हों व कड़ी तपश्चर्या का पालन कर सकते हों। इसी तरह वाममार्गी ताँत्रिक विधान-प्रयोग भी कठिन है। यह विधान प्रयोग मनुष्य में तमोगुणी तत्वों को बढ़ा सकते हैं। इसीलिए ऋषियों ने श्रेय पंथ के पथिकों को 24 सहस्र जप की संकल्पित गायत्री साधना ही नवरात्रि के लिए सर्वश्रेष्ठ बतायी है। गायत्री परम सतोगुणी-शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का-आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्मकल्याण का मार्ग है। गायत्री साधकों को यही साधना इन दिनों करनी चाहिए।

यों तो नवरात्रि को नवदुर्गा की उपासना से भी जोड़कर रखा गया है। सर्वत्र दुर्गा की-महाकाली की पूजा होती है। दुर्गा कहते हैं-दोष दुर्गुणों’-कषाय-कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति को। नौ रूपों में माँ दुर्गा की उपासना इसीलिए की जाती है कि वह हमारे इन्द्रिय चेतना में समाहित दुर्गुणों को नष्ट करती है। मनुष्य की पापमयी वृत्तियाँ ही महिषासुर हैं। नवरात्रियों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया और संयम द्वारा दमन किया जाता है। संयमशील आत्मा को ही दुर्गा, महाकाली, गायत्री कहा गया है। प्राणचेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति महिषासुर-मर्दिनी बन जाती है।

गायत्री को आद्यशक्ति कहा गया है। दुर्गा, महाकाली, महालक्ष्मी आदि उसी महाशक्ति के विविध रूप हैं। अतः नवरात्रि में गायत्री अनुष्ठान की महत्ता सर्वोपरि है। सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिए की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप से महत्व मिला है। इसी कारण 24 सहस्र की संकल्पित साधना को नवरात्रि में विशिष्ट महत्ता प्राप्त है। इसमें प्रतिदिन 27 माला जप करने से नौ दिनों में पूरी हो जाती है। अनुष्ठान काल में नियत जप संख्या तो पूरी करनी पड़ती है साथ ही कुछ विशेष तपश्चर्यायें भी इन दिनों करनी पड़ती हैं। ब्रह्मचर्य व्रत-पालन, भोजन में उपवास तत्व का समावेश, तपस्वी जैसी मनःस्थिति जिसमें अपनी शरीर सेवा दूसरों से कम से कम करायी जाय, भूशयन, कम वस्त्र, नशे का, चमड़े का परित्याग जैसी तितिक्षायें और अन्त में अनुष्ठान की पूर्णाहुति ये-अनुष्ठान की सामान्य मर्यादायें हैं। इस प्रकार नवरात्रियों में अनुष्ठानों की विशेष तपश्चर्या की व्यवस्था बनाना पड़ती है। इससे शरीर और मनमें भरे विकारों का परिशोधन करने में बड़ी सहायता मिलती है, कारण कि यह पर्व आत्मचेतना के परिष्कार-परिमार्जन का पर्व जो ठहरा।

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