
अश्वमेध का अर्थ है अमृतवर्षा- अनुग्रहवर्षा
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शास्त्रकारों ने अश्वमेध को परम पुरुषार्थ कहा है। सामान्य पुरुषार्थ का दायरा भौतिक स्तर तक सीमित है। इसे नियंत्रित करने वाली दैवी शक्तियाँ प्रारब्ध विधान यदि अनुकूल न हो तो सारे प्रयास मिट्टी में मिल जाते हैं। परिणाम में निराशा असफलता-उद्विग्नता ही पल्ले पड़ती है। यही कारण है सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने पुरुषार्थ जैसी अमोध दैवी शक्तियों को अनुकूल बनाने में सक्षम तप-साधनाओं, नय भाग्य विधान गढ़ने में समर्थ आध्यात्मिक प्रक्रियाओं की रचना की और उन्हें उच्चतर पुरुषार्थ कहा।
अश्वमेध की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही अलौकिक और अनुपम है? इसमें अगणित पुण्यकाल भरे हैं। जिनकी प्रभाव सामर्थ्य जहाँ सामूहिक स्तर पर अशुभ प्रभावों का निवारण करती है, वहीं भागीदारी लेने वाले याजकों के व्यक्तिगत जीवन में ढेर के ढेर अनुदान वरदान उड़ेलने वाली सिद्ध होती है। अत्रि स्मृति में इसी कारण अश्वमेध को ‘सर्व कामधुक्’-अर्थात्-सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला कहा गया है। इसका कारण बताते हुए स्मृतिकार का कहना है-
अश्वमेधेन हविषा तृप्ति मायान्ति देवताः ।
तस्तृप्ता र्स्पथत्येन नरस्तृप्तः समृद्धिभिः॥
अर्थात्- अश्वमेध में हवि का हवन करने से देवताओं की तृप्ति होती है। तृप्त होकर देवता मनुष्य को इच्छित समृद्धि प्रदान कर संतुष्ट करते हैं।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार अश्वमेध यज्ञ में अग्नि को संस्कारित कर उसमें श्रद्धा, भावना के साथ जो भी आहुति दी जाती है। उसे देवता ग्रहण करते हैं। देवताओं का मुख अग्नि है, इसीलिए देवता यज्ञ से प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता की कामनाओं की पूर्ति करते हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में हंस जी हवन विधि का वर्णन करते हुए
ऋषियों से कहते हैं-
अग्निर्मुख देवतानाँ सर्वभूत परायणम्।
तस्यशुश्रुणादेव सर्वाकामान्समश्नुते॥
अर्थात्-सर्वभूत परायण देवताओं का मुख अग्नि है। देवताओं की सेवा-शुश्रूषा करने से ही सब कामनाओं की प्राप्ति होती है।
आपस्तम्ब स्मृति के अनुसार जिस स्थान पर अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न होता है, वहाँ समस्त देवता सारे तीर्थों की चेतना पूँजीभूत होती है। इसलिए वहाँ जाने मात्र से गंगा, यमुना, कावेरी, कृष्णा,गोदावरी आदि नदियों के स्नान का पुण्य, और गया, काशी, द्वारका आदि तीर्थों में जाने का प्रतिफल प्राप्त होता है। महाभारत में व्यास जी युधिष्ठिर को इसका माहात्म्य समझाते हुए कहते है-
अश्वमेधों हि राजेन्द्र पावनः सर्व पाप्यनाम्।
तेनेष्ट्य त्वं विपाणा वै भविता मात्र संशय॥
अश्वमेध वर्ष (61) 16
हे राजन्-अश्वमेध यज्ञ समस्त पापों का नाश करके यजमानों को पवित्र बनाने वाला है उसका अनुष्ठान करके तुम पाप मुक्त हो जाओगे।
आश्वलायन (16/61) के अनुसार सभी पदार्थों के इच्छुकों सभी विजयों के अभिलाषियों तथा अतुल समृद्धि के आकाँक्षियों को अश्वमेध का यजन अवश्य करना चाहिए। ऋषि गोभिल ने ‘श्री वै अश्वमेधः कहकर अश्वमेध यज्ञ में हवन की जाने वाली दिव्य औषधियों, दिव्य मंत्रों के सम्मिलित प्रभाव से याजकों में मेधा-प्रतिभा का जागरण होता है। रोगों का नाश होकर आयु बढ़ती है। पुराणकार के अनुसार उन्नत प्रतिभा और उत्तम स्वास्थ्य के आकाँक्षियों को इसका यजन अवश्य करना चाहिए। महर्षि कात्यायान न प्रदान करने वाले के साथ स्वर्ग तक आत्मा को पहुँचाने वाला वाहन कहा है। इसका महात्म्य बताते हुए पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में कहा गया है-
अश्वमेधाप्यायिता देवाँ वृष्ठयुत्यर्गेण मानवः।
आप्यायनं वै कुर्वन्ति यज्ञाः कल्याण हेतवः॥
अर्थात्-अश्वमेध में प्रसन्न हुए देवता मनुष्यों पर कल्याण की वर्षा करते हैं।
इस विराट प्रयोग से मिलने वाले पुण्य फलों के बारे में दो ही शब्द कहना पर्याप्त होगा अनगिनत और अपार शास्त्रकार तत्वदर्शी ऋषि इसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते। जिस क्षेत्र में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न हो रहे हैं, वहाँ के निवासियों को यही समझना चाहिए कि उनके जन्म-जन्मांतर के पुण्य देवताओं का आग्रह इस रूप में प्राप्त हो रहा है। इस यज्ञ में भाग लेना, यज्ञ स्थान की परिक्रमा करना किसी भी तरह यज्ञायोजन में अपने समय और श्रम को नियोजित करना उपरोक्त शास्त्रवर्णित इन महान पुण्य फलों का प्रदाता सिद्ध होगा ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। इसी विश्वास और लोक कल्याण की भावना के साथ सभी जाल-जंजालों को एक किनारे करके अपने क्षेत्र में होने वाले अश्वमेध आयोजन में पूरे उत्साह और उमंग के साथ बढ़-चढ़ कर भा लिया जाय।
*समाप्त*