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Magazine - Year 1992 - Version 2

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सफल,समृद्ध जीवन की रीति-नीति

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मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि व्यक्तित्व का आदर्शवादी विकास है। चतुरता और धूर्तता की परिधि में तो अनेकों को एक दूसरे से बढ़-चढ़कर हरफन मौला देखा जा सकता है। अपराधकर्मी आमतौर से सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक धूर्त और अधिक दुस्साहसी होते हैं। उन का दिमाग भी एक से बढ़कर एक प्रपंच रचता है और उन्हें सफल बनाने के लिए ऐसे दावपेचों का प्रयोग करता है जिनकी जानकारी प्राप्त करने वाले आश्चर्यचकित रह जाते हैं। व्यावहारिक जीवन में कुशलता एवं सुव्यवस्था आवश्यक है। उसके आधार पर दैनिक जीवन में पल-पल पर आने वाली समस्याओं का सही प्रकार से समाधान किया जा सकता है और प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए जो प्रयास करना, तालमेल बिठाना और सरंजाम जुटाना आवश्यक होता है उसका उपाय खोज निकाला जाता है। यही व्यवस्था बुद्धि है। सभी कार्यों को सुसम्पन्न कर सकना इसी आधार पर बन पड़ता है। महत्वपूर्ण कार्यों की सही योजना बनाना और उन्हें पूरा करने की रणनीति तैयार करना इसी आधार पर बन पड़ता है। सफल समझे जाने वाले व्यक्ति इसी कुशलता के आधार पर स्वल्प साधन, सीमित सहयोग और प्रतिकूल वातावरण में भी अपने लिए राह बनाते और उफनती नदी के प्रवाह चीरते हुए नदी नाव को इस किनारे से उस किनारे तक खींच ले जाते हैं। ऐसे लोग अपने कल्पना तन्त्र को इतना परिष्कृत कर लेते हैं कि सहयोगियों का अधिकाधिक समर्थन प्राप्त करते और ईर्ष्यालु प्रति-पक्षियों को उग्र होने देने से रोके रहें। संभावनाओं का सही अनुमान लगा सकें। अपनी सामर्थ्य का सही आकलन करते रहें और यह देखते रहें कि वर्तमान परिस्थितियों में कितना वजन उठ सकता है। व्यवहार कुशलता इसी को कहते हैं। यह बौद्धिक कुशाग्रता जिसमें जितनी अधिक विकसित होती है वह उतना ही सही सोच पाता है। जिसके कदम सही दिशा में सही गति से उठते रहते हैं फलतः वह ऐसा कुछ कर दिखाता है जो भटकाव वाली मनःस्थिति में अनेक अनुकूलताएँ होते हुए भी नहीं बन पड़ता। यह उपलब्धि एकाग्रता और यथार्थता के समन्वय से बन पड़ती है।

बेसिर पैर की कल्पनाएँ करने और बिना जड़ आधार की उड़ाने उड़ते रहने वाले तथाकथित शेखचिल्ली की तरह असफल रहते और उपहासास्पद बनते हैं। कुशलता की उपयोगिता तभी है जब वह यथार्थता और व्यावहारिकता के साथ जुड़ी है। साथ ही उसमें दूरदर्शिता का भी समुचित समावेश हो। इसका अनुमान लगा सकना बुद्धि की सूक्ष्म-दर्शिता है। निर्धारित योजना के मार्ग में कहाँ, कब, किस प्रकार की कठिनाई आ सकती है इसका अनुमान यथार्थवादी ही लगा सकते हैं। रंगीली कल्पनाओं की उड़ानें उड़ने वालों को तो अपनी ही सूझ सही तथा सब कुछ सही प्रतीत होती रहती है। वे उसी के पीछे उन्मादियों की तरह पड़ जाते हैं। आवेश एकाँगी होता है। क्रोधी और भयभीत मानसिक स्थिति के एक पक्षीय होने के कारण ऐसा कुछ कह डालते हैं तो परिणति उच्छृंखलता, उद्दण्डता जैसी ही बनकर रह जाती है। असफलता ऐसों के ही सिर चढ़ती है। उसे हास्यास्पद वे ही बनाते हैं । सनकी ऐसे ही लोगों को समझा जाता है।

उत्साह अच्छी बात है। साहस की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही ठीक हैं। पुरुषार्थ की उपयोगिता से कोई क्यों इनकार करेगा? इन सबके समन्वय से क्रियाशीलता उत्पन्न होती है और हलचलों का सिलसिला चल पड़ता है, पर देखना यह भी पड़ता है कि तीर सही निशाना साधकर छोड़ा जा रहा है या ऐसे ही अन्धाधुँध मचाई जा रही है। सक्रियता की कमी होने पर आलसी प्रमाद का दोष लगता है। किन्तु उतावले, उद्धत-कर्मी आवश्यकता से अधिक सक्रिय होने पर भी ठोकरों पर ठोकरें खाते और हानि पर हानि उठाते रहते हैं, इस दृष्टि से जितनी अनुपयुक्तता-निष्क्रियता है उससे भी कई बार और अधिक वह आवेश हानिकारक सिद्ध होता है जिसके पीछे आगा पीछा सही रूप से सोच सकने की सूझबूझ जुड़ नहीं पाता।

व्यक्तित्व के विकास में अपनी समझदारी का प्रौढ़ परिपक्व होना आवश्यक है। उसमें यदि कुछ कमी हो तो इसकी पूर्ति के लिए दूरदर्शियों के संपर्क में रहने और उनकी गतिविधियों के पीछे जुड़े रहने वाले यथार्थवादी चिन्तन को समझने का प्रयत्न करना चाहिए । ऐसे लोगों को मानसिक बिखराव से बचना होता है। वे अपने लिए उचित कार्य निर्धारित करते हैं ऐसा जिसमें अनैतिकता का पुट न हो। ऐसा जिसे हेय और आदर्श रहित न समझा जाय। जिसे करते हुए आत्मा न धिक्कारे और समीपवर्ती लोगों को यह न कहना पड़े कि लालच के वशीभूत होकर नीति-नियमों का उल्लंघन किया गया। यह कुछ करने से पहले सोचने की बात है। इस निर्णय में कई विकल्प सामने रहने चाहिए और उनमें से जो उपयुक्त, उचित, व्यावहारिक एवं सरल हो उसी को अपनाने का मानस रहे। पूर्वाग्रह को स्थान न दिया जाय। किसी की सफलता को ही अपने लिए अनुकरणीय न मान लिया जाय। हर व्यक्ति के सामने अपने तरह की स्थिति होती है और उसे तद्नुरूप संयोग बन जाने पर ही सफलता मिली है। आवश्यक नहीं कि दूसरों जैसी परिस्थितियाँ अपने को भी उपलब्ध होती रहें, इन विभिन्नताओं में अपने लिए दिशा धारा एवं क्रियाकलाप का चुनाव अपने आपको तथा संसाधनों को ध्यान में रखते हुए ही करना चाहिए । इस चुनाव में जो लोग सफल हो जाते हैं और फिर उसे सम्पन्न करने के लिए अपनी तत्परता को, तन्मयता को पूरी तरह नियोजित कर लेते हैं उन्हें क्रमिक प्रगति के मार्ग में चल पड़ने के द्वार खुलते रहते हैं। जिनका मन एक दूसरे पर दूसरे से तीसरे पर बंदर की तरह उचकता मचकता रहता है। उन्हें बार-बार दिशा बदलती रहनी पड़ती है। उनके सभी कार्य प्रायः आधे अधूरे ही पड़े रहते हैं।

हर असफलता मनुष्य का मनोबल तोड़ती है। आत्मविश्वास घटाती और साहस भरे उत्साह में कमी लाती है। इसलिए यथा संभव भरे उत्साह में कमी लाती है। इसलिए यथा संभव ऐसी रीति नीति अपनानी चाहिए कि बार-बार असफलता का मुँह न देखना पड़े। इसके लिए यह नीति अपनानी चाहिए कि बहुत दिन में पूरी हो सकने वाली बड़ी योजनाएँ बनाने की अपेक्षा वर्तमान में सही प्रकार से बन पड़ने वाले कार्यों को ही प्रमुखता दी जाय। लक्ष्य बड़ा हो सकता है, पर उसे पूरा करने के लिए तद्विषयक भारी क्रियाकलाप एक साथ ही हाथ में लिये जायँ, यह आवश्यक नहीं। कक्षाएँ क्रमिक रीति से उत्तीर्ण की जाती हैं और विद्वता के शिखर पर अनवरत श्रम करते हुए धैर्यपूर्वक बढ़ते चलने की नीति अपनानी पड़ती है। फसल समय पर पकती है। वृक्ष विकसित होने में समय लेते हैं और अवधि पूरी कर लेने पर फलते फूलते हैं। इस आवश्यक श्रम और समय के संबंध में अधीर हो जाना और सब कुछ तुर्त फुर्त प्राप्त कर लेने की उतावली से ग्रसित रहना ऐसा स्वभाव है जिसमें प्रयोजन सिद्ध होने के स्थान पर अवरोध ही अधिक अड़ते हैं।

इच्छाओं, आवश्यकताओं, उत्कंठाओं का अपनी योग्यता के अनुरूप निर्धारण और प्रयासों का वस्तुस्थिति के अनुरूप संचालन ऐसी विशेषता है जो मनुष्य को अधिक अनुभवी बनाती है। उत्साह और साहस के साथ धैर्य का संतुलन भी बिठाती है। ऐसे ही दृढ़ निश्चयी और पुरुषार्थ-परायण बड़े कामों को भी यथाक्रम पूरा कर लेते हैं। जब कि उतावले और अनुभवहीन अपना श्रम समय तो गँवाते ही हैं साथ ही साथियों की दृष्टि में अविश्वस्त बनते जाते हैं। अच्छा हो कि इस स्थिति से बचने के लिए अपने चिन्तन तन्त्र को सुनियोजित बना लिया जाय। इसके लिए आत्म समीक्षा की पक्षपात रहित बुद्धि जगायी जाय। शरीर को स्नान कराने की तरह अपने व्यक्तित्वों की कमियों को समझने और उन्हें योजनाबद्ध रूप से सुधारते रहने का अभ्यास किया जाय। यह जब कभी भी कर लेना पर्याप्त नहीं आत्म-समीक्षा और स्वभाव में शालीनता का समावेश करते रहना ऐसा नित्यकर्म है जिसे करते रहने पर व्यक्तित्व की प्रखरता निरंतर बढ़ती रहती है। यही है वह बहुमूल्य सशक्त आयुध, जिसकी सहायता से हर मोर्चे पर सफलता पायी और विजय श्री वरण की जाती है।

यह सोचना सही नहीं कि परिस्थितियों की अनुकूलता और साधनों की विपुलता के आधार पर महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं। ऐसा कदाचित ही होता है। विशेषतया तब, जब साधन सम्पन्नों को प्रतिभावान् व्यक्तित्व की भी प्राप्ति हो गई हो अन्यथा अनुभवहीन अनुपयुक्त स्वभाव वाले हाथ में आये अवसरों को भी गँवाते रहते हैं। कितने ही धनी और प्रतिष्ठित परिवारों के उत्तराधिकारी अपनी दुर्बुद्धि के कारण उस चलते व्यवसाय में गतिरोध उत्पन्न कर देते हैं और जमी हुई आजीविका तथा प्रतिष्ठा से हाथ धो बैठते हैं। इसका कारण दुर्भाग्य नहीं, वरन् दोष-दुर्गुणों से भरा हुआ व्यक्तित्व ही होता है। अपने नियत कार्य की ओर से उपेक्षा बरतने वाले और आवारागर्दी में जहाँ तहाँ भटकने वाले लोग प्रखर मानसिकता उपलब्ध नहीं कर पाते। कमजोर पशु पर भारी वजन नहीं लादा जा सकता। घटिया व्यक्तित्व वाले उस उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर सकते, जो भारी और बड़े कार्यों के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े होते हैं।

दुर्भाग्य नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है? विशेषतया मानवी संरचना में तो उसके लिए कोई स्थान है ही नहीं । आकस्मिक दुर्घटना जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर प्रगति का सीधा संबंध मनुष्य की सूझबूझ और क्रिया कुशलता पर निर्भर रहता है। यही सद्गुण है जिसे दूसरे शब्दों में सौभाग्य भी कहा जा सकता है। सफलता, असफलता निर्धारित सिद्धान्तों के पालन करने और उनकी ओर उपेक्षा बरतने पर निर्भर है। यह मनुष्य का अपना उत्पादन एवं अपना प्रयास है। काम काज को जितना महत्व दिया जाता है, उतना ही यदि व्यक्तित्व निर्माण पर दिया जाने लगे तो समझना चाहिए कि अग्रगमन का मार्ग खुल गया है। सफल एवं प्रतिष्ठित जीवन जी सकने योग्य सुयोग-सौभाग्य का वरदान हाथ लग गया । यह किसी दूसरे का अनुदान नहीं, वरन् अपने निज के आत्म परिष्कार का ही प्रतिफल है। इसे इच्छानुसार उगाया, पाया और बढ़ाया जा सकता है। साथ ही यह भी हो सकता है कि अपने संबंध में बेखबर रह कर अनगढ़पन सिर पर लाद लिया जाय और दुर्भाग्य का रोना जन्म भर रोते रहा जाय।

सही चिन्तन, समुचित उत्साह और उपयुक्त परिश्रम की तीन विभूतियाँ अपने आप में अतिशय महत्वपूर्ण हैं। इनका संयोग जहाँ भी होगा वहाँ अग्रगमन का संयोग अनवरत रूप से सामने आता रहेगा। इन तीनों के साथ एक और सद्गुण की आवश्यकता होती है-वह है-सद्भाव भरा सहकार। दूसरों को अपना बना सकने का स्थायी आधार इस विशेषता के सहारे बन पड़ता है। चापलूसी के आधार पर मीठा बोलने वाले, अपने को हितैषी , प्रामाणिक होने की साक्षी देने वाले, कुछ समय तो किन्हीं पर अपनी छाप छोड़ सकते हैं, मित्र बन सकते हैं और सहयोग ले सकते हैं, पर वह आडम्बर देर तक नहीं चलता है। पोल खुलकर रहती है। सज्जनता का आडम्बर शिष्टाचार या उदार व्यवहार की झलक दिखाकर किन्हीं को चमत्कृत किया जा सकता है। प्रलोभन का आश्वासन देकर भी किसी को कुछ समय-तक सहयोगी बनाया जा सकता है, पर यह नीति वस्तुतः है सर्वथा अस्थिर। विश्वास अर्जित करने के लिए अपने को हर कसौटी पर विश्वास सिद्ध करना होता है। अपनी प्रामाणिकता असंदिग्ध हो तभी यह संभव है कि दूसरे लोगों की सघन श्रद्धा और सहकारिता हस्तगत हो । जिन पर संकीर्ण स्वार्थपरता छाई रहती है और निकटवर्ती, दूरवर्ती किसी में भी डंक चुभाये बिना नहीं मानते । घटियापन का परिचय मिलने पर किसी का भी विश्वास उठ सकता है और फिर सच्चे सहयोग का द्वार बन्द हो सकता है। सहयोग देकर ही सहयोग पाया जा सकता है। उदारता बरतने पर ही दूसरी ओर उदार व्यवहार की आशा की जा सकती है। प्रामाणिकता के बिना व्यक्तित्व सर्वथा अधूरा और अयोग्य है। प्रामाणिकता मात्र अपने संबंध में शेखी बघारने भर से प्राप्त नहीं हो सकती। उसके लिए व्यक्ति के चरित्र का पिछला लम्बा इतिहास होना चाहिए । इस संदर्भ में वे कसौटियाँ भी कम पड़ती हैं जिनमें कि किसी को इस प्रकार कसा गया हो कि प्रलोभन या भय के दबाव-से किसी ने अपना ईमान नहीं बेचा और उसे कठिन समय में स्वेच्छापूर्वक अक्षुण्ण बनाये रखा।

चुम्बक का अपना आकर्षण सजातियों को अपनी ओर खींच लेता है या अपने जैसी किसी समर्थ सत्ता के साथ जुड़ जाता है। यह चुम्बकत्व व्यक्तित्व में सद्गुणों के आधार पर विनिर्मित और विकसित होता है। इसके लिए संचित कुसंस्कारों का परिमार्जन और मानवोचित सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के साथ-साथ दुहरे प्रयत्न अपनाने के लिए कटिबद्ध होना पड़ता है।

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