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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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समझ में आया स्वच्छता का दर्शन

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First 9 11 Last
शशि सम्पूर्ण रात्रि की यात्रा से थककर अपनी अस्ताचल की सुकोमल शय्या पर शयन करने चला गया था। रात्रि के प्रहरी उलूक आदि पक्षी भी अपने जागरण से अवकाश पा चुके थे। तमः प्रसार के अपकर्म से आकुल रजनी रानी अनेकविध रुदन से पक्षियों को अशान्त बनाकर अब जा चुकी थी। उनके अश्रु बिन्दु ओस कणों के रूप में तिनकों-पत्तों पर सभी जगह साफ-साफ झलक रहे थे। स्वच्छता का भव्य सेनानी भास्कर अपनी किरणों की झाड़ू लिए अंधकार को जगती के समस्त अंचल से सावधानीपूर्वक स्वच्छ करता चला जा रहा था। अवश्य ही उसके इस प्रयास में दिग्देवताओं का मुख अरुणिम धूल से रँगने लगा था। प्रभात के बंदीजन पक्षियों के समूल अपने सामूहिक संकीर्तन में जुट गए थे। उनका स्वर एक साथ सबको सम्बोधित कर रहा था- उठो। आलस्य त्यागा जागो ज्योति का सत्कार करो! जीवन तुम्हारे द्वार तक जयघोष करता आ गया है।

वे कब के उठ चुके है। काल के पद जैसे उन्हें पराजित करने में असमर्थ होकर लौट जाते हैं। अहर्निश अखण्ड कार्यक्रम उनका चलता रहता है। इस अविराम अर्चन में देवी निद्रा को भी यदि कभी कभी कुछ घड़ी पल अवकाश प्राप्त हो जाए तो उनका सौभाग्य वही सबसे अधिक उपेक्षित है अन्यथा वे सबको समय देते हैं पूर्व से निश्चित करके समय देते हैं। इन जनों के रूप में जनार्दन ही तो है। अतः जब वे स्वयं आराधना का अर्घ्य लेने आते हैं, उनके किस रूप की अर्चा......................कर दी जाय। केवल अपने साथ वे ...................हो सकते हैं। उनके शौच-स्नान-आहार-आराम का कोई निश्चित समय नहीं हो रहा हैं इसमें भी यदि दूसरों का आग्रह निमित्त न .................कौन जानता है कि ये कैसे और कब अपनाएँ जाएँ?

यह उनकी बात उनका दृष्टिकोण है। कभी किसी की एक कहानी पढ़ी - एक साधक ने तपस्या करके वरदान पाया कि जिसे अपना वह एक रक्त कण दे देगा उसका असाध्य रोग भी नष्ट हो जायेगा। लोगों ने उसे दो दिन भी जीवित नहीं रहने दिया। सुइयाँ तथा अन्य शस्त्र चुभोने से भी जब उसके देह से रक्त निकलना बन्द हो गया, अन्तिम आने वाले ने उसे पैर बाँधकर वृक्ष से लटकाया । नीचे आग जलाई और किसी प्रकार उसके देह का अन्तिम रक्त बिंदु प्राप्त करके प्रसन्नचित होकर वह लौटा।” कल्पित कथा सही, किन्तु केवल अपने प्रयोजन पर दृष्टि रखने वाले सामान्यजनों की मानस प्रवृत्ति का सम्यक् निरूपण है ओर उनको देखकर लगने लगता है, यह कथा सत्य भी हो तो आश्चर्य नहीं। अपना प्रयोजन प्रत्येक लिए अत्यन्त छोटा लगता है इतना अल्प प्रयास तो उसके लिए उन्हें करना ही चाहिए। सुकोमल पुष्प भी हजारों-हजार हाथों से जब देवता को समर्पित होने लगते हैं। पाषाण का श्रीविग्रह भी किस प्रकार क्षीण एवं जर्जर हो जाता है, प्राचीन मंदिरों में इसे देखा जा सकता है। लेकिन लोक मनोवृत्ति उनकी असुविधा पर किसी की दृष्टि कहाँ जाती हैं

यह तो चलता ही रहेगा। उनकी अन्य प्रवृत्तियों में भी कुछ दर्शनीय है। उनके शरीर पर दो घड़ी रहने वाला कम्लि भी जल से धोने पर ही पुनः उपयोग के योग्य होता है। वे जिस कुश के आसन पर आसीन होते हैं। दूसरी बार उपयोग में आने के लिए उसे भी धोकर सुखा लिया जाना चाहिए। वस्त्र की बात तब बताना अनावश्यक है।

उनका शरीर स्वच्छता तथा उपवास के इन प्रयासों ने उसे काफी दुबला कर दिया है। मल तो वहाँ कहाँ से रहेगा। काया की अनावश्यक मिट्टी भी कई कई बार स्नान में धुलती अनेकों आने वालों के सेवा-सत्कार, आशीर्वाद वरदान देने का श्रम सहती क्षीणतर होती चली गयी है।

स्वच्छता के प्रति उनका इतना आग्रह देखकर इसका दूसरा पहलू भी स्मरण हो जाता है। जो लोग कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर गए हैं उन्हें यह मालुम होगा कि पुण्य प्रदेशों उसे यों ही नहीं माना गया है। सत्व ही सघन होकर जैसे सर्वत्र शुभ हिम के रूप में एकत्र है। किसी तरह की दुर्गन्ध वहाँ इस असीम सर्दी में उठती नहीं। कुछ भी तो वहाँ नहीं सड़ता।

वहां के लोग स्नान नहीं करते शरीर में जहाँ कभी पसीना नहीं होता, स्नान की आवश्यकता है या नहीं कहना कठिन है । क्योंकि शास्त्र की दृष्टि स्वास्थ्य की दृष्टि तो नहीं है। कपड़े धोने जैसी कोई क्रिया उस प्रदेश में नहीं है। वे केवल ऊन के बने वस्त्र पहनते हैं। या फिर चर्माम्बर स्मृतिकारों ने भी इन वस्त्रों को वायु से शुद्ध होने वाला माना है। वे उसे हिम शुद्ध करते हैं। कभी लगा कि वस्त्र में स्वदेज प्राणी उत्पन्न हो गए हैं, तो वस्त्र को रात्रि में बाहर खुले स्थान पर छोड़ देंगे। स्वच्छता सम्पूर्ण हो गयी।

अस्वच्छ हैं वे ? रुकिए इतना सरल उत्तर इसका नहीं है वह पुण्य प्रदेश, जहाँ सर्वत्र रक्त जमा देने वाला हिम चारों ओर व्याप्त है। वहाँ पानी से कुछ धो पाना कठिन है। शरीर पर पानी डालते ही वह भी जम जाएगा और उष्णता की उपलब्धि का साधन काष्ठ वहाँ होता नहीं। कुछ क्षुप मात्र इधर-उधर मिलते हैं। वायु शुद्धि-देवभूमि की सहज पावन, रजः स्पर्श से सर्वथा रहित और अविराम अश्रान्त प्रवाहित वायुदेव वहाँ सचराचर की शुद्धि में स्वयं संलग्न है।

हिम प्रदेश की ही तरह मरु प्रदेश में भी जल का अभाव है। जल के अभाव में उत्पीड़ित वहाँ का प्राणी। वहाँ तो बालू शुद्धि के काम आती है। मृतिका सर्वत्र मलिन ही तो नहीं करती। मार्जन का भी तो अत्यंत महत्वपूर्ण उपकरण वहीं है।

प्राणियों के प्राणों की रक्षा के लिए पावस में जो मेघों से जीवन की धारा प्राप्त होती है- जल जीवन है, यह बात उसी प्रदेश में बुद्धि ग्रहण कर पाती है। वर्षा का वह जल कौशल पूर्वक वर्षभर सुरक्षित न रखा जाय, तो प्राण ही असुरक्षित हो जाएँगे। उस जल को जो जीवन का अमूल्य आधार है, यदि कोई दिन में तीन बार स्नान के लिए उपयोग करने लगे, तो उसे जल की इस बरबादी के लिए न उसका परिवार क्षमा करेगा और न समाज।

तब स्वच्छता की आदर्श परिभाषा क्या हो? यह सवाल ओर कोई नहीं उनके परम मित्र भारतीय विद्याओं के अनन्य अनुरागी डॉ0 पाल ब्रान्टन उनसे कर रहे थे। अबकी बार वे अपने इस अनन्य मित्र प्रो0 रामचन्द्र दत्तात्रेय रानाडे से उनके रहस्यवादी दर्शन का रहस्य जानने आए थे। यह उनकी दूसरी भेट थी। उन्हें अनायास ही सब कुछ बदला-बदला लग रहा था। अब प्रो0 रानाडे में स्वच्छता के प्रति पहले वाला कट्टर आग्रह न था। दिन में तीन बार का स्नान, बार-बार के वस्त्र बदलने का आग्रह, दूसरों को अस्पृश्य समझने की धुन सब समाप्त हो गयी थी।

आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ? पाल ब्रान्टन के इस आश्चर्य को तोड़ते हुए रहस्यवादी दर्शन के प्रणेता प्रो0 रानाडे कहने लगे-” मैंने अनेक वर्ष अपनी स्वच्छता पर अभिमान किया।” उनकी वाणी में आकर्षण था। उनकी चेष्टा में स्पृहणीय सौजन्य था। उनका वर्णन मन को सम्पूर्ण विवरण ज्ञात कर लेने को समुत्सुक बना रहा था। पाल ब्रान्टन की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

“शौचातस्वाँग जुगुप्सा परैर संसर्गः आरबाखाँ (2/40) योग दर्शनकार की इस बात को अनेक बार पढ़ने के बावजूद इसके रहस्य की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया। मुझे तो मेरी स्वच्छता ने इससे सर्वथा विपरीत बना दिया था। मुझे लगता था कि मेरे वस्त्र, मेरे पात्र मेरा उपकरण दिव्य हैं। परम पवित्र हैं वे। मेरा शरीर पावन है। दूसरों का तनिक सा स्पर्श मुझे असहाय कष्ट देता था।” वे एकांत में अपने इस विदेशी मित्र के आग्रह पर सुना रहे थे।-” यदि किसी छाया भी मेरे वस्त्रों पर पड़ जाय, मैं उन्हें धो डालता था। अनेक श्रद्धालु आए किन्तु मैंने उन्हें झिड़क दिया। कोई इतना स्वच्छ-पवित्र हो कैसे सकता था कि मेरी कोई शुद्र सेवा भी कर सके।

उन दिनों मैं भी जगन्नाथपुरी गया हुआ था।” अपने आकस्मिक परिवर्तन के रहस्य को उद्घाटित कर रहे थे। “सागर तट का एकान्त रमणीय स्थान, नीलाँचल का निवास किन्तु मैं दूर से नील चक्र के दर्शन करके ही सन्तोष कर लेता था। मन्दिर में जाने पर अनेक लोगों के स्पर्श होगा। अपवित्र हो जाने की आशंका से ही मेरा चित्त व्याकुल हो जाता था।

परैर संसर्ग का कितना भ्रान्त अर्थ माना था मैंने” तनिक स्वस्थ होने पर बोले- “ आत्म तत्व से भिन्न प्रतीयमान समस्त प्रपंच भर हैं उससे असंसर्ग- उसमें अभिनिवेश का अभाव, यह बात तो कभी सूझी ही नहीं। जिस ‘स्वाँग’- अपने शरीर में जुगुप्सा होनी चाहिए, वही परम पवित्र हो गया था मेरे लिए और उससे भिन्न शरीर पर था। उनसे असंसर्ग साधने में ही मैं अपना समस्त पौरुष समर्पित कर चुका था।

अहंकार, घृणा, क्रोध पता नहीं कितना कलुष अपने अन्तःकरण में भर लिया था और भरता जाता था। इतने पर भी मानता था कि मैं स्वच्छ हूँ पवित्र हूँ।” उन्होंने अपने मित्र की ओर नेत्र उठाए- “ आज मुझे पता लगा है कि में कितना मूढ़ था। जल, मिट्टी के द्वारा मल के पिण्ड को ऊपर-ऊपर से धोकर मैंने मान लिया था कि वह स्वच्छ हो गया और इस अहंकार के ही कारण निर्बाध रूप से मेरे चित में कलुष भरता गया।

मुझे अत्यधिक क्लेश होता था, तब जब मैं समुद्र में मछुओं को जाल खींचते देखता था। उनके जाल तथा शरीर से निकली दुर्गन्धित अपवित्र वायु से बचने का कोई उपाय नहीं था। समुद्र तट पर ही मेरा निवास था। कितना भी मैं अपने को द्वार के भीतर बन्द कर लूँ, वह वायु मेरी नासिका में आती थी और उसे अपने शरीर में पहुँचने से मैं रोक नहीं सकता था।”

अचानक वे खुलकर हँसे और कहने लगे- “ कोई भी साधना प्रारम्भ होती है चित्त को शुद्ध करने के लिए, शान्ति एवं सुख की प्राप्ति के लिए यह कहना अधिक उपयुक्त होगा। किन्तु मेरी स्वच्छता की साधना ने मेरे चित्त को अत्यंत मलीन बना दिया था। मुझ जैसा अशान्त एवं दुःखी व्यक्ति मिलना कठिन था।

उस दिन मैं सागर किनारे ही खड़ा था। धवल ज्योत्सना ने उदधि के अन्तर में अपने नभ स्थित आत्मज के प्रति वात्सल्य उठा दिया था। अम्बुधि शत-शत उच्छृंखलित तरंगों से तारकों से घिरे चन्द्रमा को अंकमाल देने के लिए उठता लगता। पूर्णिमा के इस रात्रि को यह अद्भुत दृश्य देखने सहस्र-सहस्र जन सागर तीर पर खड़े थे। मैं भी खड़ा था, पर सबसे दूर।

अचानक भीड़ का एक ज्वार सा आया और मैं सागर की लहरों के बीच था।

उन्होंने मुझे अपनी गोद में उठाकर पुलिन पर पटक दिया। अकस्मात एक शीतल उज्ज्वल डेढ़ दो हाथ की मछली भी मेरे ऊपर उछल रही थी। वह मेरे शरीर पर छटपटाई और तरंग के आगमन के साथ सागर में चली गयी। दो क्षण लगे इस सब में किन्तु उस शरदपूर्णिमा की रात्रि के वे दो क्षण मेरे जीवन की पूर्णता के क्षण थे।

मछली का शरीर पर छटपटाना- मैं चौंका, घबराया और दुर्गन्ध से व्याकुल हो गया। उठा तो लगा कि पूरे देह से मछली की दुर्गन्ध आ रही है। वही दुर्गन्ध जो दूर से आती थी तो मैं दौड़कर द्वार बन्द कर लेता था। तीव्र घृणा हुई।” कई क्षण फिर निस्तब्ध रहकर बोले-” अचानक मस्तिष्क में जैसे प्रकाश पिण्ड का विस्फोट हुआ हो। निरन्तर अनन्त वारि राशि की लक्ष लक्ष तरंगों से धुलते रहने वाली मछली इतनी अपवित्र , इतनी दुर्गन्धित ओर तेरी यह काया? यह भी तो माँस-मेद, रक्त, कफ, पित्त, अस्थि, स्नायु का पिण्ड है। कुछ घड़े जल से धोकर तू इसे पवित्र-स्वच्छ बना लेगा? प्रभु की कृपा से स्वच्छता का मर्मार्थ समझ में आने लगा था।”

रस्सी पर अनेक वस्त्र अभी भी बाहर सूख रहे थे स्वच्छता का यह क्रम तो अबाध चलता है। प्रकृति अपने स्वभाव से तो सर्वत्र धूलि ही डालती है। विकृत होना उसका स्वभाव है। स्वच्छता कोशिश करके प्राप्त करनी पड़ती है। प्रयास में कमी आएगी। तो आवास हो, शरीर हो, अन्तःकरण हो अवश्य हव अस्वच्छ रहेगा। स्वच्छता का प्रयास तो चलता ही रहना चाहिए। जब तक जीवन है, जाग्रति है, इस प्रयास की अपेक्षा तो रहेगी ही।

“ लेकिन इसकी सफलता तो इस विवेक में है जो शौचात्स्वाँग जुगुप्सा परैर संसर्गः निहित इस तत् का बोध करा दे, कि देह आकर्षण से ऊपर उठकर आत्मतत्व में निमग्नता पा लेना ही स्वच्छता का फलितार्थ है यह मलमूत्र की थैली यह आत्मतत्व की अभिव्यक्ति का साधन बने, दैहिक आकर्षण का नहीं।” उनके इस कथन में पाल ब्रान्टन को उनका रहस्यवाद प्रत्यक्ष हो रहा था । योग दर्शनकार के सूत्र का मर्म आज वे अपने अन्तःकरण में अनुभव कर रहे थे।

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