
नारी, नर से कहीं अधिक श्रेष्ठ
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यों तो पुरुष प्रधान समाज में नारियों को दूसरे दर्जे की नागरिक के रूप में मान्यता मिली हुई है, पर समाज-व्यवस्था संबंधी इस दोष की अवहेलना कर यदि नर-नारी की पारस्परिक तुलना करें , तो कई दृष्टियों में स्त्रियाँ, पुरुषों से श्रेष्ठ साबित होंगी।
उदाहरण के लिए, आयुष्य को लिया जा सकता है। सर्वेक्षणों से ज्ञात हुआ है कि पुरुषों की अपेक्षा नारियाँ दीर्घजीवी होती हैं। ऐसा किसी स्थान अथवा वातावरण विशेष के कारण नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व में अध्ययनों के दौरान न्यूनाधिक यही तथ्य उभरकर सामने आया है कि स्थान अथवा जलवायु की यह कोई विशिष्ट प्रतिक्रिया नहीं, अपितु एक जातिगत वैशिष्ट्य है। नारी-शरीर में किन तत्वों की उपस्थिति के कारण ऐसा होता है-यह तो अभी सही-सही नहीं जाना जा सका है; पर शरीरशास्त्रियों ने इस संदर्भ में कई अनुमान अवश्य लगाये हैं। एक अनुमान के अनुसार स्त्रियों में पाया जाने वाला विशेष प्रकार का (XX किस्म का) गुणसूत्र ही इसके लिए जिम्मेदार है। उनके अनुसार महिलाओं में चूँकि गुणसूत्रों की आधी संख्या पिता से और आधी माता से आती है, अतः यह उसकी प्रकृति को न सिर्फ मजबूत बनाते हैं, वरन् आयु की दृष्टि से दीर्घता भी प्रदान करते हैं। पुरुषों की स्थिति में उनमें उपस्थिति Y गुणसूत्र इसमें अड़चनें खड़ी करते हैं। उल्लेखनीय है कि नारियों में सहनशीलता, तनाव झेलने कली सामर्थ्य पुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक होती है। यह विशेषता X परिकर के गुणसूत्रों की विद्यमानता के कारण पायी जाती है। जिस प्रकार समान स्वभाव वाले लोग एक समूह में इकट्ठे होकर अपनी विचारधारा को अधिक प्रबल और प्रखर बना लेते हैं, वही बात नारियों में गुणसूत्रों के संबंध में भी लागू होती है, ऐसा विज्ञानवेत्ताओं का मानना है। फिर भी वे अभी इसे निश्चित रूप से बता पाने में सफल नहीं हो पाये हैं कि यदि X X गुणसूत्र स्त्रियों में दीर्घजीवन के लिए उत्तरदायी है, तो वह कौन सी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा वे इसे क्रियान्वित करते हैं और पुरुषों में यदि Y क्रोमोसोम की विद्यमानता उन्हें अल्पजीवी बनाती है, तो इसमें वह कौन-सा तत्व है जो उसकी उम्र को तुलनात्मक रूप से कम करता है।
कतिपय शरीरवेत्ताओं का विश्वास है कि इसमें नारी रसस्रावों का हाथ हो सकता है। ज्ञातव्य है कि स्त्रियों में कुछ ऐसे हारमोन पाये जाते हैं, जिनका पुरुष-शरीर में अभाव होता है। कदाचित् यह अभाव ही पुरुषों को इस क्षेत्र में पिछड़ा बनाता हो; जबकि प्रकृति प्रदत्त अतिरिक्त रसस्राव महिलाओं के लिए वरदान सिद्ध होता है। यह सच है कि इन रसायनों के कारण नारी-देह की स्वाभाविक संरचना अत्यन्त कोमल हो जाती है, इस कारण उसे कोमलाँगी कहकर पुकारते हैं, पर मिथ्या यह भी नहीं है कि इन्हीं तत्वों के कारण उसकी आन्तरिक बनावट इतनी उदात्त और अभिव्यक्ति ‘देवी’ के उसके सम्बोधन से स्पष्ट प्रतिभासित और परिलक्षित होती है। इसी कारण जब कभी बाल-सुलभ सरलता और कोमलता को भारतीय मिथकों और बहुदेववादी कथाओं में प्रदर्शित करने की आवश्यकता पड़ी, तो उसे नारी स्वरूप में ही दर्शाया गया। सरस्वती, लक्ष्मी, ब्राह्मी, वैष्णवी, शीवी, अजपा, देवमाता, वेदमाता, दुर्गा, काली-यह वस्तुतः देवियाँ नहीं नारी अन्तःकरण की विभूतियाँ हैं, जिनका आवश्यकतानुसार वह प्रयोग करती रहती है। यदि उनका स्वभाव देवमाता की तरह का देवतुल्य और सरस्वती जैसी सात्विक बुद्धि वाला है तो काली, दुर्गा जैसी कठोरता का भी प्रदर्शन वह समयानुसार कर सकती है। इन गुणों को पृथक्-पृथक् पहचानने की सुविधा के लिए ही इन्हें मूर्ति रूप में गढ़ दिया गया है। वास्तव में यह हैं सभी नारी अन्तराल के ही तत्व। इनका सम्पूर्ण और समग्र स्वरूप ‘आद्यशक्ति’- एक सर्वांगपूर्ण नारी के रूप में दर्शाया गया है जिसका एक ही अर्थ है कि यह सम्पूर्ण शक्ति-धारा अथवा गुणावलियाँ उस विशाल और समृद्ध अन्तःकरण के ही तत्व हैं, जिसे ‘नारी’ अथवा गुणावलियाँ उस विशाल और समृद्ध अन्तःकरण के ही तत्व हैं, जिसे ‘नारी’ अथवा ‘देवी’ कहा गया है।
जबकि पुरुष तो केवल पुरुष (कठोर) होते हैं; उनमें अन्तराल की वह सम्पदा कहाँ दिखाई पड़ती, जो नारियों में होती है, साहस और दुस्साहस जैसे तत्त्व तो हो सकते हैं; पर उनके पूरक कोमलता और करुणा, भावना और संवेदना कहाँ होती है। इस दृष्टि से उन्हें एक प्रकार से अधूरा ही कहना पड़ेगा। व्यवहार में भी प्रायः यह देखा जाता है कि कितनी ही माताएँ पति के दिवंगत होने के उपरान्त बच्चों के लिए माता और पिता दोनों ही की भूमिका निभाती हैं; पर ऐसा शायद कहीं देखा जाता हो, जिसमें पिता ने बालकों के लिए माता की कमी पूरी कर दी हों माता की कमी वास्तव में कोई माता ही पूरी कर सकती है, पुरुष-हृदय के वश की यह बात नहीं। इसलिए स्त्री को सर्वांगीण (जिसमें स्त्री और पुरुष तत्त्व दोनों हों) कहने में कोई हर्ज नहीं, जबकि नर को एकाँगी ही कहना पड़ेगा।
नारी का एक नाम -?’ तन्वंगी’ (सुन्दर अंगों वाली) भी है। सुन्दर अंगों की सार्थकता श्रेष्ठ अन्तःकरण के साथ ही हो सकती है, इसी कारण समाज में उसकी पहचान करुणामयी रूप है, भले ही इसके विपरीत गुण भी उसमें विद्यमान क्यों न हो, पर अक्सर उनका प्रयोग वह अत्यन्त विषम स्थिति में अन्तिम अस्त्र के रूप में ही करती है, अतएव उन्हें करुणा की देवी और श्रद्धा की प्रतिमूर्ति कहा जाना उचित ही है। जयशंकर प्रसाद ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए अपने उद्गार निम्न रूप में व्यक्त किये हैं-
नारी केवल तुम श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में,
पीयूष-स्रातन्-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।
इस प्रकार नारी न केवल आयुष्य में, वरन् आन्तरिक सम्पदा में भी नर से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। उसका अपमान नहीं, सम्मान किया जाना चाहिए।