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Magazine - Year 1996 - Version 2

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शिक्षा के साथ विद्या का समन्वय हो

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आज विश्वशांति के लिए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, बड़े-बड़े शिक्षा-शास्त्री, मूर्धन्य विचारक, राजनीतिज्ञ, धर्मनेता आदि सभी अपने-अपने ढंग से प्रयत्नशील हैं। कोई शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की बात कहता है, कोई निरस्त्रीकरण की, तो कोई सत्ता के परिवर्तन पर बल देता है। परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। आँतरिक शाँति के बिना बाहरी उपायों से शान्ति की कल्पना करना निरर्थक है। सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री के0 जी0 सैयदन ने अपनी कृति ‘एजुकेशन कल्चर एण्ड दी सोशल ऑर्डर’ में इस संबंध में लिखा है कि-”जब तक मानव हृदय में शाँति नहीं है, मानव-मानव के बीच शान्ति नहीं है हमारी शिक्षित वृत्तियों और आदर्शों के बीच शाँति नहीं है, तब तक विश्व में पूर्ण शाँति की संभावना नहीं की जा सकती है। इसके लिए हमें मनुष्य के शैक्षिक-बौद्धिक उत्थान के साथ-साथ उसके नैतिक एवं चारित्रिक सद्गुणों के सर्वांगीण विकास के लिए हर संभव सभी उपाय-उपचार अपनाने होंगे। स्थायी सुख-शांति की स्थापना तभी संभव है।”

जो ज्ञान मनुष्य को सही दिशा, उन्नति का सही मार्ग और जीवन का सच्चा प्रकाश दिखाता है, उसे अध्यात्म कहते हैं। मनुष्य को निम्न धरातल से उठाकर उच्चासन पर बिठाने के लिए अध्यात्म ही कारगर उपाय है, जिसे जाग्रत करने का काम बचपन से ही आरम्भ करना होगा। विवेक जगाने वाली विद्या न रही तो मनुष्य का पतित होना स्वाभाविक है। मनुष्य के भीतर जो कुसंस्कार है, पशुत्व है, जो ........... है। उसे दूर करने का एकमात्र उपाय विद्या की प्रवीणता ही है। जब तक जीवन की दिशा सात्विक नहीं होती, गुण कर्म, स्वभाव में सतत्वों का समावेश नहीं होता, मनुष्य की जड़ता और पशुता तब तक दूर नहीं हो सकती। प्रगति, शाँति और सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि मनुष्य को बचपन से ही नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट बनाया जाय अन्यथा कल की जिम्मेदारियों को संभालने वाले भावी कर्णधारों की यदि नींव ही कमजोर रही तो फिर योजनाएँ कितनी ही उत्तम क्यों न हों, उन्हें चलाने वाले यदि उपयुक्त स्तर के न हुए तो सफलता संदिग्ध रहेगी। आज वही हो भी रहा है।

शिक्षा वस्तुतः वह है जो व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का स्वरूप एवं समाधान सुझाये। पर आधुनिक शिक्षा का, विद्या का स्वरूप बहुत कुछ बदल गया है। उसमें नैतिक-शिक्षण और चरित्र निर्माण के लिए कोई स्थान नहीं है, कोरी बौद्धिक उन्नति की ओर ही प्रयत्न है। विद्यार्थियों का चरित्र-बल, कर्मशक्ति,आशा, विश्वास, उत्साह, पौरुष, संयम और सात्विकता जाग्रत करने की शक्ति उसमें नहीं है। जिस विद्या में कर्तव्यशक्ति की प्रेरणा न मिलती हो, स्वतंत्र रूप से विचार करने की बुद्धि न आती हो, परिस्थितियों से टकराने की सामर्थ्य जो न दे सके, ऐसी निष्प्राण-निस्तेज विद्या अगणित समस्याओं के अतिरिक्त और दे ही क्या सकती है? आज सर्वत्र ऐसी ही विद्या का प्रचलन है। प्रतिवर्ष असंख्यों विद्यार्थी ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लेकर निकलते तो हैं, पर उनमें छल-कपट, धूर्तता, दुश्चरित्रता, फैशनपरस्ती, विलासिता, द्वेष और अहंकार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता। ऐसे व्यक्ति जब महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होते हैं तो देश, समाज व संस्कृति को ऊँचा उठाने की बजाय अपनी करतूतों से उसे कलंकित ही करते हैं।

व्यक्तित्वों का निर्माण राष्ट्र की, विश्व की, मानवता की महती आवश्यकता है, विशेषतया आज के अनास्था, अवाँछनीयता एवं नैतिक अराजकता के वातावरण में। पुराने मूल्याँकन, आधार और प्रचलन बदल गये। नयी पीढ़ी, नयी संस्कृति ने जड़ पकड़ी। इसमें प्रामाणिकता और प्रखरता अपनाने के लिए अभिरुचि रह नहीं गयी। उसी का प्रतिफल है कि व्यक्ति और समाज की अनेकानेक समस्याएँ उलझन में डाले हुए हैं। अनेकानेक संकट सहने पड़ रहे हैं। इनका समग्र समाधान तब तक नहीं निकल सकता जब तक कि जनसाधारण को मानवी गरिमा के अनुरूप अपना दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप ढालने के लिए सहमत-तत्पर न किया जाय। आज की यह महती आवश्यकता है। इस बुद्धिवाद के युग में इस घेरे से लोकमानस को निकालने व अनुशासित करने के लिए ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो नीति, सदाचार, कर्तव्यपरायणता व प्रामाणिकता का पक्षधर हो। इसके अभाव में ही चहुँओर अशांति एवं भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत हुई हैं। इस संबंध में मूर्धन्य विद्वान श्री हेमचन्द्र ने वर्तमान समय में अनीति व बेईमानी की बुद्धि का कारण धार्मिक-अर्थात् आध्यात्मिक शिक्षा की कमी का उल्लेख करते हुए-’युग संदेश’ में लिखा है-”सामाजिक और राजकीय क्षेत्र में प्रवर्तित सारी अव्यवस्था की जड़ शिक्षा में धार्मिक प्रशिक्षण का अभाव है।”

यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि धर्म का अभिप्राय नीतिमत्तापूर्ण कर्तव्यपरायण जीवन से है, धर्म के स्थूल स्वरूप से नहीं, जो विभिन्न सम्प्रदायों के रूप में परिलक्षित होता है। धर्म के महत्व के संबंध में प्रसिद्ध समाजशास्त्री ई0ओ0 जेम्स ने अपनी कृति ‘सोशल फंक्सन ऑफ रिलीजन’ में लिखा है कि आज की विकट परिस्थितियों में मानव समाज में धर्म अतिशय महत्वपूर्ण वस्तु बन गया है। धार्मिक सिद्धान्त अथवा नियम मनुष्य के दैनिक जीवन की दुर्बलताओं को धीरे-धीरे मिटाकर उसे दैवी-शक्ति की दिशा में आगे बढ़ाने का उद्देश्य रखते हैं। सामाजिक जीवन को अस्तित्व में लाने वाला उसे सही दिशा प्रदान करने वाला धर्म या अध्यात्म है। परन्तु आधुनिक समय में इसका प्रभाव कम होने से मनुष्य के जीवन और कार्य के बीच सुसंगति नहीं मिलती। असंतोष और अशांति का यह एक प्रमुख कारण है।

गोर्डन मेल्विन ने ‘जनरल मेथड्स ऑफ टीचिंग’ में तमाम दुःखों एवं अशांति का कारण स्वार्थ, संग्रह-परिग्रह की वृत्ति को बताते हुए लिखा है-”यदि व्यक्तिवाद मिट जाय तो संसार अनेक प्रकार के दुखों से मुक्ति पा जाएगा, क्योंकि तब स्वार्थ की भावना ही मिट जाएगी। उनने नैतिक शिक्षा द्वारा नेतृत्व विकास की संभावनाएँ बताते हुए कहा है कि सामूहिक जीवन या समूह प्रवृत्ति द्वारा नेतृत्व शक्ति का विकास सम्भव है, क्योंकि संपूर्ण सामूहिक जीवन का यह विशेष लक्षण है कि उसे प्रखर और प्रामाणिक नेतृत्व चाहिए। नेताओं में त्रुटियों का सर्वत्र उल्लेख मिलता है। इसका कारण यह है कि उन्हें आरंभ से ही न तो नीति व सदाचरणपरक शिक्षा दी गयी और न ही उनके नेतृत्व के लिए आवश्यक प्रशिक्षक दिया गया, जिसके कारण उनकी प्रवृत्ति प्रदत्त विशिष्ट शक्तियों का विकास हो पाता।”

मानव जीवन के साथ नैतिकता का अटूट सम्बन्ध है। ‘एजुकेशन फॉर सिटीजन रिसपान्सीव्लिटीज’ नामक पुस्तक में फ्रैंकलिन ने कहा है कि नैतिकता मनुष्य की स्थिति को उन्नत करने का मार्ग खोजती है, उसके कंधे पर थोपा गया कृत्रिम बोझ उतार देती है, संकटपूर्ण मार्ग को सरल बनाती है और प्रत्येक को उसके जीवन के प्रारंभ से ही बंधनमुक्त कर जीवन में प्रगति करने का उत्तम अवसर देती है। शिक्षा वही सार्थक दिशा दे सकती है जिसमें नैतिकता का समावेश हो। इस संदर्भ में गान्धीजी ने शिक्षा के नैतिक पहलू का विश्लेषण करते हुए कहा है-”जो शिक्षा चित्त शुद्ध न करे, मन-इन्द्रियों को वश में रखना न सिखाये, निर्भयता और स्वावलम्बन न

, निर्वाह का साधन न बताये, सजगता, उत्साह और शक्ति उत्पन्न न कर सके-उस शिक्षा में चाहें जितना जानकारी का भंडार, तार्किक कुशलता एवं भाषा पाण्डित्य हो, फिर भी वह शिक्षा नहीं है अथवा वह अपूर्ण शिक्षा है।”

‘द .......... प्राब्लम्स ऑफ एजुकेशन’ में विलियम कनिंघम ने शिक्षा का व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि शिक्षा मात्र आजीविका प्राप्ति का साधन नहीं है। मनुष्य में पशु से उच्चतर जीवन जीने की योग्यता है, जिससे वह अपना मूल स्रोत, जीवन, भाग्य, प्रकृति आदि की जानकारी पाने की चेष्टा करता है। मानवता एक स्वर से घोषणा कर रही है कि उसका मूल स्रोत ईश्वर है। प्रकृति स्वतंत्र है, उसे भाग्य ईश्वर की इच्छा के साथ जुड़ा हुआ है। अपने जीवन की स्वतन्त्रता का उपयोग उसका भाग्य है। उसमें निष्फल होने पर उसकी सामर्थ्य व दिव्यशक्तियां व्यर्थ हो जाती हैं। उनके अनुसार यथार्थ शिक्षा का उद्देश्य प्रतिभा का, शक्ति का विकास है। बच्चों की शक्तियों की उचित रूप में कसौटी करने से उनके अंतर्भूत सत्व का विकास होता है। इससे वे शक्तियाँ अपना कार्य सुचारु रूप में कर सकती है। जीवन की सफलता के लिए शारीरिक, मानसिक व आत्मिक तीनों ही प्रकार की शक्तियों का विकास अनिवार्य है।

प्रख्यात दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने शिक्षा के विषय में कहा है- “ईश्वर ने हमें जो पुरस्कार दिया है, वह प्रकृति है। उस प्रकृति के अनुरूप होना कर्तव्य है, उस मार्ग का नेतृत्व शिक्षा का कार्य है।” इसी तरह विद्वान ओलोन्जो ने ‘एजुकेशन इन ए डेमोक्रेसी’ नामक पुस्तक में लिखा है कि-”नैतिक शिक्षा का ध्येय सदाचार के लिए मानवी मनोबल को दृढ़कर उसमें अच्छी आदतें डालना है।” महान शिक्षाशास्त्री पेस्टॉलोजी ने कहा है कि-”शिक्षा द्वारा मनुष्य को व्यावहारिक ज्ञान मिलना चाहिए। उसकी नैतिक, बौद्धिक एवं शारीरिक शक्तियों का विकास करने से ही वह मनुष्य हो सकता है, जो शिक्षा का ध्येय है।” महान दार्शनिक अरस्तू ने भी कहा है-”शिक्षा का उद्देश्य सुन्दर चरित्र निर्माण है। चरित्र का निर्माण आदतों और आदर्शों पर निर्भर करता है और उसी के आधार पर समाज, संस्कृति व राष्ट्र का विकास होता है। नैतिक शिक्षा मानव जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है।”

मानव प्रकृति प्रदत्त शक्तियों को विकसित कर आदर्श रूप में ढाले और अपना चरित्र निर्माण कर व्यक्तित्व का विकास करे, नर से नारायण और पुरुष से पुरुषोत्तम बने, यही जीवन का उद्देश्य है और ऐसा ही जीवन उत्तम माना जाता है। प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करे, वही सर्वोत्कृष्ट अच्छाई मानी जाती है और यह कार्य मात्र प्रचलित शिक्षा से नहीं वरन् उसके साथ अध्यात्म विद्या के समन्वय से ही सम्पन्न हो सकता है। महान शिक्षाशास्त्री एवं दार्शनिक हरबर्ट स्पेन्सर ने कहा है कि’-मानव समाज में, विश्व में स्थायी, सुख-शांति के लिए आवश्यक है कि शिक्षा को दार्शनिक बनाया जाय। अध्यात्म विद्या की प्राप्ति से ही मानव स्वभाव का रहस्य जाना जा सकता है। शिक्षा की नींव अध्यात्म विद्या पर आधारित होनी चाहिए। इसी के द्वारा बच्चों के विचारों को सर्वप्रथम नियंत्रित करना चाहिए। उसके पश्चात् विभिन्न विचारों का विकास होने पर वह क्रियाशील बनता है और उसके बाद ही चरित्र-निर्माण की संभावना है। उसके लिए सुविचारों के द्वारा धार्मिक एवं नैतिक भाव उत्पन्न करने होंगे। नैतिकता के विकास द्वारा ही चरित्र-निर्माण हो सकता है। शिक्षण का आदर्श चरित्रवान व्यक्तित्व का विकास है। वस्तुतः आज ऐसे ही नैतिक एवं चारित्रिक दृष्टि से उन्नत व्यक्तित्वों की अधिकाधिक संख्या में देश और समाज को आवश्यकता है।

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