
अपेक्षित संस्कार जन्म के पूर्व से ही दिये जाए
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मनुष्य का शरीर और जीवन भगवान ने नीरोग और क्षमता सम्पन्न बनाया है। पर यदि उसे गर्भावस्था से ही समुचित साज-संभाल करने व भावनात्मक पोषण मिलने की बजाय टोंचते रहा जाय और कुसंस्कारी वातावरण में पाला जाय, तो उस विनाशक्रम का प्रभाव पड़े बिना न रहेगा। उसका आहार-विहार, रहन-सहन, चरित्र उसके पालक-संरक्षक आदि से अंत तक बिगाड़ते ही रहें, तो उसका परिणाम दुःखद ही होगा। वह स्वभावतः शारीरिक-मानसिक रोगों से घिरा रहेगा और अपने-अपने परिवार तथा समाज के लिए भार बनेगा। आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए तथा सम्पन्न व विकसित देशों में ऐसे दुर्दशाग्रस्त व्यक्तियों की संख्या कितनी अधिक है, इसे देखकर दुःख होता है। मनुष्य ने आना, अपनी संतान का-परिवार का यदि समुचित ध्यान रखा हाता और कर्तव्य निवाहा होता तो दयनीय स्थिति इतनी तेजी से न बढ़ती।
कोमल पौधों की कितनी अधिक साज-संभाल रखनी पड़ती है, कुशल माली इस तथ्य से भली-भाँति परिचित होते हैं। छुई-मुई की बेल अँगुली लगने भर से मुरझा जाती है। बीजाँकुरण के पश्चात् यदि कोमल तंतुओं को समुचित मात्रा में जल, वायु, धूप व पोषक तत्व न मिलें तो वे वृक्ष बनने से पूर्व ही सूख कर नष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य बच्चों के विकास के साथ भी जुड़ा हुआ है। उदरस्थ भ्रूण माता-पिता के स्वभाव, संस्कार ग्रहण करते और वातावरण के आधार पर अपना व्यक्तित्व बना लेते हैं। आहार-विहार से जहाँ बच्चे की जीवन रक्षा होती है वहीं उसका अनावश्यक अनुपात उसे रोगी बनाता तथा अकाल मृत्यु का कारण बन सकता है।
बच्चे पैदा होने की खुशी मनाना एक बात है, बड़े होने पर उनसे बड़ी बड़ी उपलब्धियों को हस्तगत करने की आशा करना दूसरी। पर इस सबसे बढ़कर बात यह है कि शैशव के दिनों में उनकी जितनी देखभाल आवश्यक थी वह की गयी या नहीं। इस संदर्भ में बरती गयी उपेक्षा से बच्चे का भविष्य अंधकारमय बनता है और अभिभावकों को भी कई प्रकार के पश्चाताप के रूप में उसका दंड भुगतना पड़ता है।
बच्चे को जन्म देना सरल है, पर उसके साथ जुड़े हुए दायित्वों का निर्वाह करना अति कठिन। उपेक्षा और अवहेलना का वातावरण शिशुओं की मनःस्थिति को दूषित एवं दुर्बल बनाकर छोड़ता है। बच्चों का सामान्य विकासक्रम देरी से होना, गुमसुम रहना, क्रोधी या जिद्दी होना, सोते समय साँस रोक लेना, नींद में डरकर उठ जाना, सिर पटकना, गाली-गलौज करना आदि समस्याएँ ऐसी हैं जिनका प्रमुख कारण भावनात्मक पोषण की कमी को ही माना गया है। ऐसे ही बच्चे आगे चलकर अपराधी बनते और अनेकानेक सामाजिक समस्याएँ खड़ी करते हैं। इस संदर्भ में बच्चों के भावनात्मक विकास का गहन अध्ययन करने वाले सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री ब्रूनो बैटलहेम ने अपनी पुस्तक ‘चिल्ड्रन ऑफ द ड्रीम’ में भिन्न-भिन्न प्रकार के दंपत्तियों की मनःस्थिति को प्रकट किया है। उनके अनुसार आज के तथाकथित सभ्य समाज में बच्चों को जन्म दे देना ही एकमात्र कर्तव्य बन गया है। अत्याधुनिक सभ्य कहे जाने वाले संरक्षक माता-पिता पैदा होते ही अपने शिशुओं को पालन-पोषण के लिए उसे किसी और के सुपुर्द कर देते हैं। उनके संरक्षण एवं लालन-पालन की उन्हें कोई आवश्यकता ही नहीं महसूस होती है। ऐसे उपेक्षापूर्ण वातावरण में पले एवं बढ़े बच्चे भी अपने माता-पिता को विस्मृत कर देते हैं और समाज की किसी भी मर्यादा अथवा वर्जनाओं को तोड़ने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं करते हैं। ब्रिटेन, अमेरिका जैसे संपन्न, सभ्य एवं सुविकसित कहे जाने वाले देशों में पिछले दो दशकों में बाल अपराधों की संख्या में 20 प्रतिशत की वृद्धि इसी कारण हुई है। भारत में भी यह रोग तेजी के साथ फैलता जा रहा है। इसका एक प्रमुख कारण जन्मदाताओं एवं संरक्षकों द्वारा आरंभ से ही बच्चों के विकास पर ध्यान न दिया जाना है।
जैसे-जैसे बच्चे बढ़ते जोते हैं, उनकी आवश्यकताएं भी तद्नुरूप बढ़ती जाती हैं, साथ ही उनमें कार्य करने की क्षमता का विकास होता जाता है। इन कार्यों को सुविख्यात बाल मनोविज्ञानी डॉ0 होमर लेन ने दो वर्गों में बाँटा है। प्रथम रचनात्मक कार्य, जिसके द्वारा बच्चा अपने आन्तरिक आनन्द की अभिव्यक्ति एवं अभिवृद्धि करता है। दूसरा है-भोगात्मक कार्य, जिसके माध्यम से वह अपनी बाह्य शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है और ध्वंसात्मक एवं सुखात्मक कार्य करने लगता है। इन कार्यों से दूसरों को कष्ट देने में भी बच्चों को आनन्द आता है।
किसी व्यक्ति की महानता की परख यह है कि वह अपने से छोटों के लिए क्या सोचता और क्या करता रहा।
इस अवस्था में पालकों को चाहिए कि वे बच्चों ..................................... कार्यों के प्रति अभिरुचि पैदा करें। ध्वंसात्मक एवं भोगात्मक कार्यों के प्रति अनास्था उत्पन्न करने के लिए छोटी-मोटी प्रताड़ना अथवा समझदारी पूर्ण दण्ड देना भी लाभकर हो सकता है। बच्चों के चरित्र निर्माण में नैतिक शिक्षा के प्रवचन या भाषणबाजी कोई प्रभाव नहीं डालते अपितु सृजनात्मक कार्यों के माध्यम से ही बच्चों की नैतिक शिक्षा स्थायी होती है। रचनात्मक कार्यों की ओर अभिरुचि को मोड़ देने पर दूसरों की सेवा का स्वतः आनन्द मिलने लगता है। इससे बच्चों की आन्तरिक क्षमता का विकास होता है। सद्गुणों एवं सत्प्रवृत्तियों के विकास होता है। सद्गुणों एवं सत्प्रवृत्तियों के विकास में यह कार्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे बच्चों में धीरे-धीरे सुसंस्कार भी डाले जा सकते हैं। इसके विपरीत भावनात्मक पोषण से वंचित एवं ध्वंसात्मक कार्यों में संलग्न बच्चों को जब बाह्य सफलता नहीं मिलती, तो उनमें आत्महीनता को भावना घर करने लगती है। फिर जब वह अपनी तुलना रचनात्मक प्रवृत्ति वाले बच्चों से करता है, तो पिछड़ा होने के कारण ईर्ष्यालु और निन्दक हो जाता है। ऐसे बच्चे बड़े होने पर अपराध जगत की ओर मुड़ते और घर-परिवार व समाज के लिए अनेकानेक समस्याएँ खड़ी करते हैं।
इस संबंध में डॉ. होमर लेन ने कई वर्षों तक बच्चों पर पृथक-पृथक प्रयोग किये। अन्ततः उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रायः सभी बच्चे जन्मजात रूप से रचनात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। यह उनके पालकों, जन्मदाताओं पर निर्भर करता है कि वे उसका नियोजन-निर्धारण किस प्रकार से करते हैं। उन्हें सही ढंग से रचनात्मक कार्यों में नियोजित करना एवं प्रोत्साहन देकर, उत्साह बढ़ाकर नये-नये कार्यों के प्रति अभिरुचि पैदा करना अभिभावकों का काम है। सृजनात्मक कार्यों के अभाव में ही बच्चे ध्वंसात्मक व भोगात्मक कार्यों की ओर अग्रसर होते हैं। ध्वंसात्मक व भोगात्मक कार्यों की ओर अग्रसर होते हैं।
ध्वंसात्मक प्रवृत्ति वाले एक बालक के उपद्रव से सभी शिक्षक परेशान थे। संरक्षक एक के बाद एक विद्यालय बदलता। अन्ततः एक योग्य शिक्षक मिल ही गये। उन्होंने उस बालक की उद्दंडता पर मात्र इतनी ही सजा दी कि उसे अन्तिम सीट पर सबसे बैठने को कहा। दूसरे दिन से शिक्षक बच्चे से स्नेहपूर्ण ढंग से मात्र पढ़ाई-लिखाई की ही बात करते और उसे प्रोत्साहित करते। स्नेह-प्रेम एवं प्रोत्साहन की इस शिक्षा ने बालक का कायाकल्प कर दिया। कक्षा का सबसे उद्दंड बालक कुछ ही दिनों में उस विद्यालय का सबसे अधिक प्रतिभाशाली छात्र सिद्ध हुआ।
वस्तुतः बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण माता के उदर में आते ही आरम्भ हो जाता है। अतः आवश्यक है कि नर-रत्नों को जन्म देने के लिए प्राचीनकाल की भाँति अब भी घर-परिवार के वातावरण को स्वच्छ व सुसंस्कारी बनाया जाय। इस संबंध में बरती गयी सतर्कता जन्म लेने वाले बच्चे के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। महाभारत में अभिमन्यु की कथा एक ऐसी ही घटना है, जो यह साबित करती है कि गर्भावस्था से ही बच्चे में संस्कार डाले जा सकते हैं और इच्छानुसार उन्हें ढाला जा सकता है। उसी प्रकार अष्टावक्र का भी उदाहरण है। इन्हें आत्मज्ञान की परिपूर्ण शिक्षा उनके पिता द्वारा गर्भावस्था में ही दी गई थी।
इस तथ्य की पुष्टि अब विज्ञान की नवीनतम शोध-अनुसंधानों से भी हो चुकी है कि माता-पिता के स्वास्थ्य और चिन्तन के अनुरूप ही बच्चे के संस्कार व आदतें बनती हैं और तद्नुरूप ही वह व्यवहार करने लगता है। इस संदर्भ में जर्मन अखबार ‘सर्ज’ ने जर्मन वैज्ञानिकों के नवीनतम एवं महत्वपूर्ण अनुसंधानों को प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार वहाँ के बच्चों को माँ के गर्भ में ही प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसमें गर्भस्थ शिशु को इस आधुनिक संसार की जानकारियाँ सुनाई जाती हैं। भाषा के अभाव में गर्भस्थ शिशु भाषा तो नहीं सीख सकता, किन्तु उसका अवचेतन मन संकेत रूप में अधिकाँश जानकारियों को संग्रहित करता जाती है।
अभी तक प्राप्त परिणामों से यह सिद्ध हो गया है कि जिन-जिन गर्भस्थ शिशुओं को प्रशिक्षित किया गया, जन्म के बाद वे शीघ्रातिशीघ्र साँसारिक जानकारियों को ग्रहण करने लगते हैं। ऐसे बच्चे कम उम्र में ही अपनी आवश्यकताओं की सारी जानकारी बड़ी आसानी से संकेत रूप में माता-पिता को दे देते हैं। इनका विकासक्रम भी अतिशीघ्र होता है। इन बच्चों में शेष सभी विशेषताएँ अन्य बच्चों जैसी ही होती हैं, किन्तु समझदारी, आत्मविश्वास, साहस आदि बातों में अन्य बच्चों की अपेक्षा यह कहीं बहुत आगे होते हैं। जो ज्ञान सामान्य बच्चा दो से तीन वर्ष में प्राप्त कर सकता है, उस स्तर की जानकारी व समझ गर्भकाल में प्रशिक्षित बच्चों में आठ से बारह माह के अन्दर ही आ जाती है। इस तरह के प्रयोग कई देशों में चल रहे हैं। भाषा, विज्ञान , गणित, नागरिकता आदि का प्रशिक्षण अनेकों गर्भस्थ शिशुओं को देने में वैज्ञानिक जुटे हैं। यदि वह प्रयोग पूर्णरूपेण सफल रहे तो महाभारत की उक्त घटना की प्रामाणिकता असंदिग्ध हो जाएगी।
आधुनिक मनोविज्ञानियों ने भी अपने अनुसंधानों में पाया है कि बच्चा माँ के गर्भ से ही सुनना और सीखना प्रारम्भ कर देता है। पाया गया है कि यदि गर्भवती माँ को किसी कविता या संगीत को बार-बार सुनाया जाय तो जन्म लेने के पश्चात् बच्चा उस संगीत या कविता को तुरन्त पहचान व सीख लेता है। गर्भावस्था के बाद जब शिशु जन्म लेता है, उस समय भी उसमें बहुत से गुण पूर्व सीखें हुए प्रतीत होते हैं। रूस परिसंघ के मनोवैज्ञानिक ने कुछ नवजात शिशुओं में तैरने की क्षमता जन्मजात रूप से पायी है। इन्होंने अपने प्रयोग में पाया है कि जन्म से चार माह के अन्दर बच्चे में तैरने की पर्याप्त क्षमता होती है। पानी में डुबो दिये जाने पर बच्चे का साँस लेना रुक जाता है किन्तु बच्चा जल के अन्दर ही मछली की तरह उछल-कूद मचाता रहता है। तैरने वाले बच्चे शीघ्र ही चलने लगते हैं, जबकि न तैरने वाले बच्चों का चलना देर से आरम्भ होता है। बच्चों को जन्म से ही तैरने का अभ्यास कराया जाय तो उनमें यह गुण आजीवन एक सफल तैराक के रूप में बना रहता है।
न योगों नभसः पृष्ठे न भूमौ न रसातले।
एवयं जीवात्मानो राहुर्योमं योग विशारदाः॥
-देवी भागवता
अर्थात्-योग न आकाश में है, न पृथ्वी में और न रसातल में योगतत्व के ज्ञाता जीवात्मा तथा परमात्मा की एकता को ही योग कहते हैं।
मनोविश्लेषणात्मक परिस्थितियों के ज्ञाता डॉ. एन्थौनी स्टौर के अनुसार बच्चा बचपन से ही अपने माता-पिता द्वारा सुरक्षा की अपेक्षा-अभिलाषा रखता है, पर वे अपेक्षित संस्कार व संरक्षण देना तो दूर, उनके पास उपेक्षा-अवहेलना ही मिलती है। आज स्थिति यह है कि 36 प्रतिशत माता-पिता का, जन्मदाताओं का दृष्टिकोण ऐसा बन चुका है कि उन्हें बच्चों का पैरों से लिपटना अथवा गले से चिपकना अच्छा ही नहीं लगता। माताएँ समयाभाव के कारण अथवा ‘फिगर’ सही रखने के चक्कर में बच्चे को अपना अमृत तुल्य दूध तक पिलाना नहीं चाहतीं। यदि यही उपेक्षित दृष्टि आगे भी बढ़ती चली गयी तो निकट भविष्य में वात्सल्यभाव ही तिरोहित हो जाएगा। इस भावनात्मक परिपोषण के अभाव में बच्चे या तो मन्दबुद्धि बनेंगे अथवा मानचित्र विकृतियों का शिकार बनकर परिवार, समाज व राष्ट्र के लिए भारभूत ही सिद्ध होंगे।