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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मन एव मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो

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First 14 16 Last
मगध सम्राट महाराज बिम्बसार, अपने राजपरिकर के साथ नंगे पाँव चलकर ही तीर्थंकर भगवान महावीर के दर्शनों के लिए जा रहे थे। सबसे आगे उनके सुमुख और दुर्मुख नाम के दो व्यवस्था सचिव चल रहे थे। अचानक सबकी दृष्टि मार्ग के दायीं ओर गई। वहाँ एक वृक्ष के नीचे महातपस्वी प्रसन्नचन्द्र एक पैर पर खड़े हो, भुजाएँ ऊँची कर सूर्यमुखी मुद्रा में अपने ध्यान में तल्लीन थे।

सम्राट श्रेणिक ने एक पल के लिए खड़े होकर उनकी ओर भक्तिपूर्ण दृष्टि से निहारा और महारानी चेलना के साथ उनको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उन्हें परम तपस्वी प्रसन्नचंद्र के बारे में काफी कुछ स्मरण हो आया। अपनी तपस्या से समूचे लोक को प्रकाशित करने वाले प्रसन्नचन्द्र पहले पोतनपूर के राजाधिराज थे। कुशल प्रशासक, श्रेष्ठ योद्धा, महान न्यायाधीश के रूप में उनकी चतुर्दिक् ख्याति थी। उनके न्याय की कहानियाँ चारों ओर कही-सुनी जाती थीं। सेनापति और महान योद्धा उन्हें अपनी वीरता के आदर्श के रूप में स्वीकार करते थे। व्यापार और धन-धान्य की समृद्धि का पर्याय माना जाता था पोतनपुर का राज्य।

अनेक वर्षों तक प्रसन्नचंद्र ने सुख और ऐश्वर्य का भरपूर भोग किया। भंगुर ऐंद्रियक सुख में भी अमरत्व का भ्रम होने लगे, इस हद तक उन्होंने पृथ्वी के सारभूत सुख भोगे। उनकी रानी चन्द्रकला भी सौंदर्य का घनीभूत पुँज थी। अपने स्वभाव से भी वह ऐसी शीतल थी मानो कि चन्द्रपुरी से आयी हो। राजा को उसका हर .......... ऐसा लगता, जैसे उसमें चन्द्र किरणों का अमृत झरता हो।

एक वसन्त ऋतु की चाँदनी रात में राजा प्रसन्नचन्द्र महल की खुली छत में रत्नपयंक पर अपनी रानी के साथ सोये थे। चाँदनी में वासन्ती फूलों की गन्ध कुछ संदेश देती-सी लगी। राजा का आलिंगन यकायक छूट गया। रानी उस ऊष्मा में अवश, मूर्छित छूटी पड़ी रह गयी। राजा ने ग्रह-तारा खचित आकाश को देखा। लेकिन चन्द्रमा तो स्वयं उनकी शैया में ही आ लेटा है। कितने नक्षत्र लोक, कितने जगत, कितने भुवन, कितने ब्रह्माण्ड ! अनन्त सामने खुल गया।

प्रसन्नचन्द्र को लगा कि इन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों में उसका अस्तित्व क्या ! एक बिन्दु भर भी तो नहीं। तो उसका होना या न होना कोई मायने नहीं रखता और राजा को अपनी अस्मिता शून्य में विसर्जित होती लगी। उसका ‘मैं’ उसे कपूर की तरह छूतन्तर होता अनुभव हुआ।..... तो वह कौन है और कहाँ टिके वह? मृग शीर्ष नक्षत्र के मृग पर चढ़कर वह मानो अस्तित्व के छोर छू आया। ..... आगे जो सीमाहीन का निस्तब्ध राज्य देखा, तो उस अथाह के समक्ष वह शून्य हो गया।

फूलों की शैया पर लेटी परम सुन्दरी रानी! आस-पास सजी नाना भोग सामग्री। जलमणि की फुलैल मंजूषा। नाना सुगन्ध, आलेपज अलंकारों के रत्न करंडक। ऐंद्रियक सुख के अपार आयोजन। सब कुछ क्षण मात्र में दर्पण की प्रतिच्छाया सा विलीन हो गया। सारे लोकालोक उसकी आँखों में नक्षत्रों की धूल से झरते दिखायी पड़े।

और यह चन्द्रकला? काल के प्रवाह में ऐसी जाने कितनी चन्द्रकलाएँ, हर क्षण तरंगों-सी उठकर मिट रही हैं। इसके चरम तक जाकर भी, क्या इसे पा सका? क्या मैं इसके साथ तदाकार हो सका, जो हुए बिना मुझे अब क्षण भर भी चैन नहीं।

और राजा खुलते शून्य में थरथराते बच्चे की तरह प्रवेश कर गया।

उस काल, उस बेला श्री भगवान् महावीर पोतनपुर के ‘मनोकाम्य उद्यान’ में समवसरित थे। उस दिन सबेरे अचानक महाराज प्रसन्नचंद्र प्रभु के सम्मुख उपस्थित दीखे। वे निरालंब में काँप रहे थे।

“इधर देख राजा और जान कि शून्य है कि सत है। अमूर्त है कि मूर्त है, इधर देख।” अनन्त की अतल गहराइयों को बेधती तीर्थंकर भगवान की वाणी ध्वनित हुई।

राजा ने सिर उठाकर प्रभु को एक टक निहारा। समय से परे अपलक निहारता ही रह गया। फिर हठात् वह बोल पड़ा-

“शून्य भी है, सत भी। मूर्त भी अमूर्त भी। शून्य ही सत हो गया है मेरे लिए। अमूर्त ही मूर्त हो आया है मेरे लिए। यह क्या देख रहा हूँ भगवन्!”

“क्या तू अब भी निरालम्ब है? क्या तू अब भी अकेला है? क्या तू अभी भी नास्ति है? क्या तू अब भी शून्य है?”

“मैं अब निरालम्बी नहीं, स्वावलंबी हूँ। मैं अब अकेला नहीं, क्योंकि मैं अर्हत संयुक्त हूँ। अर्हत के न के बाहर तो कुछ भी नहीं। मैं अब नास्ति नहीं, अमिट-अमित अस्ति हूँ। मैं अब शून्य नहीं, एकमेव सत्ता हूँ।”

“तू कृतार्थ हुआ राजन् ! तू जिनों के महाप्रस्थान का पंथी हुआ।”.......... महाराज प्रसन्नचन्द्र ने दिगम्बर होकर जिनेष्वरी दीक्षा का वरण किया और उसी क्षण उन्हें सम्यक् बोधि का अनुभव हुआ।

महाराज श्रेणिक को जैसे ये सारी बातें एक पल में साकार हो उठीं। जिस दिन राजा प्रसन्नचंद्र भगवान महावीर के यहाँ पधारे थे, उसी दिन वे भी अपनी महारानी के साथ भगवान के दर्शनों के लिए आये थे। यह बहुत पहले की बात है। इधर कई वर्षों से तो राजा प्रसन्नचंद्र, परमतपस्वी प्रसन्नचन्द्र, परमतपस्वी प्रसन्नचन्द्र के रूप में प्रख्यात हो चुके हैं। कायोत्सर्ग का तप उन्हें चेतना की उच्च से उच्चतर श्रेणियों पर ले जा रहा है। वे सूत्रार्थ के परगामी हो गए हैं। सत्ता का स्वरूप उनमें प्राकट्यमान होता दिखायी पड़ता है।

यही सब कुछ सोचते हुए मगध सम्राट श्रेणिक के जुड़े हाथ थोड़ा नमित होकर खुल गए। उनके पैर आगे बढ़ने के लिए समुद्यत हो उठे। सम्राट की इस सोच से बेखबर आगे चल रहे सुमुख मंत्री ने भी रुककर वन्दन किया और साश्चर्य कहा-”अहो, कैसा दिव्य है इनका तपस्तेज। स्वर्ग और मोक्ष भी इनके चरणों पर न्यौछावर हैं।”

तुरन्त ही दुर्मुख ने तीव्र प्रतिवाद करते हुए कहा-”अरे क्या खाक तपस्तेज है! तुझे क्या पता इसके बारे में सुमुख कि यह कैसा पलायनवादी और पातकी है यह साधु। यह पोतनपुर कर राजा प्रसन्नचन्द्र है। अपने बालक राजकुमार पर सारा राज्यभार छोड़ बिना कहें ही यह घर से भाग कर मुनि हो गया है। इस पातकी ने निर्दयतापूर्वक गौवत्स के कोमल कन्धों पर संसार की गाड़ी का बोझ जोत दिया। इसकी अप्सरा जैसी सुकोमल सुन्दरी रानी इसके निष्ठुर विरह में सूखकर काँटा हो गयी है। पर इस कायर को रंचमात्र दया-माया नहीं और इसके मंत्रियों ने चम्पानगरी के राजा अजातशत्रु के महामंत्री वर्षकार से मिलकर, इसके बालक राजकुमार का राज्य हड़प लेने का कुटिल जाल फैलाया है। अरे सुमुख, इस पाखण्डी, पलायनवादी को देखना भी पाप है।”

राजर्षि प्रसन्नचन्द्र के कानों में न जाने कैसे ये शब्द चले गए। उनके ध्यान सुमेरु पर जैसे वज्राघात हुआ। उनकी निश्चल चेतना में दरारें पड़ गयीं। वे चैतन्य के शिखर से लुढ़क कर, चिन्तन के विकल्पों में करवटें बदलने लगे। अहो, धिक्कार है मेरे अकृतज्ञ मंत्रियों को। मैंने निरन्तर उनका सत्कार किया। उन्हें कितना धन-मान दिया, उच्च पद दिया। फिर भी मेरे निर्दोष पुत्र के साथ वे दाँवघात कर रहे हैं। मेरा दुधमुँहा बेटा आज अनाथ है। चन्द्रकला श्री सौभाग्य विहीन होकर छिन्न लता-सी मुर्झायी पड़ी है। वह अपने आपे में नहीं। उसका नारीत्व, उसका मातृत्व सब मिट्टी में मिल गया। मेरे गृहत्याग से ही तो उनकी ऐसी दुर्दशा हो गयी। मरे अपराध की क्षमा नहीं नहीं और वे मेरे मंत्री, मेरे रहते वे मेरे शशक जैसे बालक और मेरी हरिणी जैसी रानी का सर्वनाश कर देंगे? ऐसा कैसे हो सकता है?.............मैं, मेरा, मेरी रानी, मेरा पुत्र, मेरा राज्य, मेरा मंत्री, मेरे शत्रु.......... मैं प्रतिकार करूंगा। मैं .........मेरे, मैं, .........मेरा, मैं.......मैं.......मैं।

...............और व्यथित, विक्षिप्त राजर्षि प्रसन्नचंद्र, अपने मनोदेश में ही, अपने मंख्यों के साथ युद्ध में प्रवृत्त हो गए। युद्ध अन्तहीन होता चला गया। युद्ध में से युद्ध। इस दुष्चक्र का कहाँ अन्त है?

ठीक उसी समय श्री भगवान के समवसरण में सम्राट श्रेणिक जा उपस्थित हुआ। नमन-वन्द के अनन्तर सम्राट ने सर्वज्ञ महावीर से प्रश्न किया-”जयवन्त हो त्रिलोकी नाथ ! अभी वनपथ में राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को पूर्ण ध्यान में लीन देखा। कायोत्सर्ग की उस विदेहा दशा में यदि वे मृत्यु को प्राप्त हों, तो वे कौन-सी गति पायेंगे, भगवन्?”

तपाक से प्रभु का उत्तर सुनायी पड़ा-”सातवाँ नरक।”

स्नकर श्रेणिक आश्चर्य से जड़ हो गया। ऐसे महाध्यानी मुनि अन्तिम नरक के रसातल में कैसे पड़ सकते हैं। तब क्या कठोर दुर्धर्ष तप, तीव्र वैराग्य सब कुछ बेकार है। ऐसा तो नहीं प्रभु का उत्तर स्वयं वही सुन न सका हो? शायद उसके सुनने में ही भूल हो गयी सो क्षण भर रुककर श्रेणिक ने फिर पूछा- “हे भगवन् ! राजयोगी प्रसन्नचंद्र यदि ठीक इसी समय काल को प्राप्त हों, तो कहाँ जाएँगे? किस योनि में पुनर्जन्म लेंगे?”

भगवन्त के श्रीमुख से सुनायी पड़ा-”सर्वार्थ सिद्धि के विमान में?”

श्रेणिक बड़ी उलझन में पड़ गया। एक क्षण के अन्तर पर ही भगवान के कथन में भेद कैसा? अविरोध वाक् सर्वज्ञ की वाणी में अन्तर्विरोध कैसे हो सकता है? श्रेणिक ने तत्काल उद्विग्न हो प्रश्न किया-”हे प्रभु आपने क्षण मात्र के अन्तर से दो भिन्न बातें कैसी कहीं?”

उत्तर सुनायी पड़ा-”मन की अवस्था में भेद के कारण। चेतना में हर क्षण नयी-नयी अवस्थाएँ आती-जाती रहती हैं। आत्म परिणामों की गति बड़ी सूक्ष्म और विचित्र है, राजन् ! उत्पाद-व्यय का खेल निरन्तर चल रहा है। उसमें ध्रुव रहना ही तो योग है। मन को समत्व में आसीन कर लेना, उसे परम चेतना से तदाकार कर लेना ही तो परम सिद्धि है। प्रसन्नचन्द्र ध्यान में ध्रुवासीन होकर भीत्र, दुर्मुख के वचन सुन सहसा ही कुपित हो गए। वे समत्व के शिखर से ममत्व के पंक में लुढ़क गए। मेरा बालक राजकुमार, मेरी रानी, मेरा राज्य, मेरे मंत्री? मेरे शत्रु! और वे क्रोधावेश में आकर मन ही मन अपने मंत्रियों से रक्ताक्त युद्ध करने लगे। जब तुमने उनकी वन्दना की राजन्, तब वे इसी मनोदशा में थे। इसी से उस समय वे सप्तम नरक के योग्य थे।

लेकिन जब तुम यहाँ आए, राजन् तब प्रसन्नचंद्र ने यकायक अनुभव किया कि मेरे सारे आयुध तो चुक गए, अब मैं कैसे युद्ध करूं और वे फिर उद्यत हुए कि अहो, मैं अपने शत्रु को शिरस्त्राण से मारूंगा और उनका हाथ शिरस्त्राण खींचने को पहुँचा, तो पाया कि वहाँ शिरस्त्राण नहीं श्रमण की केश लुँचित मुण्ड खोपड़ी थी। तत्काल प्रसन्नचंद्र की प्रत्यभिज्ञा हुई अरे मैं तो सर्वत्यागी महाव्रती श्रमण हूँ। कौन राजा, किसका राज्य, किसका युवराज, किसकी रानी, कौन शत्रु, किसका शत्रु?........ मैं वह कोई नहीं, मैं हूँ केवल एक स्वभाव में स्थित निरंजन आत्मा। वीत-पर्याय, वीतराग, वीतद्वेष, वीतशोक, अवीतमान ध्रुव आत्म।

यों आलोचना, प्रतिक्रमण करते हुए प्रसन्नचन्द्र फिर प्रशस्त ध्यान में अवस्थित हो गए। तुमने जब दूसरी बार प्रश्न पूछा- तब तक उनकी मनोदशा बदल चुकी थी, वे इस थोड़े समयाँश के अन्तर से ही प्रशस्त ध्यान की पराभूमि में विचर रहे थे। सर्वार्थ सिद्धि विमानों के प्रदेश में उनकी चेतना उड़ाने भर रही थी।”

ये सब बातें हो ही रही थीं कि समीप की वनभूमि में राज संन्यासी प्रसन्नचन्द्र के सामीप्य में देव दुँदुभियों का नाद होता सुनायी पड़ा। देवाँगनाएँ पुष्प बरसाती दिखायी पड़ी। विस्मित-चकित भाव से श्रेणिक ने फिर से पूछा- “हे स्वामी, अकस्मात् यह क्या हुआ?”

प्रभु का अविलम्ब उत्तर सुनायी पड़ा-”शुक्ल ध्यान की अन्तिम चूड़ पर आरोहण कर, राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को कैवल्य समाधि प्राप्त हो गयी। कल्पवासी देव उनके कैवल्य का उत्सव मना रहे हैं।”

“तीन ही क्षणों में, एक ही आत्मा क्रमशः सप्तम नरक का तल छूकर सर्वार्थ सिद्धि को पार कर, कैवल्य के महासूर्य में आसीन हो गयी? अबुझ है भाव की गति भगवन्!”

“काल के प्रवाह से ऊपर है चैतन्य का खेल, बिम्बसार! महाभाव के राज्य में काल का वर्तन नहीं। अपने ही मन के भावों की गति देख और जान कि तू ठीक इस क्षण कहाँ चल रहा है? इस सत्य को जान ले श्रेणिक ! कि ‘म एव मनुष्याणा करणं बन्ध मोक्षयो’ अर्थात् मनुष्यों का अपना मन ही उनके बन्धन और मोक्ष का कारण है।”

श्रेणिक राज ने अपने भीतर झाँका। एक नीली स्तब्धता में, कितनी सारी गतियाँ और कोई गति नहीं। केवल एक निःस्वप्न में, आप ही अपने में तरंगित।

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