
ईश्वर तेरे रूप अनेक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सुविख्यात वैज्ञानिक न्यूटन से एक बार उनके मित्र ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा- “आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर में आस्था रखते हैं? उसकी प्रार्थना किया करते हैं? यदि भगवान सचमुच है तो वह क्या है?”
‘ ज्ञान ‘ न्यूटन गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया। उन्हें कहा- “ हमारा मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहाँ पहुँचता है, वहीं उसे एक शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में यह जो ज्ञान की अनुभूति भरी हुई है। सृष्टि का कोई कण चेतना से वंचित नहीं, परमात्मा इसी रूप में सर्वव्यापी है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियंत्रण होता है, विनाश करना चाहो तो भी प्रवेश कर सके। परमेश्वर इस रूप में ही अनन्त विस्तार के जगत में समाया हुआ है। “ न्यूटन की यह मान्यता ईशावास्योपनिषद के इस मंत्र की पुष्टि यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर से सब ओर से आच्छादित है। पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड में वही समाया हुआ है। सह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान से भी महान है। ‘ अणोरणीयान्, महतो महीयान्’ सूत्र में भी इसी तथ्य का प्रतिपादन किया गया है।
विज्ञानवेत्ताओं का अनुमान है कि यह जो विश्व -ब्रह्माण्ड दिखाई दे रहा है, वहां 50 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी में, प्यास में फैला हुआ है। एक प्रकाश वर्ष की दूरी मील होती है । हम जिस सूर्य के प्रकाश से अपना जीवन चलाते हैं, वह जिस आकाशगंगा- ‘नेबुला’ से प्रकाश लेता है, ऐसी-ऐसी दस करोड़ आकाशगंगाएँ अनन्त अंतरिक्ष में प्रकाश फैलाती हुई अरबों सूर्यों को चमक रही हैं। इसमें अन्य ग्रह-नक्षत्रों की संख्या तो गिनी भी नहीं की जा सकती। फिर उनमें रहने वाले प्राणियों की संख्या का तो कहना ही क्या? यह सब कोई अनगढ़ या बेतुकी उपज नहीं, वरन् योजनाबद्ध ढंग से विनिर्मित एक कृति हैं, जिसके अन्तराल में एक विधान है, एक सुव्यवस्था है और एक महान व उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता है। जो यह सिद्ध करती है कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड में एक ऐसी सत्ता काम कर रही है, जिसे परमात्मा, विश्वात्मा कहा सकता है। उसकी महानता, दिव्यता, सर्वज्ञता, सर्वसमर्थता एवं सौंदर्य का बोध कराने के लिए ही ग्रह-गोलकों सहित समस्त जड़-चेतन की उत्पत्ति हुई है। यह सब उसी महासत्ता के घटक हैं।
इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आरिस्टोटल की मान्यता थी कि इतना बड़ा संसार निश्चय ही किसी नियम और व्यवस्था के अंतर्गत चल रहा है। और तो और हमारा मस्तिष्क गणित के द्वारा पहले ही ग्रह-नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ पर होने वाले ग्रहण आदि संघातों का लता लगा लेता है, इसका अर्थ है कि संसार अनियमित, बेतुका नहीं। इतने विराट जगत को घुमाने वाला कोई महान शक्तिशाली तत्व होना ही चाहिए और वह केवल ईश्वर ही हो सकता है। भगवान के अतिरिक्त और किसी में यह शक्ति नहीं। परमात्मा ही सृष्टि का संचालक व नियंत्रणकर्त्ता है। ‘ द ग्रेट डिवाइन’ नामक पुस्तक में भी विश्व के प्रमुख विज्ञानवेत्ताओं ने अपने सम्मिलित निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि - “ यह संसार निर्जीव यंत्र नहीं है और न ही यह सब अनायास ही बन गया है। जुड़ चेतन हर पदार्थ में एक ज्ञान शक्ति काम कर रही है, उसका नाम भले ही कुछ हो।”
मूर्धन्य मनीषी हर्वर्ट स्पेन्सर की दृष्टि में इस विराट् शक्ति का ही नाम परमात्म-चेतना है, जो संसार की सब गतिविधियों का नियंत्रण उसी प्रकार करती है, जिस प्रकार मुखिया घर का, प्रधान गाँव का , कलेक्टर जिले का, गवर्नर प्रदेश का और राष्ट्रपति सारे राष्ट्रपति सारे राष्ट्र की भोजन, वस्त्र, निवास , सुरक्षा आदि की व्यवस्था करता है। उनके अनुसार -”राज्य के नियमों का हम इसलिए आदर करते हैं क्योंकि हमें राज्य की शक्ति से भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर भी हमें भय लगता है, जबकि हम उसके लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है, हम उसके परिचय में कभी न कभी रहे है, क्योंकि हम डरते हैं। निर्भीक व्यक्ति नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है , इसलिए उसे संसार की व्यवस्था ईमानदारी और न्याय से करने वाला प्रजावत्सल तत्व होना चाहिए ।”
विश्वविख्यात दार्शनिक काण्ट ने हर्वट स्पेन्सर के कथन को अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है कि -”नैतिक नियमों से स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर, डकैत भी नहीं चाहते कि कोई उनसे झूठ बोले, छल या कपट करे। जबकि वे स्वयं सारे जीवन भर यही किया करते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है, उसी से संसार का निर्माण, पालन ओर पोषण हो रहा है। इसलिए भगवान नैतिक शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।”
नीतिशास्त्रियों की दृष्टि में सत्य और नीतिनिष्ठा द्वारा संसार का नियंत्रण करने वाली ऐसी शक्ति जो प्रत्येक व्यक्ति की आकाँक्षाओं में विद्यमान रहती हैं, वही ईश्वर है। वह सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। हैब्यू ग्रंथों में इसे ही ‘ जेनोवाह’ कहा गया है। बुद्ध ने यद्यपि स्वयं ईश्वर के अस्तित्व और विवेचन को टाल दिया था, फिर भी अनेक बौद्ध ग्रंथों में लगता है कि वे किसी ऐसी दिव्य शक्ति में विश्वास रखते थे। बौद्ध धर्म के ग्रंथ ‘मसंग’ एवं ‘माध्यमिका कारिका’ में पहेली बुझौबल की तरह उल्लेख मिलता है। “वह न नहीं है और न है, न वह इस तरह है और न किसी तरह, वह न जन्मता है न वर्धित ही होता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। वह कोई एक वस्तु नहीं है, न उसका अस्तित्व है और न ही उसका अस्तित्व नहीं है। न वह दोनों से पृथक है, वह विचित्र रहस्य, वही सत्य है।” तात्पर्य यह कि विश्व की संपूर्ण व्यवस्था किसी सत्य के आधार पर चल रही है।
प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो की ईश्वरीय मान्यता यह थी कि -” ईश्वर अच्छाई का विचार है।” वह कहते थे कि संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहाँ तक कि जीव-जन्तु को भी अच्छाई की चाह रहती है। जहाँ अच्छाई होती है, वहीं आनंद रहता है। अच्छाई शरीर ओर सौंदर्य की जो संयम और सदाचार द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई शरीर और वस्त्रों की जो धोने ओर स्नान करने से सुरक्षित हो, अच्छाई वातावरण की, घर, गाँव और नगरों की जो स्वच्छता और सफाई द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की जो हरे-भरे पौधों और खिलते हुए रंग-बिरंगे फूलों, भोले-भाले पशु-पक्षियों के कलरव और उछलकूद से सुरक्षित हो। इस तरह संसार में हम सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। यही प्रभुत्व है, इन्हीं से आनंद मिलता है, इन्हीं से संसार में आने का मजा आता है। सो भगवान को यदि मानें तो उसे अच्छाई का वह बीज मानना पड़ेगा जो आँखों को दिव्य, मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।
दार्शनिक स्पिनोजा ने विज्ञान और दर्शन दोनों का अध्ययन करके बताया कि “संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ काम कर रही हैं-एक दृश्य और दूसरी अदृश्य! एक का नाम प्रकृति या पदार्थ जो दिखाई देता है। दृश्य संसार प्रकृति की ही रचना है, अपना शरीर भी पदार्थ से बना है। इसमें भी धातुएँ, खनिज लवण गैसें आदि भरी पड़ी हैं, पर विचार उससे भिन्न है। यह दिखाई नहीं देता पर हम उसे हर घड़ी अनुभव करते हैं, हमारे जीवन की सारी क्रियाशीलता विचारों की ही देन है। विचार ठण्डे पड़ते ही शरीर ठण्डा पड़ जाता है । विचार मरे कि शरीर मर गया। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक विचार प्रक्रिया का बने रहना यह बताया है कि विचार ही विश्वव्यापी चेतना या ईश्वर है। विचार कभी नष्ट नहीं होते,ईश्वर भी अविनाशी है। निःसन्देह अविनाशी विचार ही भगवान है। या यों कहें कि भगवान का स्वरूप गुण और विचारमय ही हो सकता है, चाहे वह किसी शक्ति कणों के रूप में हो अथवा प्रकाश के रूप में, पर विचारों का आस्तित्व संसार में है अवश्य। हम सदैव ही उनसे प्रेरित-प्रभावित होते रहते हैं। विचारों को कोई भी व्यक्ति अपना नहीं कह सकता। फ्रायड जैसे मनोवेत्ता को भी यह कहना पड़ा था कि विचार अवचेतन मन से आते हैं और मनुष्य का उस पर कोई नियंत्रण नहीं, वह कोई स्वतंत्र सत्ता हैं”
ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक हीगेल ने भी भगवान को सामान्य इच्छाओं से उठा हुआ। इच्छाओं को भी नियंत्रण में रखने वाला-’एब्सोल्यूट आइडिया’ अर्थात् परम विचार बताया है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष देखने से हमारा मस्तिष्क एक प्रकार से विचारों का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। इसी तरह सारे विश्व में फैले विचार किसी केन्द्रीभूत सत्ता से प्रस्फुटित हो रहे हैं। जिस प्रकार सूर्य में ऑक्सीजन जलती रहती है और हीलियम के कण उछलते रहते हैं उसी प्रकार संसार के किसी भाग से नियमित विचारों का निर्झर झरता रहता है। उस केन्द्रीभूत सत्ता का नाम हीगेल न परमेश्वर बताया।
इमर्सन और बकेले के मत में सब आत्माओं में श्रेष्ठ शक्ति का नाम ही परमात्मा है। उन्होंने तत्वदर्शन का सहारा लिया था और कहा था कि यह सारा संसार कहीं से उधार प्राण और चेतना ले रहा है। यह चेतना और प्राणशक्ति अपने मूल रूप में एक जैसी ही है। विचार ग्रस्त होने के कारण वह अनेक जीवों के रूप में दिखाई देती है, पर आत्मचेतना के सभी लक्षण मनुष्य ओर अन्य प्राणियों में समान है। जिस तरह बड़े बिजलीघर में विद्युत लेकर छोटे-छोटे बल्ब जलने लगते हैं, उसी प्रकार प्राणियों की चेतना भी किसी मूलतत्व से प्राण और प्रकाश लेकर आस्तित्व में आती हैं। तो सब आत्माओं का उद्गम है, वही परमेश्वर है। यदि आत्माओं का स्वरूप प्रकाश है, तो परमात्मा परम प्रकाश है, यदि ज्ञान या परम विचार है। यह सारी विशेषताएँ वस्तुतः एक ही हैं, कहने भर का अन्तर जान पड़ता है।
डॉ0 ब्रेउले भगवान को जानने के लिए अनुभवों का रूप समझने की प्रेरणा देते हैं। उनका कहना है कि हमारे अन्दर जो अनुभूति कोष हैं, वह पदार्थ ही नहीं , प्रकाश, ताप चुम्बक विद्युत कणों से भी भिन्न है। इसलिए उन्होंने भगवान को परम अनुभव कहा है। यह सारी बातें मिलकर एक अध्यात्मवादी सृष्टि का निर्माण करती हैं, इसलिए दार्शनिकों ने उसे आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा है। यह ज्ञान, यह अनुभूति यह अध्यात्म ही ईश्वर है। आद्यशंकराचार्य और उपनिषद् दर्शन उसे ही ‘अयमात्मा ब्रह्म’ ‘ अहं ब्रह्मास्मि” तत्वमसि’ यह मेरी आत्मा ही ब्रह्म है, मैं ही ब्रह्म हूँ परमात्मा तत्व रूप हैं आदि सूक्तों से संबोधित करते हैं। यह सारी विशेषताएँ परमात्मा के स्वरूप के भिन्न-भिन्न विश्लेषण हैं, तत्वतः वह एक ही है।