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Magazine - Year 1996 - Version 2

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Language: HINDI
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परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालें

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First 10 12 Last
प्राणिशास्त्र में ‘द आर्ट ऑफ वैटसिन एडाप्शन’ प्राणिशास्त्र का एक बहुचर्चित सिद्धान्त है जिसका अर्थ होता है। सामाजिक बुराइयों से आत्म-रक्षा के लिए अपने आपको बदलना बुराइयाँ कमजोर मन वालो पर आक्रमण करती हैं, हमें अभ्यास से अपने मन को ऐसा बनाना चाहिए जिसमें कोई भी अप्रिय परिस्थिति टकराकर ऐसे लौट जाये जैसे पहाड़ की खाड़ी से समुद्री लहरें।

प्रख्यात जर्मन वैज्ञानिक मूलर ने अपने लम्बे अध्ययन-अनुसंधान के बाद निष्कर्ष निकाला कि वंश परम्परा से कुछ तितलियाँ भिन्न जाति की होती हैं किन्तु वे अपना रंग-रूप और आकार इस तरह बनाती हैं जैसे वह तितलियाँ, स्वाद में कटु होती हैं और दुश्मन जिन्हें खाना तो दूर पास तक नहीं आते । इस तरह वे कमजोर होने पर भी अपना बचाव कर लेती हैं। हमारे जीवन में कैसा ही उतार क्यों न हों, इतिहास से हम उन पुरुषों के जीवनवृत्त ढूँढ़ सकते हैं जिन्होंने हमारी जैसी परिस्थितियों में ही अपने आपको सफलता के द्वार खोज निकाले हों। उनका अनुकरण और अनुशीलन करें तो गई गुजरी स्थिति में भी हम अपने स्वत्व की रक्षा और विकास कर सकते हैं, जो वर्तमान परिस्थिति में हमारे लिए कभी भी संभव न होता।

जीवविज्ञान में ऐसी ही नकल करने की कला है जिसे- ‘द आर्ट ऑफ ...............एडाप्शन’ कहते हैं इसमें ................प्रकृति के लोगों के साथ मिलकर ऐसा संगठन बनाया जाता है, जिससे दुश्मन अपने आप ही पीछा करना छोड़ दे। अध्ययन शास्त्र में उसे तितिक्षा की संज्ञा दी जाती है स्वामी विवेकानन्द जिन दिनों योगाभ्यास कर रहे थे, उनके मन में कई प्रकार की वासनाएँ भी भड़कती रहती थी। कई बार यह गन्दे विचार इतने तीव्र हो उठते थे कि उनका हटाना कठिन हो जाता था। विवेकानन्द हैरान थे, क्या करें कभी उन्हें एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया उन्होंने देखा एक ऐसा कीड़ा है, जो चींटियों को बार बार पकड़ कर ऐसे खा जाता है जैसे वासनाएँ सद्गुणों को खा जाती हैं। दुश्मन से बचने के लिए इन चींटियों ने एक तरकीब निकाली। पास ही कुछ ऐसी मकड़ियाँ रहती थी , जिनका आकार ओर रंग-रूप इन चींटियों के तरह का था। चींटियों ने उनसे मेल मिलाप कर लिया और उनके साथ ही रहने लगी। चींटियों और मकड़ियों के पास-पास आ जाने से उनकी संख्या भी अधिक हो गयी।

लोभी व्यक्ति को जिस प्रकार हित-अनहित का, अच्छे बुरे का विवेक नहीं रहता उसी प्रकार उस कीड़े ने भी चींटियों की बढ़ोत्तरी देखी तो उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने घात लगायी और टप से चींटी के धोखे में एक मकड़ी को पकड़ लिया। उस मकड़ी का स्वाद इतना जहरीला था कि कीड़े को मूर्छा आ गयी। होश आने पर वह इतना डर गया कि फिर उसने दुबारा चींटियों को छेड़ने का साहस नहीं किया। अच्छे की संगत और संगठन में रहने का तब से इन चींटियों ने स्वभाव बना लिया।

डोनाउसक्राइसीपस नामक तितली, ततैये और टिड्डे आदि दुश्मनों से बचने के लिए बहुत चमकीले-भड़कीले लाल, काले, पीले रंग बदलने, दुर्गन्ध छोड़कर अपने आपको क्रोधी और जहरीला दिखाने की क्रिया करते हैं। दुश्मन डरकर भाग जाता है इसी प्रकार मन में उठने वाली बुराइयों को उनके अप्रिय परिणाम दिखाकर डराया और धमकाया जा सकता है। उदाहरण के लिए पढ़ने में मन न लगे तो फेल हो जाने की निराशा का चित्रण, काम न करने पर भूख-प्यास और कपड़े-लत्ते की तंगी का चित्रण, काम-वासना भड़के तो रोग बुढ़ापा और दुर्बलता का चित्रण करके उन्हें डरा देना चाहिए।

हेनरी फोर्ड ने उसी सिद्धान्त के रचनात्मक अभ्यास से औद्योगिक सफलता अर्जित की थी। उन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा है- “व्यापार के प्रारम्भिक दिनों में मुझे बड़ा आलस्य और अनुत्साह रहता, उस समय मैं अच्छे सम्पन्न भविष्य की कल्पना करता। मेरे बंगले होंगे, कारें होंगी, दास-दासियाँ होंगे, सुख के सब साधन होंगे तो कितना अच्छा होगा। इन कल्पनाओं से आलस्य को अन्त हो जाता और मैं फिर दुगुने उत्साह से काम करने लगता । इसी तरह बढ़ते-बढ़ते मैं वर्तमान स्थिति तक पहुँचा।”

जीव-जन्तु अपने बचाव के लिए इस सिद्धान्त का बहुत उपयोग करते हैं, उदाहरण के लिए मोलस्का समुदाय का सीपिया नामक प्राणी अपने शरीर की एक थैली में स्याही जैसा तरल पदार्थ भरकर रखते हैं। अपने इस संचित संस्कार के कारण वे निर्भय विचरण करते रहते हैं। यदि उन्हें सामने से कोई दुश्मन आता दिखाई दिया तो उस थैली का रंगीन तरल पदार्थ काफी दूर तक उड़ेल कर पानी को रंगीन करके स्वयं उसी में छिपकर बैठ जाएँगे। शत्रु शिकार को देख नहीं पाएगा या एक ओर खड़ा ताकता रहेगा, सीपिया अपनी मस्ती से दूसरी ओर से निकल जाएगा। जिन लोगों में ऐसे रचनात्मक स्वभाव होते हैं, वे ही संसार में उच्च सफलताएँ प्राप्त करते हैं जो निराशावादी हर परिस्थिति के फंदे में फँस जाने वाले होते हैं, उन्हें तो छोटे आघात ही मारकर नष्ट कर देते हैं।

तिलचट्टा, कछुआ, साँप, घोंघा, मगर आदि अपनी त्वचा के ऊपर सुरक्षात्मक आवरण रखते हैं और जी चाहे जहाँ विचरण करते हैं। उनका बड़े से बड़ा शत्रु भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता । संसार में मान कि विषम परिस्थितियों के अम्बार लगें हैं, अपने अनुकूल जैसी परिस्थितियाँ होती ही नहीं है। इतने पर भी महापुरुष अपने को इतना मजबूत बना लेते हैं कि चाहे लाभ हो या हानि, सुख हो या दुःख यश मिले या अपयश वे अपने आदर्श सिद्धान्तोँ से उन सबको दबाकर मस्ती और निश्चिन्तता का जीवन जीते हैं। ऐसे जीवनक्रम की गीता में बड़ी प्रशंसा की गयी है। कर्म योगी के लिए साँसारिक गतिविधियों से बचाव के लिए ऐसा ही सुरक्षात्मक आवरण रखना नितान्त आवश्यक होता है।

संसार ऐसा विलक्षण है कि यहाँ बहुत शक्तिशाली और रूप गुणशील भी कई बार बुराइयों की आक्रमण की लपेट में आ जाते हैं। इसीलिए धर्मशास्त्र कहते हैं कि न्याय और आत्मा की आवाज के लिए सबको समान रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। दोनों समाज में रहते हैं दोनों को ही सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन अनिवार्य रूप से करना चाहिए।

शेर जंगल का राजा होता है, बड़ा शक्तिशाली ओर एकान्तवासी। तो भी कुछ मक्खियाँ और कीड़े उसे काटते हैं कि कई बार उसकी जान के ग्राहक ही बन जाते हैं। उत्तरी अमेरिका में एक खूबसूरत रंगीन पक्षी ‘स्कनस्’ पाया जाता है। वह और सूक्ष्मदर्शी चमगादड़ भी अपने दुश्मनों से अपनी आत्मरक्षा के लिए अपने शरीर से एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध निकालकर दुश्मन को भगाते हैं। तात्पर्य यह कि हमें संघर्ष के क्षणों में उन परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए जो हमारी आदत के अनुकूल नहीं हो। इसके लिए ‘साही’ की तरह पहले से ही तैयार रहना चाहिए। इस जन्तु के शरीर पर छोटे-छोटे काँटे होते हैं। साही के शरीर पर जो मजबूत कांटे होते हैं। साधारणतया वे उसके काम नहीं आते किन्तु जब वह क्रोधित होता है तो इन काँटों को फैलाकर बड़े बड़े दुश्मनों की भी छुट्टी कर देता है। नाराजी ओर क्रोध मनुष्य के लिए हितकारक नहीं पर जिस तरह आत्म रक्षा के लिए यह जीव अपने काँटों को तरेर कर दुश्मन को डराकर भगा देते हैं, उसी तरह मनुष्य को भी प्रतिकूल परिस्थितियों में नाराजी ओर क्रोध व्यक्त करना ही चाहिए। उस समय यही हमारे धर्म हो जाते हैं राष्ट्र रक्षा, सामाजिक जीवन में व्याप्त बुरे तत्वों चाहे वे चोर-डकैत हों अथवा दहेज, रिश्वत लेने वाले, उनके प्रति क्रोध और नाराजी के काँटे तरेरने ही चाहिए। यदि प्रजा अपना अस्त्र नहीं सँभालती तो अपराधी तत्व समूचे समाज पर छा जाते हैं और सर्वत्र त्रास देते हैं।

परमाणु अस्त्र विनाशकारी हैं। इसी तरह अन्य शस्त्रास्त्र भी लगता है कि मानवता के हित में नहीं है, पर सशस्त्र दुश्मन से बचाव की आवश्यकता आ पड़े तो प्रकृति यह बताती है कि आत्मरक्षा के लिए वैज्ञानिक अस्त्रों का भी प्रयोग करना धर्म है। टारपीडो ‘ इलेक्ट्रिक रे’ जैसी मछलियों में शरीर में विद्युत उत्पन्न करने की क्षमता होती है। साधारणतया वह ऐसा करती नहीं पर यदि कोई दुश्मन पीछा करे तो ये विद्युत करेंट उत्पन्न कर उन्हें मार भगाती हैं। मनुष्य इन सभी गुणों का सम्मिश्रण है। प्रकृति अपने नन्हे जीवों के द्वारा उसे प्रेरणा देती है कि परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को अपनी प्रत्येक क्षमता का प्रयोग कर मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

अमेरिका में ‘हाग्नोज्ड’ नामक एक सर्प पाया जाता है। वर्जीनिया में ‘ ओपोसम’ नामक कंगारू पाया जाता है। दोनों में परले सिरे की चतुराई होती है। ये जब अपने शिकारी को देखते हैं तो ऐसे निश्चेष्ट हो जाते हैं।मानो मर गये हों। शिकारी इन्हें मृत समझकर मुड़ता है तो ये पीछे से आक्रमण कर देते हैं कई बार हमारे सामने भी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं जब कोई क्षमता काम नहीं देती, उस समय ‘देखि दिनन को फेर रहिमन चुप है बैठिये’ वाली कहावत के अनुसार चुप पड़ जाएँ पर जैसे ही परिस्थिति अनुकूल आये तो फिर क्रियाशील हो जाएँ। आत्मरक्षा, आत्मरक्षा, आत्म विकास ओर सामाजिक संघर्ष हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ है। उसके लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न स्वरूप बनाकर नाटककारिता का परिचय और अभिनय का आनंद लेते हुए जीना चाहिए। ऐसा रंग-बिरंगा जीवन ही सफल और सार्थक होता है।

समर्थता इन सब गुणों के ऊपर है। संसार में सामर्थ्यवान् लोग जीते हैं। वीरभोग्य वसुन्धरा का उद्घोष सबसे पहले हम भारतीयों ने दिया था। शेर, चीता, हाथी, मगर, सुअर ये बलवान जीवन जंगल में सर्वत्र स्वच्छन्द विचरण करते हैं। इन्हें केवल मनुष्य का ही भय रहता है और किसी का नहीं, क्योंकि इन्हीं अपनी सामर्थ्य पर भरोसा होता है। यह अपनी शक्ति से आत्मरक्षा ही नहीं , आक्रमण भी कर सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्य को भी शक्तिशाली होना चाहिए। पाप और दुष्कर्म से बचे रहने के लिए हम भगवान् से तो डरें पर अच्छे उद्देश्य, आदर्श और पार्थिव सुखोपभोग के लिए वर्तमान परिस्थितियों में हमें अपनी आन्तरिक सामर्थ्य को इतना स्वायत्त बनाना चाहिए। कि आवश्यक पड़े तो विरोधियों को बलपूर्वक भी मारा जा सके। जनसंख्या बढ़ाने से नहीं आन्तरिक बदली हुई परिस्थितियों में अपने आपको स्थिर और सम्मानित रख सकते हैं। दुर्बलों के लिए तो संसार में पग पग पर कठिनाइयों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

संसार परिवर्तनशील है। पल-पल पर परिस्थितियाँ बदलती रहती है । उनसे हम प्रभावित भी होते रहते हैं। इसलिए प्रकृति ने हमें वह सारी क्षमताएँ दी है जिनका समय अनुसार उपयोग करके हम सुरक्षित, सफल और समर्थ व्यक्ति और जाति बन सकते हैं। प्रकृति के असंख्य छोटे-छोटे जीव हमें इसी बात की प्रेरणा देते हैं।

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