
ससीम मनुष्य व असीम यह ब्राह्मी-चेतना
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गंगा यों उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है, पर उसके बीच-बीच में कई स्थानों पर ऐसे मोड़-मरोड़ हैं, जिनमें वह दिशा लगभग उलट-सी जाती है। उत्तरकाशी में कई मील तक गंगा दक्षिण से उत्तर की ओर बहने लगी है। यही क्रम वाराणसी में दुहराया गया है। हवा में चक्रवात और पानी में भँवर भी सामान्य प्रवाह में व्यतिक्रम ही उत्पन्न करते हैं। यद्यपि होते वे भी किसी प्रकृति नियम के अंतर्गत ही हैं। भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट आदि की घटनाएँ आकस्मिक-अप्रत्याशित होती हैं, आश्चर्यजनक लगती हैं फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वे प्रकृति नियमों के अंतर्गत नहीं हैं। यह बात दूसरी है कि उनके कारण एवं रहस्य मनुष्य की पकड़ में कभी न आये हों।
सामान्य व्यवस्था से भिन्न प्रकार के आश्चर्य जब दृष्टिगोचर हों तो यह नहीं समझा जाना चाहिए कि प्रकृतिक्रम अनगढ़ है और कुछ भी उलटा-पुलटा होता रहता है। नियति के सुनियोजित व्यवस्था−क्रम में इस प्रकार के व्यतिरेक की सम्भावना कहीं भी नहीं है।
प्रकृति के अनुसंधान क्रम में यह तथ्य भी ध्यान रखने योग्य है कि घटनाओं और सम्भावनाओं में ऐसे मोड़ भी विद्यमान है, जो सर्वदा नहीं, यदा-कदा ही दृष्टिगोचर होते हैं। सामान्यतया इन्हें देखकर कौतूहल का आनन्द लेने की बात ही बन पड़ती है, किन्तु विज्ञजनों के सामने यह चुनौती आती है कि वे प्रवाहक्रम को ही अकाट्य न मानें, वरन् प्रकृति के अन्तराल में चलते रहने वाले चित्र-विचित्र मोड़-मरोड़ों की संभावना भी ध्यान में रखें और उनके कारणों को खोज निकालने एवं रहस्यों का उद्घाटनों करने हेतु और अधिक दत्तचित्त हों।
टाइम पत्रिका के 24 अप्रैल, 1984 के अंक में एक घटना प्रकाशित हुई थी। डकोटा प्रान्त (अमेरिका) के रिचर्डसन नगर में एक महिला अध्यापिका पाल्मिन रैबेल आठवीं कक्षा के छात्रों को पढ़ा रही थी कि यकायक उस कमरे को गर्म करने के लिए रखी अँगीठी के कोयले स्वयं प्रज्ज्वलित होने लगे। फिर थोड़ी देर में उछल-उछल कर दीवारों से जा टकराने लगे। कुछ छात्रों को भी लगे। इसके बाद अँगीठी स्वतः दूसरी जगह पहुँच गई। यह वह स्थान था, जहाँ छात्रों की पुस्तकों का एक बड़ा बण्डल रखा हुआ था । आग के संपर्क में आकर गट्ठर जलने लगा। रैवेल व अन्य बच्चे तमाशा देख ही रहे थे कि एक बच्चे की सूचना पर फायर ब्रिगेड आ पहुँची । अग्नि उससे भी शान्त न हुई । कुछ समय बाद वह स्वतः ही शान्त हो गई। वैज्ञानिकों ने इस विचित्र अग्निकाँड की अनेक प्रकार से जाँच की, लेकिन कोई कारण वे खोज नहीं पाये।
आयरलैण्ड के एण्ट्रिल प्रदेश में एक बड़ी झील है-’लौधारिना’। साधारणतया वह पानी से लबालब भरी होती है, किन्तु कभी कभी एक विचित्र आश्चर्य होता है कि झील का पानी पूरी तरह अदृश्य हो जाता है, मात्र कीचड़ ही उसके स्मृति-चिन्ह के रूप में शेष रह जाती है, इतना पानी इतनी जल्दी कहाँ जाता है, इसकी खोज मुद्दतों से चल रही है, किन्तु अभी तक किसी निष्कर्ष पर पहुँचना संभव नहीं हो पाया है।
घटना ऑक्सफोर्डशायर की है। इस क्षेत्र में जमीन के नीचे एक बड़ी नाली बनायी जा रही थी। इस निमित्त एक विशेष स्थान के लिए 6 टन भारी चट्टान की आवश्यकता हुई। उसे लाया गया और काट-छाँट कर काम योग्य बनाया गया, लेकिन एक दिन अकस्मात ही वह विशाल शिला गायब हो गई। कई दिनों तक ढूंढ़ने और जासूसों का सहारा लेने के उपरान्त भी जब कुछ पता न चला, तो उसके लिए 5 हजार पौण्ड का सरकारी इनाम घोषित किया गया, फिर भी उसकी कोई जानकारी न मिल सकी। इतना विशाल और वजनी शिलाखण्ड कहाँ और कैसे गायब हो गया। इसका कोई कारण नहीं जाना जा सका।
मार्च 1939 में अंगोला में भीषण अकाल पड़ा। मनुष्य, जन्तु और पक्षियों में से अधिकाँश या तो मारे गये या अन्यत्र चले गये। वहाँ एक आदिम जाति ‘सीलिज’ रहती है। उन्हें निराहार रहकर भी जीवित रहने की अद्भुत कला ज्ञात है। कई-कई दिनों तक याद भोजन न मिले, तो भी उस प्रतिकूलता को वे आसानी से काट लेते हैं। दो सप्ताह बीत गये। वे किसी प्रकार जल आदि पीकर जीवित बने रहे। तभी एक दिन झाड़ियों के मध्य आधे एकड़ क्षेत्र में मधु जैसा गाढ़ा और कुछ मीठा पदार्थ जमा होने लगा। इसे सभी लोगों ने थोड़ी थोड़ी मात्रा में खाकर वह विषम परिस्थिति गुजारी । आश्चर्य तो यह कि प्रतिदिन लोग इसे खा जाते, किन्तु दूसरे दिन फिर उतना ही वह इकट्ठा हो जाता। यह क्या था, कहाँ से और कैसे आया? इस बारे में जाँचकर्ता कुछ भी नहीं बता सके।
एक घटना अमेरिका अंतरिक्ष यान से संबंधित है। सन् 1960 में उसका 300 पौंड वजन का ‘डिस्कवर’ यान धरती पर उतरा, तब उसका वजन मात्र 125 पौंड था। इसके बाद प्रतिदिन उसका भार घटता ही गया और अपने मूल वजन से काफी कम पर जाकर स्थिर हुआ। वैज्ञानिक चकित थे कि अन्तरिक्ष में और धरती पर उसका भार इतना अधिक घट गया।
प्रकृति की यह सभी चित्र-विचित्र गतिविधियाँ यह रहस्योद्घाटन करती हैं कि शोध-अनुसंधानों की परिधि बड़ी व्यापक है। हमें अपने और आस-पास के कुछ तथ्यों को देख -समझ कर यह नहीं मान लेना चाहिए कि विज्ञान प्रदत्त दृष्टि ने हमें सब कुछ बता दिया है। ईश्वर की लीला विचित्र है । मनुष्य का क्षेत्र सीमित है। फिर भी कुछ तथ्यों को देख-समझ कर यह नहीं मान लेना चाहिए कि विज्ञान प्रदत्त दृष्टि ने हमें सब कुछ बता दिया है। ईश्वर की लीला विचित्र है। मनुष्य का क्षेत्र सीमित है। फिर भी उद्देश्य यही होना चाहिए कि कारण जानने के प्रयास चलते रहें, ताकि सातवीं पुरुषार्थ सीमाबद्ध होकर न रह जाय।