
अपनों से अपनी बात - संस्कार महोत्सवों के माध्यम से युग-परिवर्तन का शंखनाद
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हमारा देश विविधताओं से भरा बड़ा ही विलक्षण ऐसा राष्ट्र है, जिसकी साँस्कृतिक धरोहर सहस्रों वर्षों से न केवल अक्षुण्ण है वरन् अनगिनत भाषाओं, सम्प्रदायों, प्रचलनों, रीति-रिवाजों के बावजूद अपना वैशिष्ट्य भी बनाए हुए है, इसके मूल में जाते हैं तो एक ही तथ्य समझ में आता है कि यहाँ की धरती में ऋषिगणों ने जो संस्कारों के बीज डाले हैं उनके कारण ही अध्यात्म प्रधान इस राष्ट्र में जीवन्त प्राण ऊर्जा कण-कण में समाहित है। वैदिक काल के पूर्व से अब तक सारी सृष्टि का जो विकास-क्रम कहा है, उसकी केन्द्रीय धुरी भारतीय संस्कृति ही है, यह डंके की चोट पर कहा जा सकता है।
उपरोक्त पंक्तियाँ इस परिप्रेक्ष्य में लिखी जा रही हैं कि संधिकाल की इस वेला में जब हम पल-पल, धीरे-धीरे युग परिवर्तन की प्रक्रिया में आगे बढ़ते जा रहे हैं, इन संस्कारों को बड़े व्यापक स्तर पर न केवल भारत अपितु पूरे विश्व में पुनर्जागृत किये जाने की आवश्यकता अब अनुभव की जा रही है। यह कार्य गायत्री परिवार ही अपनी गुरुसत्ता प्रदत्त मार्गदर्शन के माध्यम से कर सकता है, इसमें किसी को संदेह नहीं करना चाहिए। सारे भारत व विश्व में सत्ताईस विराट आश्वमेधिक आयोजन एवं श्रद्धाँजलि समारोह (1990) से लेकर विराट प्रथम पूर्णाहुति कार्यक्रम(1995) तक संपन्न कर दिखाने वाले समाज के नवोन्मेष को संकल्पित अखिल विश्व गायत्री परिवार की कार्यक्षमता पर अब सबको विश्वास हो चुका है। प्रयाज व अनुयाज में संपन्न राष्ट्र निर्माण के सशक्त कार्यक्रम तथा पुनर्गठन वर्ष में ग्रामे-ग्रामे यज्ञ, गृहें-गृहें उपासना के उपक्रम में पंचकुण्डीय यज्ञायोजन एवं क्षेत्रीय प्रशिक्षण योजना ने एक विराट सेना समयदानी कार्यकर्त्ताओं की खड़ी कर दी है। भूमि उर्वर है, ऋषि संस्कृति का खाद-पानी डला हुआ है, मात्र संस्कारों के बीज डालने की आवश्यकता भर शेष है।
इसी परिस्थिति को दृष्टिगत रख अनुयाज-पुनर्गठन वर्ष की इस समापन वेला में शाँतिकुँज की ऋषि चेतना ने सूक्ष्म जगत से यह संदेश भेजा है कि इस कार्तिक पूर्णिमा के उपरान्त पहले इस विराट भारत के उन स्थानों पर विराट आश्वमेधिक प्रयोगात्मक स्तर के संस्कार महोत्सव संपन्न किये जाएँ, जहाँ अभी तक मिशन का प्रकाश उतनी सघनता से नहीं पहुँच पाया है। इनमें पूर्वोत्तर के पश्चिम बंगाल के भद्रकाली(हुगली), कलकत्ता, आसाम के तिनसुकिया, महाराष्ट्र में बम्बई व थाणे, आँध्र प्रदेश के चिराला (विजयवाड़ा) एवं हैदराबाद, चैन्नई
(अब मद्रास-तमिलनाडु) तथा बैंगलोर जैसे क्षेत्र चुने गए हैं। बाद में ये आयोजन पूरे भारत में संपन्न होते रहेंगे। संस्कार प्रधान इन आयोजनों में षोडश संस्कार के अंतर्गत दस विशिष्ट संस्कार, जन्मदिवस एवं विवाह दिवस तथा दो विशिष्ट संकल्प-सुसंस्कारिता को जीवन में उतारने के एवं राष्ट्रीय अखण्डता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु-इस प्रकार चौदह संस्कार सम्पन्न कराए जाएँगे। कुण्डों की संख्या एक सौ आठ एवं आवश्यकतानुसार दो सौ इक्यावन (अधिकतम) तक हो सकती है।
संस्कारों को सम्पन्न कराने हेतु जन-जागरण अभियान प्रयाजक्रम में छोड़ा जाएगा। सभी सम्प्रदाय, मत, जाति, लिंग के व्यक्ति इसमें सम्मिलित हो विराट देव-संस्कृति के एक अंग बनें, यह प्रयास रहेगा। साथ ही एक विराट प्रदर्शनी सभी स्थानों पर लगाई जाएगी, जिसमें मल्टीमीडिया के माध्यम से संस्कारों को विज्ञानसम्मत रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। न केवल संस्कार अपितु भारतीय संस्कृति, अध्यात्म के बहुआयामीय स्वरूप को दृश्य-श्रव्य साधनों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाएगा। इसके अतिरिक्त ऋषि परम्परा, गुरुसत्ता का जीवन-दर्शन देवात्मा हिमालय से लेकर पर्यावरण संरक्षण एवं अन्यान्य रचनात्मक पक्षों पर भी आधुनिकतम प्रदर्शनी होगी। साथ-साथ विचार मंच पर विभिन्न विद्वानों द्वारा सेमिनार वर्कशाप भी चलती रहेंगी। इस पूरे आयोजन का मूल रूप ज्ञान यज्ञ का ही रहेगा।
अगले वर्ष विदेश में ऐसे ही विराट आयोजन न्यूजर्सी (यू0एस0ए0) में 11 से 14 जुलाई, 1997 एवं लंदन (यू0के0) में 22 से 25 अगस्त, 1997 की तारीखों में आयोजित किये गये हैं, जिनकी तैयारी विगत रक्षाबंधन से ही आरम्भ हो चुकी है। विश्वास किया जाना चाहिए कि देश-परदेश की भूमि पर सम्पन्न होने जा रहें इन संस्कार महोत्सवों, जो विशुद्धतः आश्वमेधिक प्रयोगों के युगानुकूल 6 परिवर्धित संस्करण हैं, के माध्यम से गुरुसत्ता के स्वप्नों को पूरा करने एवं देव संस्कृति को विश्वसंस्कृति का रूप देने की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण ठोस कार्य सम्पन्न हो सकेगा।