हमारी वसीयत और विरासत (भाग 57)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण

सतयुग के प्रायः सभी ऋषि सूक्ष्मशरीरों से उसी दुर्गम हिमालय-क्षेत्र में निवास करते आए हैं, जहाँ हमारा प्रथम साक्षात्कार हुआ था। स्थान नियत करने की दृष्टि से सभी ने अपने-अपने लिए एक-एक गुफा निर्धारित कर ली है। वैसे शरीरचर्या के लिए उन्हें स्थान नियत करने या साधन-सामग्री जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तो भी अपने-अपने निर्धारित क्रियाकलाप पूरे करने तथा आवश्यकतानुसार परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए सभी ने एक-एक स्थान नियत कर लिए हैं।
पहली यात्रा में हम उन्हें प्रणाम भर कर पाए थे। अब दूसरी यात्रा में गुरुदेव हमें एक-एक करके उनसे अलग-अलग भेंट कराने ले गए। परोक्ष रूप में आशीर्वाद मिला था। अब उनका संदेश सुनने की बारी थी। दीखने को वे हलके से प्रकाश-पुंज की तरह दीखते थे। पर जब अपना सूक्ष्मशरीर सही हो गया, तो उन ऋषियों का सतयुग वाला शरीर भी यथावत् दीखने लगा। ऋषियों के शरीर की जैसी संसारी लोग कल्पना किया करते हैं, वे लगभग वैसे ही थे। शिष्टाचार पाला गया। उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया। उन्होंने हाथ का स्पर्श जैसा सिर पर रखा और उतने भर से ही रोमांच हो उठा। आनंद और उल्लास की उमंगें फूटने लगीं।
बात काम की चली। हर एक ने परावाणी में कहा कि हम स्थूलशरीर से जो गतिविधियाँ चलाते थे, वे अब पूरी तरह समाप्त हो गई हैं। फूटे हुए खंडहरों के अवशेष हैं। जब हम लोग दिव्यदृष्टि से उन क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति को देखते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक का पूरा क्षेत्र ऋषिक्षेत्र था। उस एकांत में मात्र तपश्चर्या की विधा पूरी होती थी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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