हमारी वसीयत और विरासत (भाग 58)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
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उत्तरकाशी में जैसा जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक था, जहाँ-तहाँ वैसे अनेकों ऋषि आश्रम संव्याप्त थे। शेष ऋषि अपने-अपने हिस्से की शोध-तपश्चर्याएँ करने में संलग्न रहते थे। देवताओं के स्थान वहाँ थे, जहाँ आजकल हम लोग अब रहते हैं। हिमयुग के उपरांत न केवल स्थान ही बदल गए, वरन् गतिविधियाँ बदलीं तो क्या, पूरी तरह समाप्त ही हो गईं; उनके चिह्न भर शेष रह गए हैं।
उत्तराखंड में जहाँ-तहाँ देवी-देवताओं के मंदिर तो बन गए हैं, ताकि उन पर धनराशि चढ़ती रहे और पुजारियों का गुजारा होता चले। पर इस बात को न कोई पूछने वाला है, न बताने वाला कि ऋषि कौन थे? कहाँ थे? क्या करते थे? उसका कोई चिह्न भी अब बाकी नहीं रहा। हम लोगों की दृष्टि में ऋषिपरंपरा की तो अब एक प्रकार से प्रलय ही हो गई।
लगभग यही बात उन बीसियों ऋषियों की ओर से कही गई, जिनसे हमारी भेंट कराई गई। विदाई देते समय सभी आँखें डबडबाई-सी दीखीं। लगा कि सभी व्यथित हैं; सभी का मन उदास और भारी है। पर हम क्या कहते? इतने ऋषि मिलकर जितना भार उठाते थे, उसे उठाने की अपनी सामर्थ्य भी तो नहीं है। उन सबका मन भारी देखकर अपना चित्त भी द्रवित हो गया। सोचते रहे। भगवान ने किसी लायक हमें बनाया होता, तो इन देवपुरुषों को इतना व्यथित देखते हुए चुप्पी साधकर ऐसे ही वापस न लौट जाते। स्तब्धता अपने ऊपर भी छा गई और आँखें डबडबाने लगीं— प्रवाहित होने लगीं। इतने समर्थ ऋषि— इतने असहाय— इतने दुःखी, यह उनकी वेदना हमें बिच्छू के डंक की तरह पीड़ा देने लगी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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