हमारी वसीयत और विरासत (भाग 59)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
गुरुदेव की आत्मा और हमारी आत्मा साथ-साथ चल रही थी। दोनों एकदूसरे को देख रहे थे। साथ में उनके चेहरे पर भी उदासी छाई हुई थी। हे भगवान! कैसा विषम समय आया कि किसी ऋषि का कोई उत्तराधिकारी नहीं उपजा। सबका वंशनाश हो गया। ऋषिप्रवृत्तियों में से एक भी सजीव नहीं दीखती। करोड़ों की संख्या में ब्राह्मण हैं और लाखों की संख्या में संत, पर उनमें से दस-बीस भी जीवित रहे होते, तो गांधी और बुद्ध की तरह गजब दिखाकर रख देते। पर अब क्या हो? कौन करें? किस बलबूते पर करें?
राजकुमारी की आँखों से आँसू टपकने पर और इतना कहने पर कि, ‘‘को वेदान् उद्धरस्यसि?’’ अर्थात— ‘‘वेदों का उद्धार कौन करेगा?’’ इसके उत्तर में कुमारिल भट्ट ने कहा था कि, ‘‘अभी एक कुमारिल भूतल पर है। इस प्रकार विलाप न करो।’’ तब एक कुमारिल भट्ट जीवित था। उसने जो कहा था, सो कर दिखाया। पर आज तो कोई कहीं न ब्राह्मण हैं, न संत। ऋषियों की बात तो बहुत आगे की है। आज तो छद्म वेशधारी ही चित्र-विचित्र रूप बनाए रँगे सियारों की तरह पूरे वनप्रदेश में हुआँ- हुआँ करते फिर रहे हैं।
दूसरे दिन लौटने पर हमारे मन में इस प्रकार के विचार दिन भर उठते रहे। जिस गुफा में निवास था, दिन भर यही चिंतन चलता रहा। लेकिन गुरुदेव उन्हें पूरी तरह पढ़ रहे थे। मेरी कसक उन्हें भी दुःख दे रही थी।
उनने कहा— ‘‘फिर ऐसा करो! अब की बार उन सबसे मिलने फिर से चलते हैं। कहना— आप लोग कहें, तो उसका बीजारोपण तो मैं कर सकता हूँ। खाद-पानी आप देंगे, तो फसल उग पड़ेगी; अन्यथा प्रयास करने से अपना मन तो हलका होगा ही।’’
‘‘साथ में यह भी पूछना कि शुभारंभ किस प्रकार किया जाए, इसकी रूपरेखा बतावें। मैं कुछ-न-कुछ अवश्य करूँगा। आप लोगों का अनुग्रह बरसेगा, तो इस सूखे श्मशान में हरीतिमा उगेगी।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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