हमारी वसीयत और विरासत (भाग 61)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
चर्चा एक से चल रही थी, पर निमंत्रण पहुँचते एक क्षण लगा और वे सभी एक-एक करके एकत्रित हो गए। निराशा गई; आशा बँधी और आगे का कार्यक्रम बना कि जो हम सब करते रहे हैं, उसका बीज एक खेत में बोया जाए और पौधशाला में एक पौध तैयार की जाए। उसके पौधे सर्वत्र लगेंगे और उद्यान लहलहाने लगेगा।
यह शान्तिकुञ्ज बनाने की योजना थी, जो हमें मथुरा के निर्धारित निवास के बाद पूरी करनी थी। गायत्री नगर बसने और ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का ढाँचा खड़ा किए जाने की योजना भी विस्तार से समझाई गई। पूरे ध्यान से उसका एक-एक अक्षर हृदयपटल पर लिख लिया और निश्चय किया कि 24 लक्ष्य का पुरश्चरण पूरा होते ही इस कार्यक्रम की रूपरेखा बनेगी और चलेगी। निश्चय ही— अवश्य ही। और जिसे गुरुदेव का संरक्षण प्राप्त हो, वह असफल रहे, ऐसा हो ही नहीं सकता।
एक दिन और रुका। उसमें गुरुदेव ने पुरश्चरण की पूर्णाहुति का स्वरूप विस्तार से समझाया एवं कहा कि, ‘‘पिछले वर्षों की स्थिति और घटनाक्रम को हम बारीकी से देखते रहे हैं और उसमें जहाँ कुछ अनुपयुक्त जँचा है, उसे ठीक करते रहे हैं। अब आगे क्या करना है, उसी का स्वरूप समझाने के लिए इस बार बुलाया गया है। पुरश्चरण पूरा होने में अब बहुत समय नहीं रहा है। जो रहा है, उसे मथुरा जाकर पूरा करना चाहिए। अब तुम्हारे जीवन का दूसरा चरण मथुरा से आरंभ होगा।”
“प्रयाग के बाद मथुरा ही देश का मध्यकेंद्र है। आवागमन की दृष्टि से वही सुविधाजनक भी है। स्वराज्य हो जाने के बाद तुम्हारा राजनैतिक उत्तरदायित्व तो पूरा हो जाएगा, पर वह कार्य अभी पूरा नहीं होगा। राजनैतिक क्रांति तो होगी; आर्थिक क्रांति तथा उससे संबंधित कार्य भी सरकार करेगी, किंतु इसके बाद तीन क्रांतियाँ और शेष हैं, जिन्हें धर्मतंत्र के माध्यम से ही पूरा किया जाना है। उनके बिना पूर्णता न हो सकेगी। देश इसलिए पराधीन या जर्जर नहीं हुआ था कि यहाँ शूरवीर नहीं थे; आक्रमणकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे। भीतरी दुर्बलताओं ने पतन-पराभव के गर्त्त में धकेला। दूसरों ने तो उस दुर्बलता का लाभ भर उठाया।”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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