हमारी वसीयत और विरासत (भाग 63): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
जो आदेश हो रहा है, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी जाएगी। यह मैंने प्रथम मिलन की तरह उन्हें आश्वासन दे दिया। पर एक ही संदेह रहा कि इतने विशालकाय कार्य के लिए जो धनशक्ति और जनशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी?
मन को पढ़ रहे गुरुदेव हँस पड़े। ‘‘इन साधनों के लिए चिंता की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, उसे बोना आरंभ करो। इसकी फसल सौ गुनी होकर पक जाएगी और जो काम सौंपे गए हैं, उन सभी के पूरा हो जाने का सुयोग बन जाएगा।’’ क्या हमारे पास है; उसे कैसे, कहाँ बोया जाना है और उसकी फसल कब, किस प्रकार पकेगी? यह जानकारी भी उनने दी।
जो उन्होंने कहा, उसकी हर बात गाँठ बाँध ली। भूलने का तो प्रश्न ही नहीं था। भूला तब जाता है, जब उपेक्षा होती है। सेनापति का आदेश सैनिक कहाँ भूलता है? हमारे लिए भी अवज्ञा एवं उपेक्षा करने का कोई प्रश्न नहीं।
वार्त्ता समाप्त हो गई। इस बार छह महीने ही हिमालय रुकने का आदेश हुआ। जहाँ रुकना था, वहाँ की सारी व्यवस्था बना दी गई थी।
गुरुदेव के वीरभद्र ने हमें गोमुख पहुँचा दिया। वहाँ से हम निर्देशित स्थान पर जा पहुँचे और छह महीने पूरे कर लिए। लौटकर घर आए थे, तो स्वास्थ्य पहले से भी अच्छा था। प्रसन्नता और गंभीरता बढ़ गई थी, जो प्रतिभा के रूप में चेहरे के इर्द-गिर्द छाई हुई थी। लौटने पर जिनने भी देखा, उन सभी ने कहा—‘‘लगता है, हिमालय में कहीं बड़ी सुख-सुविधा का स्थान है। तुम वहीं जाते हो और स्वास्थ्य-संवर्द्धन करके लौटते हो।’’ हमने हँसने के अतिरिक्त और कोई भी उत्तर नहीं दिया।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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