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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 24)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
मनोरंजन के लिए एक पन्ना भी कभी नहीं पढ़ा है। अपने विषयों में मानो प्रवीणता की उपाधि प्राप्त करनी हो, ऐसी तन्मयता से पढ़ा है। इसलिए पढ़े हुए विषय मस्तिष्क में एकीभूत हो गए। जब भी कोई लेख लिखते थे या पूर्व में वार्त्तालाप में किसी गंभीर विषय पर चर्चा करते थे, तो पढ़े हुए विषय अनायास ही स्मरण हो आते थे। लोग पीठ पीछे कहते हैं— ‘‘यह तो चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया है।’’ अखण्ड ज्योति पत्रिका के लेख पढ़ने वाले उसमें इतने संदर्भ पाते हैं कि लोग आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं और सोचते हैं कि एक लेख के लिए न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके लिखा गया है। यही बात युगनिर्माण योजना, युगशक्ति पत्रिका के बारे में है। पर सच बात इतनी ही है कि हमने जो भी...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 23)
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
स्वतंत्रता-संग्राम की कई बार जेलयात्रा— 24 महापुरश्चरणों का व्रत धारण— इसके साथ ही मेहतरानी की सेवा-साधना, यह तीन परीक्षाएँ मुझे छोटी उम्र में ही पास करनी पड़ीं। आंतरिक दुर्बलताएँ और संबद्ध परिजनों के दुहरे मोर्चे पर एक साथ लड़ा। उस आत्मविजय का ही परिणाम है कि आत्मबल-संग्रह में अधिक लाभ से लाभान्वित होने का अवसर मिला। उन घटनाक्रमों से हमारा आपा बलिष्ठ होता चला गया एवं वे सभी कार्यक्रम हमारे द्वारा बखूबी निभते चले गए, जिनका हमें संकल्प दिलाया गया था।
महापुरश्चरणों की शृंखला नियमित रूप से चलती रही। जिस दिन गुरुदेव के आदेश से उस साधना का शुभारंभ किया था, उसी दिन घृतदीप की अखण्ड ज्योति भी स्थापित की। उसकी जिम्मेदारी हमारी धर्मपत्नी ने सँभाली, जिन्हें हम भ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 22)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस संदर्भ में प्रह्लाद का फिल्म-चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अंत न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरंभ के उपरांत महामानवों की— वीर बलिदानियों की— संत-सुधारक और शहीदों की अगणित कथागाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवारवालों ने— मित्र-संबंधियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्त्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक-लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इर्द-गिर्द ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 21)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
अपना मुँह एक— सामने वाले के सौ। किस-किस को, कहाँ तक जवाब दिया जाए? अंत में हारकर गांधी जी के तीन गुरुओं में से एक को अपना भी गुरु बना लिया। मौन रहने से राहत मिली। ‘भगवान की प्रेरणा’ कह देने से थोड़ा काम चल पाता; क्योंकि उसे काटने के लिए उन सबके पास बहुत पैने तर्क नहीं थे। नास्तिकवाद तक उतर आने या अंतःप्रेरणा का खंडन करने लायक तर्क उनमें से किसी ने भी नहीं सीखे-समझे थे। इसलिए बात ठंडी पड़ गई। मैंने अपना संकल्पित व्रत इस प्रकार चालू कर दिया, मानो किसी को जवाब देना ही नहीं था; किसी का परामर्श लेना ही नहीं था। अब सोचता हूँ कि उतनी दृढ़ता न अपनाई गई होती, तो नाव दो-चार झकझोरे खाने के उपरांत ही डूब जाती। जिस साधनाबल के सहारे आज अपना और दूसरों का कुछ भला बन ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 20)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता द्वारा तीन कार्यक्रम दिए गए थे। सभी नियमोपनियमों के साथ 24 वर्ष का 24 गायत्री महापुरश्चरण संपन्न किया जाना था। अखंड घृतदीपक को भी साथ-साथ निभाना था। अपनी पात्रता में क्रमशः कमी पूरी करने के साथ लोक-मंगल की भूमिका निभाने हेतु साहित्य-सृजन करना दूसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था। इसके लिए गहन स्वाध्याय भी करना था, जो एकाग्रता संपादन की साधना थी; साथ ही जनसंपर्क का भी कार्य करना था, ताकि भावी कार्यक्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमारी संगठन क्षमता विकसित हो। तीसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था— स्वतंत्रता-संग्राम में एक स्वयंसेवी सैनिक की भूमिका निभाना। देखा जाए, तो सभी दायित्व शैली एवं स्वरूप की दृष्टि से परस्पर विरोधी ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 19 ) मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:
“पूर्वकाल में ऋषिगण गोमुख से ऋषिकेश तक अपनी-अपनी रुचि और सुविधाओं के अनुसार रहते थे। वह क्षेत्र अब पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और व्यवसायियों से भर गया है। इसलिए उसे उन्हीं लोगों के लिए छोड़ दिया गया है। अनेक देव मंदिर बन गए हैं, ताकि यात्रियों का कौतूहल, पुरातनकाल का इतिहास और निवासियों का निर्वाह चलता रहे।’’
हमें बताया गया कि थियोसोफी की संस्थापिका ‘ब्लैवेट्स्की’ सिद्धपुरुष थीं। ऐसी मान्यता है कि वे स्थूलशरीर में रहते हुए भी सूक्ष्मशरीरधारियों के संपर्क में थीं। उनने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि दुर्गम हिमालय में ‘अदृश्य सिद्धपुरुषों की पार्लियामेंट’ है। इसी प्रकार उस क्षेत्र के दिव्य निवासियों को ‘अदृश्य सहायक’ भी कहा गया है। गुरुदेव ने कहा कि...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 18)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
‘‘जब तक तुम्हारे स्थूलशरीर की उपयोगिता रहेगी, तभी तक वह काम करेगा। इसके उपरांत इसे छोड़कर सूक्ष्मशरीर में चला जाना होगा। तब साधनाएँ भिन्न होंगी; क्षमताएँ बढ़ी-चढ़ी होंगी। विशिष्ट व्यक्तियों से संपर्क रहेगा। बड़े काम इसी प्रकार हो सकेंगे।’’
गुरुदेव ने कहा— ‘‘उचित समय आने पर तुम्हारा परिचय देवात्मा हिमालय-क्षेत्र से कराना है। गोमुख से पहले संत-महापुरुष स्थूलशरीर समेत निवास करते हैं। इस क्षेत्र में भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ हैं। इनके बीच निर्वाह करने का अभ्यास करने के लिए, एक-एक साल वहाँ निवास करने का क्रम बना देने की योजनाएँ बनाई हैं। इसके अतिरिक्त हिमालय का हृदय जिसे ‘अध्यात्म का ध्रुवकेंद्र’ कहते हैं, उसमें चार-चार दिन ठहरना होगा। हम साथ रहेंगे। स...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 17)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
“सहज शीत, ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ मिल जाती हैं; शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता, किंतु हिमालय-क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है; साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है, जिसमें नितांत एकाकी रहना पड़ता है; पत्तियों और कंदों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंस्र जीव-जंतुओं के बीच रहते हुए अपने प्राण बचाना पड़ता है।”
“जब तक स्थूलशरीर है, तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्मशरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, जो स्थूलशरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सरदी-गरमी से बचाव, क्षुधा-पिपासा ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग16)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से ल...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग16)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से ल...