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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 20)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता द्वारा तीन कार्यक्रम दिए गए थे। सभी नियमोपनियमों के साथ 24 वर्ष का 24 गायत्री महापुरश्चरण संपन्न किया जाना था। अखंड घृतदीपक को भी साथ-साथ निभाना था। अपनी पात्रता में क्रमशः कमी पूरी करने के साथ लोक-मंगल की भूमिका निभाने हेतु साहित्य-सृजन करना दूसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था। इसके लिए गहन स्वाध्याय भी करना था, जो एकाग्रता संपादन की साधना थी; साथ ही जनसंपर्क का भी कार्य करना था, ताकि भावी कार्यक्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमारी संगठन क्षमता विकसित हो। तीसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था— स्वतंत्रता-संग्राम में एक स्वयंसेवी सैनिक की भूमिका निभाना। देखा जाए, तो सभी दायित्व शैली एवं स्वरूप की दृष्टि से परस्पर विरोधी ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 19 ) मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:
“पूर्वकाल में ऋषिगण गोमुख से ऋषिकेश तक अपनी-अपनी रुचि और सुविधाओं के अनुसार रहते थे। वह क्षेत्र अब पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और व्यवसायियों से भर गया है। इसलिए उसे उन्हीं लोगों के लिए छोड़ दिया गया है। अनेक देव मंदिर बन गए हैं, ताकि यात्रियों का कौतूहल, पुरातनकाल का इतिहास और निवासियों का निर्वाह चलता रहे।’’
हमें बताया गया कि थियोसोफी की संस्थापिका ‘ब्लैवेट्स्की’ सिद्धपुरुष थीं। ऐसी मान्यता है कि वे स्थूलशरीर में रहते हुए भी सूक्ष्मशरीरधारियों के संपर्क में थीं। उनने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि दुर्गम हिमालय में ‘अदृश्य सिद्धपुरुषों की पार्लियामेंट’ है। इसी प्रकार उस क्षेत्र के दिव्य निवासियों को ‘अदृश्य सहायक’ भी कहा गया है। गुरुदेव ने कहा कि...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 18)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
‘‘जब तक तुम्हारे स्थूलशरीर की उपयोगिता रहेगी, तभी तक वह काम करेगा। इसके उपरांत इसे छोड़कर सूक्ष्मशरीर में चला जाना होगा। तब साधनाएँ भिन्न होंगी; क्षमताएँ बढ़ी-चढ़ी होंगी। विशिष्ट व्यक्तियों से संपर्क रहेगा। बड़े काम इसी प्रकार हो सकेंगे।’’
गुरुदेव ने कहा— ‘‘उचित समय आने पर तुम्हारा परिचय देवात्मा हिमालय-क्षेत्र से कराना है। गोमुख से पहले संत-महापुरुष स्थूलशरीर समेत निवास करते हैं। इस क्षेत्र में भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ हैं। इनके बीच निर्वाह करने का अभ्यास करने के लिए, एक-एक साल वहाँ निवास करने का क्रम बना देने की योजनाएँ बनाई हैं। इसके अतिरिक्त हिमालय का हृदय जिसे ‘अध्यात्म का ध्रुवकेंद्र’ कहते हैं, उसमें चार-चार दिन ठहरना होगा। हम साथ रहेंगे। स...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 17)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
“सहज शीत, ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ मिल जाती हैं; शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता, किंतु हिमालय-क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है; साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है, जिसमें नितांत एकाकी रहना पड़ता है; पत्तियों और कंदों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंस्र जीव-जंतुओं के बीच रहते हुए अपने प्राण बचाना पड़ता है।”
“जब तक स्थूलशरीर है, तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्मशरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, जो स्थूलशरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सरदी-गरमी से बचाव, क्षुधा-पिपासा ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग16)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से ल...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग16)— मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से ल...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 15)— पिछले तीन जन्मों की एक झाँकी:
पिछले तीन जन्मों की एक झाँकी:—
पिछले जिन तीन जन्मों का दृश्य गुरुदेव ने हमें दिखाया, उनमें से प्रथम थे संत कबीर, दूसरे समर्थ रामदास, तीसरे रामकृष्ण परमहंस। इन तीनों का कार्यकाल इस प्रकार रहा है— कबीर ई. (सन् 1398 से 1518), समर्थ (सन् 1608 से 1682), श्री रामकृष्ण परमहंस (सन् 1836 से 1887)। यह तीनों ही भारत की संत-सुधारकपरंपरा के उज्ज्वल नक्षत्र रहे हैं। उनके शरीरों द्वारा ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न हुए, जिससे देश, धर्म, समाज और संस्कृति का महान कल्याण हुआ।
भगवान के भक्त तीनों ही थे। इसके बिना आत्मबल की समर्थता और कषाय-कल्मषों का निराकरण कठिन है। किंतु साथ ही भगवान के विश्व-उद्यान को सींचने और समुन्नत-सुविकसित करने की प्रक्रिया भी साथ-साथ ही चलनी चाहिए, जो इन तीनों के जीवनों में यह परंपरा...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 14)— समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग
समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग:—
दयानंद ने गुरु विरजानंद की इच्छानुसार अपने जीवन का उत्सर्ग किया था। विवेकानंद अपनी सभी इच्छाएँ समाप्त करके गुरु को संतोष देने वाले कष्टसाध्य कार्य में प्रवृत्त हुए थे। इसी में सच्ची गुरुभक्ति और गुरुदक्षिणा है। हनुमान ने राम को अपना समर्पण करके प्रत्यक्षतः तो सब कुछ खोया ही था, पर परोक्षतः वे संत तुल्य ही बन गए थे और वह कार्य करने लगे थे, जो राम के ही बलबूते के थे। समुद्र छलाँगना, पर्वत उखाड़ना, लंका जलाना बेचारे हनुमान नहीं कर सकते थे। वे तो अपने स्वामी सुग्रीव को बाली के अत्याचार तक से छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सके थे। समर्पण ही था, जिसने एकात्मता उत्पन्न कर दी। गंदे नाले में थोड़ा गंगाजल गिर पड़े, तो वह गंदगी बन जाएगा, किंतु यदि बहती हुई गंगा में थोड़ी ग...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 13)— समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग
समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग:—
अध्यात्म प्रयोजनों के लिए गुरु-स्तर के सहायक की इसलिए आवश्यकता पड़ती है कि उसे पिता और अध्यापक का दुहरा उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। पिता बच्चे को अपनी कमाई का एक अंश देकर पढ़ने की सारी साधन-सामग्री जुटाता है। अध्यापक उसके ज्ञान अनुभव को बढ़ाता है। दोनों के सहयोग से ही बच्चे का निर्वाह और शिक्षण चलता है। भौतिक निर्वाह की आवश्यकता तो पिता भी पूरा कर देता है, पर आत्मिक-क्षेत्र में प्रगति के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, उसमें मनःस्थिति के अनुरूप मार्गदर्शन करने तथा सौंपे हुए कार्य को कर सकने के लिए आवश्यक सामर्थ्य गुरु अपने संचित तप-भंडार में से निकालकर हस्तांतरित करता है। इसके बिना अनाथ बालक की तरह शिष्य एकाकी पुरुषार्थ के बलबूते उतना नहीं कर सकता, जितना...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 12)— समर्थ गुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग
समर्थगुरु की प्राप्ति— एक अनुपम सुयोग:—
रामकृष्ण, विवेकानंद को ढूँढ़ते हुए उनके घर गए थे। शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ने खोजा था। चाणक्य, चंद्रगुप्त को पकड़कर लाए थे। गोखले, गांधी पर सवार हुए थे। हमारे संबंध में भी यही बात है। मार्गदर्शक सूक्ष्मशरीर से पंद्रह वर्ष की आयु में घर आए थे और आस्था जगाकर उन्होंने दिशा विशेष पर लगाया था।
सोचता हूँ कि जब असंख्य सद्गुरु की तलाश में फिरते और धूर्तों से सिर मुड़ाने के उपरांत खाली हाथ वापस लौटते हैं, तब अपनी ही क्या विशेषता थी, जिसके कारण एक दिव्यशक्ति को बिना बुलाए स्वेच्छापूर्वक घर आना और अनुग्रह बरसाना पड़ा। इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि जन्मांतरों से पात्रता के अर्जन का प्रयास। यह प्रायः जल्दी नहीं हो पाता। व्रतशील होकर लंबे समय तक कुसंस्कारों के व...