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आत्मचिंतन के क्षण
शरीर, मन और बुद्धि तीनों में ही काम शक्ति क्रियाशील है। शौर्य, साहस पराक्रम, जीवट, उत्साह और उमंग उसकी ही विभिन्न भौतिक विशेषताएँ हैं। उत्कृष्ट विचारणाएँ उदात्त भाव सम्वेदनाएँ काम की आध्यात्मिक विशेषताएँ हैं। संयम और ऊर्ध्वगमन की साधना द्वार, काम, का रूपान्तरण होता है। रूपान्तरण का अर्थ है- सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उल्लास का समावेश हो जाना।
मानसिक क्षमता, चारित्रिक दृढ़ता ,संवेदनाएँ, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कार्यों को करने का जीवट आदि विषय स्थूल मस्तिष्क के नहीं हैं। चेतना की परिधि में आने वाली इन विशिष्टताओं का विशद अध्ययन परामनोवैज्ञानिक कर रहे है इन सबके निष्कर्ष यही हैं कि प्रसुप्त शक्तियों का जागरण एवं मानसिक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग ही जीवन की समस्त स...
आत्मचिंतन के क्षण
भाग्यवाद एवं ईश्वर की इच्छा से सब कुछ होता है- जैसी मान्यताएँ विपत्ति में असंतुलित न होने एवं संपत्ति में अहंकारी न होने के लिए एक मानसिक उपचार मात्र हैं। हर समय इन मान्यताओं का उपयोग अध्यात्म की आड़ में करने से तो व्यक्ति कायर, अकर्मण्य एवं निरुत्साही हो जाता है।
प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह अंदर से ही जागती है। उसे जगाने के लिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त है। वह अन्य कोई प्रतिबन्ध नहीं मानती। वह तमाम सवर्णों को छोड़कर रैदास और कबीर का वरण करती है, बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर और चाणक्य जैसे कुरूप को प्राप्त होती है। उसके अनुशासन में जो आ जाता है, वह बिना भेदभाव के उसका वरण कर लेती है।
अपव्ययी अपनी ही बुरी आदतों ...
आत्मचिंतन के क्षण
हम प्रथकतावादी न बनें। व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें। अपनी अलग से प्रतिभा चमकाने का झंझट मोल न लें। समूह के अंग बनकर रहें। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें। यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा, सम्पदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।
क्षमा न करना और प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना दुःख और कष्टों के आधार हैं। जो व्यक्ति इन बुराइयों से बचने की अपेक्षा उन्हें अपने हृदय में पालते-बढ़ाते रहते हैं वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक प्रकाश का लाभ नहीं ले पाते। जिसके हृदय में क्षमा नहीं, उसका हृदय कठोर हो जाता है। उसे दूसरों के प्रेम, मेलजोल, प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से...
आत्मचिंतन के क्षण
साधना का तात्पर्य है, अपने आप के कुसंस्कारों, दोष- दुर्गुणें का परिशोधन, परिमार्जन और उसके स्थान पर सज्जनता, सदाशयता का संस्थापन। आमतौर से अपने दोष- दुर्गुण सूझ नहीं पड़ते। यह कार्य विवेक बुद्धि को अन्तर्मुखी होकर करना पड़ता है। आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास इन चार विषयों को कठोर समीक्षण- परीक्षण की दृष्टि से अपने आप को हर कसौटी पर परखना चाहिए। जो दोष दीख पड़े, उनके निराकरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
मस्तिष्क एक प्रत्यक्ष कल्प वृक्ष है, जीवन की सक्रियता एवं स्फूर्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर निर्भर है। व्यक्तित्व का सारा कलेवर यहीं विनिर्मित होता है। यही वह पावर हाउस है, जहाँ से शरीरिक इन्द्रियाँ शक्ति प्राप्त करती हैं।। स्थूल गतिविधियाँ ही नही...
आत्मचिंतन के क्षण
उन्नति के मार्ग किसी के लिए प्रतिबन्धित नहीं हैं। वे सबके लिए समान रूप से खुले हैं। परमात्मा के विधान में अन्याय अथवा पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं है। जो व्यक्ति अपने अंदर जितने अधिक गुण, जितनी अधिक क्षमता और जितनी अधिक योग्यता विकसित कर लेगा, उसी अनुपात में उतनी ही अधिक विभूतियों का अधिकारी बन जायेगा।
असंख्यों बार यह परीक्षण हो चुके हैं कि दुष्टता किसी के लिए भी लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। जिसने भी उसे अपनाया वह घाटे में रहा और वातावरण दूषित बना। अब यह परीक्षण आगे भी चलते रहने से कोई लाभ नहीं। हम अपना जीवन इसी पिसे को पीसने में-परखे को परखने में न गँवायें तो ही ठीक है। अनीति को अपनाकर सुख की आकाँक्षा पूर्ण करना किसी के लिए भी संभव नहीं हो सकता तो हमारे लिए ही अनहोनी बात संभव कै...
आत्मचिंतन के क्षण
ऐसा विचार मत करो कि उसका भाग्य उसे जहाँ-तहाँ भटका रहा है और इस रहस्यमय भाग्य के सामने उसका क्या बस चल सकता है। उसको मन से निकाल देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी तरह के भाग्य से मनुष्य बड़ा है और बाहर की किसी भी शक्ति की अपेक्षा प्रचण्ड शक्ति उसके भीतर मौजूद है, इस बात को जब तक वह नहीं समझ लेगा, तब तक उसका कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
ऐसा कोई नियम नहीं है कि आप सफलता की आशा रखे बिना, अभिलाषा किये बिना, उसके लिए दृढ़ प्रयत्न किये बिना ही सफलता प्राप्त कर सकें । प्रत्येक ऊँची सफलता के लिए पहले मजबूत, दृढ़, आत्म-श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसके बिना सफलता कभी मिल नहीं सकती। भगवान् के इस नियमबद्ध और श्रेष्ठ व्यवस्थायुक्त जगत् में भाग्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
जिसने...
आत्मचिंतन के क्षण
श्रेष्ठता दैवी संपत्ति है। जिसमें सद्गुण हैं, सद्विचार हैं, सद्भाव हैं, वस्तुतः वही सच्चा सम्पत्तिवान् है। हमारी आकांक्षाएँ विचारधाराएँ, चेष्टाँए, अभिलाषएँ, क्रियाएँ, अनुभूतियाँ श्रेष्ठ होनी चाहिए। हम जो कुछ सोचें, जो कुछ करें, वह आत्मा के गौरव के अनुरूप हो। पानी और दूध मिला हुआ हो, तो हंस उसमें दूध को पीता है और पानी को छोड़ देता है, यही कार्य पद्धति हमारी भी होनी चाहिए।
आत्मबल वृद्धि के लिए उपासना, आत्मशोधन और परमार्थ तीनों का ही समावेश आवश्यक है। भगवान् का नित्य स्मरण करें, अपने दोष- दुर्गुणों से नित्य संघर्ष करें और उन्हें हटावें। सद्गुणों औैैर योग्यताओं को बढ़ाने के लिए नित्य पुरुषार्थ करें। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी और तत्परतापूर्...
आत्मचिंतन के क्षण
हे पाठक गण।
अपने प्रत्येक कार्य को आप स्वयं पूर्ण करें। किसी भी काम को दूसरे पर न छोडें। दूसरे के सहारे की आशा तनिक भी न रखें। अपने लिये ऐसे कार्यों का चुनाव करें, जिन्हें आप स्वयं अपने बल- बूते पर पूरे कर सकें। दूसरों के भरोसे कल्पना के बड़े- बड़े महल न बनावें। दूसरों के बल बूते आपको स्वर्ग का भी राज्य, अपार धन सम्पत्तियों का अधिकार, उच्च पद प्रतिष्ठा भी मिले, तो उसे ठुकरा दें।
अस्वाद व्रत अपने आप में एक महाव्रत है। यह एक ऐसा महाव्रत है, जिसे महात्मागान्धी एवं बिनोवा जैसे अनेकों महामानवों ने अपनाया और उस आधार पर अपने आहार- विहार को उत्तरोत्तर शुद्ध- सात्विक बनाते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए। सप्ताह में एक दिन भी इसे पालन किया जाय,...
आत्मचिंतन के क्षण
मन का, मस्तिष्क का नाश करने में अप्रसन्नता से बढ़कर और कोई घातक शत्रु नहीं। जिसका चित्त किसी न किसी कारण दुखी बना ही रहता है। जो आशंका, भय, असफलता से चिन्तित रहता है, जिसे द्वेष, कुढ़न, शोक, आवेश, उद्वेग घेरे रहते हैं, जो अहंकार से गर्दन फुलाये रहता है सीधे मुँह किसी से बात करना जिसे सुहाता नहीं ऐसे बद मिज़ाज आदमी अपनी मानसिक शक्तियों का सत्यानाश करते रहते हैं।
जिसे अपनी महानता का, अपने आत्म गौरव का ध्यान है, वह नीच विचारों और पतित कर्मों को नहीं अपना सकता अतएव उसकी उच्च विचारधारा और उत्तम कार्यप्रणाली अपने आप ही स्वचालित डायनुमा की तरह प्राणशक्ति की बिजली उत्पन्न करती है और साधक का प्राणमय कोष सुविकसित होता चलता है।
कठिनाइयों से, प्रतिकूलताओं से घिरे होने पर भी ...
आत्मचिंतन के क्षण
गंगा गोमुख से निकलती है और जमुना जमुनोत्री से, नर्मदा का अवतरण अमरकंटक के एक छोटे से कुण्ड से होता है। मान सरोवर से ब्रह्मपुत्र निकलती है, शांतिकुंज ऐसे अनेकों प्रवाहों को प्रवाहित कर रहा है, जिसका प्रभाव न केवल भारत को वरन् समूचे विश्व को एक नई दिशा में घसीटता हुआ ले चले।
निःसन्देह प्रार्थना में अमोघ शक्ति है। परोपकार आत्म कल्याण और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही उसका सदुपयोग होना चाहिए। आत्म कल्याण और संसार की भलाई से प्रेरित प्रार्थनायें ही सार्थक हो सकती हैं। जब असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृंत गमय के श्रद्धापूरित भाव उद्गार अंतःकरण से उठेंगे, तो निश्चय ही जीवन में एक नया प्रकाश प्रस्फुटित होगा।
यह सुनिश्चित है कि लोगों की आस्था...