
आत्म निरीक्षण आवश्यक है!
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(श्री. स्वामी शरणानंद जी)
आत्म-निरीक्षण अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना आत्म-निरीक्षण का वास्तविक अर्थ है अपने पर अपना नेतृत्व करना। अपना निरिक्षण अपने हुए दोषों की निवृत्ति का सबसे पहिला उपाय है। अपने निरीक्षण के बिना निर्दोषता की उपलब्धि सम्भव नहीं है, क्योंकि निज विवेक के प्रकाश में देखे हुए दोष सुगमता से मिटाए जा सकते हैं।
अपना निरीक्षण करने पर असत्य का ज्ञान एवं सत्य से एकता और प्राप्त बल तथा योग्यता का सदुपयोग स्वतः होने लगता है। यदि हम असत्य को नहीं देख पाएँ अथवा सत्य से अभिन्न एवं अपने कर्त्तव्य से परिचित नहीं हुए तो समझना चाहिए कि हमने अपना निरीक्षण नहीं किया। अपना यथेष्ट निरीक्षण करने पर किसी अन्य गुरु या ग्रन्थ की आवश्यकता ही नहीं रहती, कारण कि जिसके प्रकाश में सब कुछ हो रहा है, उसमें अनन्त ज्ञान तथा अनन्त शक्ति विद्यमान है। अपना निरीक्षण करते-करते प्राणी उससे अभिन्न हो जाता है, जो वास्तव में सब का सब कुछ होते हुए भी सबसे अतीत है। अपना निरीक्षण हमें बल के सदुपयोग और विवेक के आदर की प्रेरणा देता है। बल के सदुपयोग से निर्बलताएँ और विवेक के आदर से अविवेक स्वतः मिट जाता है।
प्रत्येक प्राणी अपने से अधिक बलवानों के किसी भी प्रकार के बल का अपने प्रति सदुपयोग की आशा करता है, पर वह स्वयं अपने प्राप्त बल का निर्बलों के प्रति दुरुपयोग करता है। यह प्राप्त विवेक का अनादर नहीं तो क्या है?
बल का अर्थ है सभी प्रकार के बल अर्थात् तन-बल, धन-बल, विद्या-बल और पद अथवा प्रभुता बल इत्यादि। धन के दुरुपयोग से ही समाज में निर्धनता, शिक्षा अर्थात् ज्ञान, विज्ञान और कलाओं के दुरुपयोग से समाज में अविवेक की वृद्धि, तन-बल के दुरुपयोग से समाज में हिंसा और चोरी, प्रभुता के दुरुपयोग से विरोधी शासन का जन्म आदि दुर्गुणों की वृद्धि होती है।
प्रत्येक प्राणी को अपनी रक्षा स्वभावतः प्रिय है, फिर भी वह स्वयं अहिंसक न रहकर हिंसा में प्रवृत्त होता है, जिससे हृदय वैर भाव से भर जाता है, जो संघर्ष का मूल है। अतः संघर्ष मिटाने के लिए प्रत्येक भाई-बहिन को अपना हृदय वैर-भाव से रहित करना होगा। वैर-भाव से रहित होने के लिए अहिंसक होना अत्यन्त आवश्यक है। अपनी रक्षा की प्रियता का विवेक हमें अहिंसक होने की प्रेरणा देता है, जो अनादि सत्य है, पर आज तो हम वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा हिंसात्मक प्रयोगों से संघर्ष मिटाने की बात सोच रहे हैं, जो सर्वथा असम्भव है, कारण कि विवेक के अनादर से ही प्राणी के मन में संघर्ष उत्पन्न हुआ है। अतएव जब तक विवेकपूर्वक मन का संघर्ष न मिटेगा, तब तक समाज में होने वाले संघर्ष कभी नहीं मिट सकते, चाहे वे वैयक्तिक हो या कौटुम्बिक अथवा सामाजिक।
प्रत्येक अपराधी अपने प्रति क्षमा की आशा करता है और दूसरों को दण्ड देने की ही व्यवस्था चाहता है। वह अपने प्रति तो दूसरों से अहिंसक निर्वैर, उदार, क्षमाशील, त्यागी, सत्यवादी और विनम्रता आदि दिव्य गुणों से पूर्ण व्यवहार की आशा करता है, किन्तु स्वयं उसी प्रकार का सद्व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं कर पाता। अपने प्रति मधुरता युक्त सम्मान की आशा करता है, पर दूसरों के प्रति अपमान एवं कटुतापूर्ण असद्व्यवहार करता है, जो वास्तव में भूल है। इसका परिणाम यह होता है कि प्राणी अपने प्रति रागी और दूसरों के प्रति दोषी हो जाता है, जो सभी दुखों का मूल है।
अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करते हुए यदि अन्यायकर्त्ता को क्षमा कर दिया जाय तो द्वेष प्रेम में बदल जाता है और अपने द्वारा होने वाले अन्याय से स्वयं पीड़ित होकर जब उससे (जिसके प्रति अन्याय हो गया है) क्षमा माँग ली जाय और इस प्रकार उससे क्षमा माँगते हुए अपने प्रति न्याय कर स्वयं दंड स्वीकार कर लिया जाय तो राग त्याग में बदल जाता है।
जब राग और द्वेष त्याग और प्रेम में बदल जाते हैं; तब मुक्ति और भक्ति की प्राप्ति स्वतः हो जाती है। अथवा यों कहो कि अभिन्नता और असंगता स्वतः आ जाती है। यही वास्तविक आनंद है।
अपना निरीक्षण करने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जब हम राग से प्रेरित होकर इन्द्रियों की ओर गतिशील होते हैं तब इन्द्रिय जन्य ज्ञान के आधार पर हमें अनेक प्रकार की विषमताओं का भास होता है और इन्द्रिय जन्य स्वभाव में प्रवृत्त होने से हम क्रिया जन्य सुख की आसक्ति तथा परतन्त्रता, जड़ता आदि में भी आबद्ध हो जाते हैं। इतना ही नहीं, अन्त में हम शक्ति-हीनता का अनुभव कर स्वाभाविक विश्राम अर्थात् निवृत्ति को अपनाते हैं, जिसके फलस्वरूप शक्ति -हीनता मिटती जाती है और बिना प्रयत्न के ही आवश्यक शक्ति की उपलब्धि होती जाती है।
यदि शक्ति-हीनता, जड़ता, विषमता इत्यादि दुःखों से दुःखी होकर हम निवृत्ति द्वारा संचित शक्ति का व्यय न करके विषयों से विमुख होकर अन्तर्मुख हो जावें, तो भोग योग में, जड़ता चेतना में, विषमता समता में, पराधीनता स्वाधीनता में और अनेकता एकता में बदल जाती है। फिर स्वाभाविक आवश्यकता की पूर्ति एवं अस्वाभाविक इच्छाओं की निवृत्ति स्वतः ही हो जाती है जो मानव की माँग है।
अपनी वर्तमान वस्तुस्थिति का यथेष्ट स्पष्ट परिचय प्राप्त करना ही वास्तविक आत्म-निरीक्षण है। उसके बिना हम अपने को निर्दोष बना ही नहीं सकते। मानव में दोष-दर्शन की दृष्टि स्वतः विद्यमान है, पर प्रमादवश प्राणी उसका उपयोग अपने जीवन पर न करके अन्य पर करने लगता है जिसका परिणाम बड़ा ही भयंकर एवं दुःखद सिद्ध होता है। पराये दोष देखने से सबसे बड़ी हानि यह होती है कि प्राणी अपने दोष देखने से वंचित हो जाता है और मिथ्याभिमान में आबद्ध होकर हृदय में घृणा उत्पन्न कर लेता है यद्यपि हृदय प्रीति का स्थल है, घृणा का नहीं– पर ऐसा तभी सम्भव है जब मानव पराए दोष न देखकर अपने दोष देखने में सतत् प्रयत्नशील बना रहे। अपने तथा पराये दोष देखने में एक बड़ा अन्तर यह है कि पराए दोष देखते समय हम दोषों से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, जिससे कालान्तर में स्वयं दोषी बन जाते हैं, पर अपना दोष देखते ही हम अपने को दोषों से असंग कर लेते हैं, जिससे स्वतः निर्दोषता आ जाती है जो सभी को प्रिय है। अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि दोष-दर्शन की दृष्टि का उपयोग केवल अपने ही जीवन पर करना है, किसी अन्य पर नहीं।
यद्यपि अनादि सत्य बीज रूप से प्रत्येक मानव में विद्यमान है, पर उसका आदर न करने से प्राणी उस सत्य से विमुख हो गया है और परिवर्तनशील वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों में आबद्ध होकर उसने अपने को दीन-हीन तथा अभिमानी और परतंत्र बना लिया है। इस दुःखद बंधन से छुटकारा पाने के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि प्राणी प्राप्त विवेक के प्रकाश में (जो चिर सत्य है) अपनी दशा का निरीक्षण करे और वस्तु, अवस्था आदि से असंग होकर दुराचार को सदाचार में परिवर्तित करके अपने को निर्विकार बनाए।
यह प्रत्येक मानव का अनुभव है कि दृश्य का सम्बन्ध सुख-दुःख में आबद्ध करता है और दृश्य से असंग होने पर किसी प्रकार का दुःख शेष नहीं रहता। प्रिय से प्रिय वस्तु तथा व्यक्ति से सम्बन्ध स्वीकार करने पर भी प्राणी अपने को अलग करना चाहता है कारण कि सबसे अलग हुए बिना वह चिर-शान्ति तथा शक्ति नहीं पाता जो उसे स्वभाव से ही प्रिय है। यह निर्विवाद सिद्ध है कि प्राणी प्रिय से प्रिय प्रवृत्ति से थककर गहरी नींद के लिए प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु आदि से अलग होना चाहता है। यद्यपि सुषुप्ति में किसी भी प्रकार का वैषम्य तथा दुःख शेष नहीं रहता, तथापि उससे भी प्राणी स्वयं उपराम हो जाता है और किसी ऐसी अवस्था की खोज करता है जिसमें सुषुप्ति के समान साम्य तथा दुःख रहितता तो हो, किन्तु संज्ञाशून्यता न हो। उस स्थिति के उपलब्ध हो जाने पर जब वह उससे भी उत्थान देखता है, तब उत्थान रहित; अलौकिक, अनन्त, नित्य, चिन्मय जीवन के लिए व्याकुल होता है अर्थात् निर्विकल्प स्थिति से परे निर्विकल्प बोध की लालसा करता है, जो सभी अवस्थाओं से अतीत और स्वतः सिद्ध है। इस स्वतः सिद्ध अनन्त जीवन की रुचि मानव मात्र में स्वभाव से ही विद्यमान है। इसके लिए सभी अवस्थाओं से विमुख होना अनिवार्य है। अवस्थाओं से विमुख होते ही इस अवस्थातीत जीवन का अनुभव हो जाता है।
अपना निरीक्षण ही वास्तविक सत्संग, स्वाध्याय और अध्ययन है कारण कि अपने निरीक्षण के बिना प्राणी किसी ऐसे सत्य तथा तत्त्व एवं ज्ञान की उपलब्धि ही नहीं कर सकता जो उसमें स्वयं न हो। अतः अपने निरीक्षण द्वारा ही हम वास्तविक सत्य तथा तत्त्व एवं ज्ञान को उपलब्ध कर सकते हैं।
अपना निरीक्षण करते ही जिस विवेक से असत्य का दर्शन होता है, वही विवेक उसे सत्य से अभिन्न भी कर सकता है और उसी के द्वारा सत्य से अभिन्न और असत्य से निवृत्त होने का उपाय प्राप्त होता है। आत्म-निरीक्षण के बिना कोई भी सद्ग्रन्थ तथा सद्गुरु से मिला प्रकाश अपने काम नहीं आता। वह केवल मस्तिष्क का संग्रह बन जाता है जो कि नक्शे की नदी के तुल्य है। प्रत्येक नक्शा हमें वास्तविकता तक पहुँचाने का साधन आवश्यक है, परन्तु उसे देखकर संतोष करने से न तो एक बूँद जल मिलेगा न प्यास बुझेगी।
अपने निरीक्षण के साथ-साथ ही हमें सद्ग्रन्थ तथा सत्पुरुषों के प्रकाश का उपयोग करना चाहिए। आत्म-निरीक्षण द्वारा जब हम अपनी सभी प्रियताओं को जान लेते हैं, तब फिर हमारे द्वारा कोई ऐसी चेष्टा नहीं होती जिसमें दूसरों की प्रियता तथा हित निहित न हो।
जब हम प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपनी वर्तमान वस्तु-स्थिति का विश्लेषण करते हैं, तब हमें भोगों की इच्छा अर्थात् इन्द्रिय जन्य स्वभाव में प्रवृत्ति तथा वास्तविक स्वाधीनता अर्थात् वस्तु अवस्था एवं परिस्थितियों से अतीत जीवन की अभिलाषा- ये दो बातें दिखाई देती हैं, जिन्हें भोग इच्छा कहते हैं। उनकी उत्पत्ति एक मात्र ‘यह’ को ‘मैं’ स्वीकार करने पर अथवा ‘यह’ को ‘अपना’ मानने पर होती है। यद्यपि ‘यह’ को ‘मैं’ मान लेना निज ज्ञान के विपरीत है फिर भी हम उस ज्ञान का अनादर करके ‘यह’ से तद्रूप होकर अपने को भोग-वासनाओं में आबद्ध कर लेते हैं, जो सभी दुःखों का मूल है। ‘यह’ को ‘मैं’ मान लेने पर ही ‘यह’ की सत्यता दृढ़ होती है और ‘यह’ को ‘अपना’ मान लेने पर ‘यह’ के प्रति प्रियता उत्पन्न होती है जो धीरे-धीरे कालान्तर में आसक्ति का रूप धारण कर लेती है। ‘यह’ सत्यता और प्रियता में आबद्ध प्राणी अपने वास्तविक नित्य जीवन से विमुख हो जाता है। ‘यह’ के न रहने पर भी जो रहता है अथवा जब ‘यह’ नहीं था तब भी जो था एवं जिसके प्रकाश से ‘यह’ प्रकाशित है वही वास्तव में अपना नित्य अनन्त जीवन है उस नित्य जीवन के अनुभव बिना किसी को भी चिर शान्ति एवं स्थायी प्रसन्नता नहीं मिल सकती– यह निर्विवाद सिद्ध है।
यदि प्राणी निज विवेक के प्रकाश में ‘यह’ को ‘मैं’ स्वीकार न करे और न ‘यह’ को ‘अपना’ माने तो स्वाभाविक ही निर्वासना आ जाती है, क्योंकि फिर सीमित अहंभाव शेष नहीं रहता और उससे अभिन्नता हो जाती है, जो भक्तों का भगवान् तत्त्ववेत्ताओं का निज स्वरूप, योगियों का योग तथा सभी का सब कुछ है।
‘यह’ और ‘मैं’ का विभाजन ‘है’ से अभिन्न करने का उपाय है। जिस प्रकार हल्दी और चूना मिलने से लालिमा उत्पन्न होती है और दोनों के विभाजन से लालिमा मिट जाती है, उसी प्रकार ‘यह’ और ‘मैं’ के विभाजन से ‘अहं’ और ‘मम’ रूपी लालिमा सदा के लिए मिट जाती है और केवल अनन्त नित्य जीवन ही शेष रहता है जो वास्तव में मानव की माँग है।
भौतिकवादी ‘मैं’ और ‘वह’ में विलीन कर जड़ता में आबद्ध हो जाते हैं। आस्तिकवादी ‘यह’ और ‘मैं’ को ‘वह’ में विलीन कर दिव्य चिन्मय हो जाते हैं और अध्यात्मवादी ‘यह’ और ‘वह’ को ‘मैं’ में विलीन कर अभिन्न हो जाते हैं।
भौतिकवाद वासनाओं में आबद्ध करता है। आस्तिकवाद केवल प्रेम ही प्रेम शेष रखता है। अध्यात्मवाद अपने में ही सब कुछ पा लेता है।
भौतिकवाद देहाभिमान को पुष्ट करता है और कर्म-जाल में आबद्ध कर प्राणी को सुखी-दुःखी बनाता है। आस्तिकवाद प्राणी को सुख-दुःख से अतीत अखंड अनन्त रस प्रदान करता है और अध्यात्मवाद प्राणी को अखंड एक रस प्रदान करता है।
भौतिकवाद की पराकाष्ठा आस्तिकवाद अथवा अध्यात्मवाद को जन्म देती है।
भौतिकवाद में प्राणी तभी तक आबद्ध है, जब तक ‘यह’ का वास्तविक स्वरूप जान नहीं पाता अथवा यों कहो कि ‘यह’ से अतीत के जीवन पर विश्वास नहीं करता अथवा यों कहो कि ‘यह’ की दी हुई वस्तुएँ ‘यह’ को वापिस नहीं करता अर्थात् ‘यह’ का ऋणी रहता है।
सारी सृष्टि ‘यह’ के अर्थ में आ जाती है। शरीर संसार रूपी सागर का एक बिन्दु मात्र है। अतः शरीर रूपी बिन्दु को संसार रूपी सागर की सेवा में लगा देना ही शरीर का सर्वोत्कृष्ट सदुपयोग है, कारण कि व्यक्तिगत जीवन समाज के अधिकारों का समूह मात्र है और कुछ नहीं। जब प्राणी समाज के अधिकारों को सुरक्षित रखते हुए अपने अधिकार को भूल जाता है, तब आस्तिकवाद और अध्यात्मवाद में उसका स्वतः प्रवेश हो जाता है और फिर बड़ी सुगमतापूर्वक ‘यह’ और ‘मैं’ का विभाजन हो जाता है। प्राणी अधिकार लोलुपता के कारण ही ‘यह’ में आबद्ध हो गया है। यदि प्राप्त विवेक के प्रकाश में प्राणी उन सभी इच्छाओं का अन्त कर दे जिनमें समाज का हित और प्रसन्नता निहित न हो तो बड़ी सुगमतापूर्वक उसका मन निर्विकल्प हो जाता है। मन के निर्विकल्प होते ही बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धि के सम होते ही आवश्यक शक्ति का विकास होता है। फिर प्राणी अपनी स्वाभाविक लालसा को पूरा कर कृत कृत्य हो जाता है। उसका जीवन निर्वासना, निवैरता, निर्भयता, समता, मुदिता आदि गुणों से परिपूर्ण हो जाता है अथवा यों कहो कि वह अपना निर्माण कर लेता है। इस प्रकार व्यक्ति के निर्माण से स्वतः ही सुन्दर समाज का निर्माण होने लगता है। अतः अपने निरीक्षण द्वारा अपने को निर्दोष बनाना परम अनिवार्य है।
अपना निरीक्षण करने पर हमें यह भली-भाँति विदित हो जाता है कि प्राप्त शक्ति का सद्व्यय प्राणियों को स्वभाव से ही प्रिय है, करण कि जब कोई हमारे साथ व्यवहार करता है यदि उसमें किसी प्रकार का दोष हो तब हम उसके उस व्यवहार को उचित नहीं मानते यद्यपि वही व्यवहार प्रमादवश इस स्वयं दूसरों के प्रति कर बैठते हैं।