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Magazine - Year 1956 - Version 2

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क्या संसार का त्याग संभव है?

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(श्री. वीरेन्द्र मालवीय)

जगत् की प्रत्येक घटना बुद्धिपूर्वक हो रही है यह भी स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। सारी की सारी प्रकृति एक अद्भुत नियमितता से संचलित हो रही है। और यदि हम मानव रुचि का अध्ययन करें तो उसके सर्वतोमुखी होने के साथ ही उस अनन्तता में भी वह किसी विशेष आनन्द की अनुभूति में निमग्न एवं क्रियमाण दीख पड़ेगी। यह सब क्यों? इसलिए कि वास्तव में यह जगत् सत्यमय है। त्याग के उपदेशों की आँधी में उड़ाकर भी त्यागी समुदाय मानव को ‘ग्रहण’ की ओर से विमुख न कर सके। इसका कारण भी यही है, कि संसार में ‘गीता’ का ‘मैं’ हर वस्तु में रस-रूप बनकर बैठा है तथा आनन्द बनकर रमा हुआ है। और इसी लिये मानव, त्याग का रूखा उपदेश नहीं सुनना चाहता। वह अपने रसिक हृदय को इस प्राप्ति की क्रिया में लीन रखेगा; या निष्क्रिय बैठा रहेगा? वह आनन्द के सागर में गोता लगाएगा या रूखी कल्पना एवं बुद्धि की शुष्क उलझन में फंसा रहेगा? जगत् में सत्य और असत्य, प्रकाश और अन्धकार ज्ञान और अज्ञान, प्रेम और अमृत यह सब तत्व कुशलता के साथ मिले हुए हैं, इसी लिये संसार को मथकर उसमें से मक्खन निकालने, और उसका सेवन करके अपनी आत्मतृप्ति करने की क्रिया को परम पुरुषार्थ माना है, और यह परम पुरुषार्थ संसार से घृणा करके दूर भागने से सिद्ध नहीं हो सकता।

स्त्री, पुत्र, समाज और राष्ट्र, तथा जीवन यात्रा को सुगम बनाने वाले समस्त साधनों को मिथ्या मान लेने से भी उक्त कार्य की सफलता सम्भव नहीं। इसीलिये भारतवर्ष के उन्नतमना, अतुलनीय ऋषि−मुनियों ने संसार में बुद्धिपूर्वक गति करने की मंत्रणा मनुष्य को दी है। चारों आश्रमों की व्यवस्था, वर्ण धर्म की मर्यादा, सदाचार, न्यायशीलता, आत्मसाधन समस्त प्राणियों एवं वस्तुओं में ब्रह्म की व्यापकता को स्वीकार करना तथा सब में स्वत्व का दर्शन, एवं अनुराग तथा प्रेम प्रदर्शन करना, कर्मशीलता इत्यादि को आवश्यक बतलाया है। व्यक्तित्व का निर्माण, सात्विक जीवन की साधना, मधुर पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्व का निर्वाह, आदर्श सामाजिक जीवन, विश्वकल्याण की विराट भावना यह सब क्या है? यह है जगत में सत्य तत्व का दर्शन करके उसमें अपनी तद्रूपता का समावेश करना और उसमें रमे हुए महान आध्यात्म रस- आनन्द या ब्रह्मानन्द का ध्यान करना। और यह सब संसार की उपेक्षा या घृणा से सम्भव नहीं है।

इसमें सन्देह नहीं कि एक प्रश्न और भी हमारे सामने है और वह यह कि दुःख क्या है? असन्तोष क्या है? अशान्ति क्या है? और घात एवं मृत्यु क्या है? इन सबके उत्तर में हमें यही कहना है कि सम्यक् दृष्टि के आदर्श से गिरकर, कर्म से भ्रष्ट होकर जब व्यक्ति कष्ट की संकुचित मनोवृत्ति के घेरे में आ जाता है तब वह अपने को अद्भुत-अकेलेपन में या लघुरूप में पाता है और साथ ही उस लघुता का लघु आनन्द भी चाहता है। उस लघुता का आनन्द उसे पर्याप्त सन्तोष नहीं दे पाता, इसलिये उसकी संकुचित मनोवृत्ति उसे और भी अधिक आनन्द की प्राप्ति के लिये बाध्य करती है और समष्टि से भ्रष्ट हुआ अल्पज्ञ मानव वह अपनी संकुचित इच्छा की पूर्ति के लिये, संकुचित स्वेच्छाचारी प्रयत्न का आश्रय लेने के कारण समष्टि के स्वार्थों से टकरा जाता है। इस टक्कर में होने वाले परिणाम को ही वह दुःख, असन्तोष, अशान्ति इत्यादि कहता है और उस संघर्ष में पिस जाने का नाम उसने मृत्यु रखा है। किन्तु जिसने समष्टि हितवाद को और ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ को ही सत्य मान रखा है। वह तो प्रलय का झूला झूलते समय भी अपने को सनातन, अमर पुरुष मानता है और उसके ओठों से सन्तोष एवं सुख की स्मित रेखा छलकती दीखती है, उसके मुखमण्डल पर शान्ति की ज्योति चमकती हुई दिखाई पड़ती है।

अतः ऐसी आशा की ज्योति से चमकते हुए ग्रहण करने योग्य संसार को त्यागकर जिन्होंने अपने को निराशावादी मान लिया है, वे तो वास्तव में अनात्म दृष्टि की दुःख की खाई में पड़े हुए तड़पेंगे ही। अतः यदि वे परम शान्ति चाहते हैं तो उन्हें संसार मन्दिर से दूर भागने की आवश्यकता नहीं। और अलग जाएँगे भी कहाँ? क्या संसार से भी बाहर कोई स्थान है? यह प्रकाश मण्डल में चमकने वाला नक्षत्र, समाज, यह व्योम, यह समुद्र, यह विराट पृथ्वीतल, छोड़े भी जा सकते हैं! इनसे विमुख भी हुआ जा सकता है? नहीं! यहीं तो राधा और माधव अनन्त होकर महान रास खेल रहे हैं। यहीं तो शुद्ध अद्वैत; द्वैत का अभिनय कर रहा है। यहीं तो वह न्यायाधीश न्याय की कचहरी लगाए बैठा है, यहीं तो वह आप, सत्य रमा हुआ है। यहीं तो वह महान प्रेमी प्रेम का आस्वादन कर रहा है, और यहीं तो वह विराट निराकार अपनी विराट साकारता की झाँकी करवा रहा है। इसीलिये तो कबीर ने देखा और कहा—“मुझको तू कहाँ खोजे बन्दे; मैं तो तेरे पास में।” इसीलिये तो नानक ने कहा—“प्रभुजी हम दीपक तुम बाती, जाकी ज्योत बरे दिन राती।” सूरदास, तुलसी इन सबने यहीं सब कुछ देख लिया था। और सबकी सेवा को अपना आदर्श बनाया था। इन समस्त स्त्री-पुरुषों के रूप में, पशु-पक्षी और समस्त जीवों के रूप में तथा प्रत्येक इस विराट उद्यान में खिलने वाले पुष्प में रूप, रस और गन्ध के रूप में; सूर्य में तेज, चन्द्र में अमृत, पृथ्वी में रस, जल में प्राण, वायु में गति, आकाश में व्यापकता और वस्तुओं में तत्व रूप कौन है? औषधियों में गुण रूप से कौन समाया हुआ है? वही! इसलिये उपेक्षा, घृणा; दुःख, असन्तोष अशान्ति की ओर बढ़ना भी दुर्बल एवं दूषित मनोवृत्ति का ही परिचायक है! अज्ञता का ही प्रतिबोधक है।

त्याग करो! इसका यह अर्थ नहीं कि संसार को ही छोड़ दो! आत्महत्या कर लो! बल्कि त्याग का अर्थ संकुचित मनोवृत्ति के घेरे से निकलकर, विराट की रंगभूमि में प्रवेश करना है। संसार दुःखमय नहीं, संसार में बुद्धिपूर्वक मर्यादा का विवेक किये बिना गति करना दुःख का कारण है। स्त्री पाप की जड़ नहीं! भोग दृष्टि में लय हो जाना और स्त्री में ब्रह्म तत्व का न देखना! पतन का कारण है। प्रत्येक वस्तु का दुरुपयोग ही अशान्ति का कारण है! संसार को ग्रहण कीजिए बुद्धिमत्ता के साथ, संसार के भोगों को भोगिये मर्यादा के साथ! तब आपको न दुःख का सामना करना पड़ेगा, न असन्तोष का। रही मृत्यु की बात, तो वह अवश्य जन्म के साथ लगा हुआ जीवन शक्ति का सा नियम है। इससे भी छुटकारा पाया जा सकता है। ऐसी भी क्रियाएँ हैं। और वह क्रियाएँ आज से हजारों वर्षों पूर्व ही आविष्कार में आ चुकी हैं। आज भी वे जानी जा सकती है। जिनमें जानने की सच्ची उत्कण्ठा है, वे जाने बिना नहीं रहते।

भारतीय संस्कृति में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यही तो है कि वह हमें उस वस्तु का दर्शन कराती है, जो सृष्टि के आरम्भ में भी थी, आज भी है और भविष्य में भी प्रलय-पर्यन्त रहेगी। इसीलिये उसे सनातन धर्म कहते हैं। यह सनातन धर्म अमर है, शाश्वत है। इसे मारने वाले मर जाते हैं। क्योंकि सनातन पुरुष स्वयं सुदर्शन चक्र हाथ में धारण कर इसकी रक्षा करते हैं। जब अन्धकार अपनी काली घटा के साथ छा जाता है, तब प्रभात में सूर्य की ज्योति चमक कर उसे न जाने कहाँ छिपा लेती है। और सन्ध्या को फिर वही ज्योति न जाने कहाँ चली जाती है। मानो, यहाँ इस रंगभूमि में प्रकाश और अन्धकार, ज्ञान और अज्ञान अथवा सत्य और असत्य आँख-मिचौनी खेल रहे हैं। कभी अंधेरे में सत्य छिप जाता है तब असत्य उसे खोजता है और जब उसे वह नहीं मिलता, तब वह हारकर यह मान लेता है कि अब मैं ही हूँ। अब मेरा ही जगत् में राज्य है। परन्तु ताली बजाकर सत्य उसे चौंका देता है। यही संसार के रूप में संसार पति की सनातन लीला हो रही है। और इस लीला में सत्य क्या है, यह सब स्पष्ट दृष्टिमान हो रहा है। आज जगत का वातावरण इतना विषम क्यों है? एक राष्ट्र की जनशक्ति दूसरे राष्ट्र की जनशक्ति के साथ सहयोग और प्रेम-भावना का प्रयोजन करते हुए जीवन धारण करने की अपेक्षा, संघर्ष की नीति का अवलम्बन क्यों कर रही है? इसका कारण जानने का कभी उद्योग किया है? यदि करें तो मूल में जो भूल मिलेगी, वह विचारवानों की जगत् के प्रति उपेक्षा वृत्ति ही होगी। आत्मसुख एवं मोक्ष के नाम पर भारत के अपरिपक्व आध्यात्म-विचारधारा में बहने वाले वैरागी, त्यागी एवं संन्यासी समुदाय ने, जगत को नियंत्रित रखते हुए गति करने के, अपने कर्त्तव्य को विस्मृत कर दिया था।

शासन-सत्ताओं में जहाँ वे प्राचीन काल में मन्त्रिमण्डलों में योग देकर राष्ट्र संचालन करते थे, वहाँ मध्यकाल के महापुरुषों ने इस योग्यता के उत्तरदायित्व को भुला दिया था। संसार से केवल भोजन मात्र का ही उनका नाता रह गया था। अयोग्य व्यक्ति राष्ट्र एवं समाज का अमर्यादित संचालन करने लगे थे, वासनाएं, तृष्णाएं, लोभ, जीवन में विषमता ला रही है, इस पर उनका ध्यान नहीं जाता था। क्योंकि उन्होंने संसार में सम्मिलित होना, उसके कार्यों में योग देना अपने उच्च पद से गिरना एवं दुःख का कारण मान रखा था। वे संसार के वातावरण से घृणा करते और लोगों में उसके प्रति घृणा का भाव फैलाकर उन्हीं की तरह मोक्षवादी भिक्षुक बनाने का उद्योग करते थे। इस प्रकार उनके इस घृणावाद से संसार का वातावरण दुःख, अशान्ति और असन्तोष से कलुषित हो गया है। संसार को आदर्श की दीक्षा देते हुए, उसका पथ-प्रदर्शन करते रहते तो उसकी यह दशा न होती, और वह दुःखमय न कहलाता। संसार सुखमय है किन्तु पुरुषों ने उसे दुःखमय बना डाला है।

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