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Magazine - Year 1956 - Version 2

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शिक्षा एवं संस्कृति का उद्देश्य

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श्री. कन्हैयालाल माणोकलाल मुन्शी

भारत आज स्वाधीन है; किन्तु अचानक मिली हुई स्वाधीनता अपने साथ समस्याओं के काले बादल भी लाई है। राजनीति के क्षेत्र में हम अल्पज्ञ हैं, शासन-भार सम्भालने की हममें क्षमता नहीं, राष्ट्र की उत्पादन-शक्ति क्षीण है, समुचित यातायात के साधन उपलब्ध नहीं हैं, सत्संग-सदाचार एवं सत्य-निष्ठा का पथ हमें दृष्टि-गत नहीं होता, हम मानवता को तिलाँजलि देकर दानवता के पैर पकड़े हुए हैं- इन आपदाओं से हमारा छुटकारा कैसे हो? यही प्रश्न आज हमारे सामने है। बिना इसे शीघ्र सुलझाए हमारा कल्याण नहीं, हमारे देश का कल्याण नहीं; और इस सुलझाव का सीधा मार्ग है हमारी शिक्षा एवं संस्कृति का पुनरुत्थान- हमारे विश्व-विद्यालयों की क्रियात्मक जागरूकता और प्राचीन आदर्शमय शिक्षा-पद्धतियों का वैज्ञानिक अनुसरण।

हमारी सतत् कामना है कि हमारा नव-जागरण अक्षुण्ण रहे, निरंतर गतिशील रहे; किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि हमारे विश्व-विद्यालय विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा दें, उन्हें इस प्रकार आदर्श नागरिकता के साँचे में ढालें कि वे राष्ट्र के नव-जागरण को स्थायी बनाये रखने में समर्थ हों। आज हमें वे विद्वान और कलाकार नहीं चाहिए जो ब्रिटिश सत्तावाद की जड़ के पोषक थे, आज तो हमें ऐसे जीवट के आदमी चाहिए जो राष्ट्र की सूखी नसों में नए रुधिर का संचार कर सकें और कंकाल को पुनः युवक बनाकर राष्ट्र के द्वार पर खड़ा कर दें।

भारत विश्व-भर का महान् पथ-प्रदर्शक रह चुका है। कालाँतर में यदि कुछ दिन के लिए उसने अपना अधिकार खो दिया तो क्या हुआ! वह पुनः शक्तिशाली हो गया है और अपने खोए हुए अधिकार को फिर प्राप्त करेगा।

शिक्षा कला है। हमारे जीवन की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के विभिन्न विषय शिक्षा के अंतर्गत ही आते हैं। इन विषयों का समुचित संगठन और प्रतिपादन ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। इनकी सम्पूर्णता ही जीवन की सम्पूर्णता है। हमारे प्राचीन आश्रम, गुरुकुल तथा विद्यापीठ इसी सम्पूर्णता की प्राप्ति के लिए अपनी साधना में तत्पर रहते थे। हमारे आज के विश्वविद्यालयों के आश्रमों की शिक्षा पद्धति ही अपनानी चाहिए। आज के आचार्य को केवल शिक्षा ही नहीं देनी है, उसे यह भी देखना है कि उसका विद्यार्थी उसका शिष्य संयमी, साहसी और गौरवशाली बनता है या नहीं? इसी प्रकार आज के विद्यार्थी को अपनी कक्षा में केवल उपस्थित ही नहीं रहना है, केवल परीक्षा ही नहीं पास करनी है, धरने-हड़तालें ही नहीं करनी हैं; बल्कि उसे जीवन निर्माण की शिक्षा में पारंगत होना है, आत्मोन्नति की कला सीखना है और अपने में जिज्ञासा की प्रवृत्ति जाग्रत करनी है।

सभी को विदित है कि पश्चिमी शिक्षा ने भारतीय शिक्षा पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला है। हमें इस विनाशकारी प्रभाव से बचना है। पश्चिमी शिक्षा भौतिकवाद की नींव पर आश्रित है और पश्चिमी लोगों को दिखावे और तड़क-भड़क में ही सच्चे जीवन का आनन्द प्राप्त होता है। उसके लिए गृहस्थाश्रम की पवित्र भावना का कोई मूल्य नहीं। बात-बात पर तलाक की धमकी वह अपनी स्वाधीन प्रवृत्ति का शुभ लक्षण समझता है। नैतिक उच्चता उसके लिए अव्यावहारिक और निरर्थक है। आए दिनों की हत्याएँ, लूटमार, अनाचार आदि उसके लिए साधारण बातें हैं। ऐसी सभ्यता को लेकर क्या भारतवर्ष पनप सकता है? उसे लोकतंत्र में विश्वास है। लोकतंत्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत नागरिक ही उसे अपेक्षित हैं। अतः आज के विद्यार्थी को अपने शिक्षा-काल में ही नागरिकता के समस्त गुणों को आत्मसात् कर लेना चाहिए और इसके लिए आवश्यक है कि उसे नियत समय तक साँस्कृतिक उत्थान-पतन की शिक्षा दी जाय। साथ ही राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से यह भी आवश्यक है कि विश्वविद्यालय शुद्ध वैज्ञानिक और याँत्रिक शिक्षा का भी उत्तम प्रबन्ध करें। राष्ट्रीय उत्थान के लिए ये विषय निताँत आवश्यक हैं। हाँ, इस सम्बन्ध में पश्चिम का अंधानुकरण करना उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता।

विद्यार्थियों को आरम्भ में सभ्यता और संस्कृति की ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे वे जीवन की पूर्णता की प्राप्ति ही अपनी साधना– अपना तप बनालें। ऐसी निर्माण-शिक्षा विद्यार्थी को अपने जीवन-निर्माण में बड़ी सहायक होगी।

आज का विद्यार्थी विश्वविद्यालय से उपाधि लेकर निकलता तो है, पर अपने को अपूर्ण, अयोग्य और दुःखी पाता है। उसे विश्वविद्यालय से यही मिलता है। जीवन में उसके लिए रस नहीं। इसी लिए यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालय विद्यार्थियों को तीन प्रकार की शिक्षा दे–

(1)मन की एकाग्रता, विवेचक शक्ति और संयम का पालन करना।

(2) तमाम निजी शक्तियों और कार्य को परस्पर सहयोगी बनाना और

(3) मनन की हुई सामग्री को व्यक्त करना।

विद्यार्थी इन तीनों गुणों को व्यवहार में ला सकता है, यदि उसे राष्ट्र निर्माताओं का जीवनी-साहित्य पढ़ाया जाए।

यह निर्विवाद है कि विद्यार्थी पर वातावरण का, निजी रुचि का और वंशगत भावनाओं का बड़ा प्रभाव पड़ता है। मातृभूमि का और उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है; किन्तु सबसे बड़ा प्रभाव तो उस संस्कृति का पड़ता है, जिसके प्रकाश में विद्यार्थी का लालन-पालन हुआ है। इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि अपनी संस्कृति का अध्ययन करने, उसे व्यक्त करने और अपने जीवन में उसी का अनुसरण करने का उसका उद्देश्य हो।

यहाँ सभ्यता और संस्कृति का अंतर स्पष्ट कर देना जरूरी है। दोनों में अन्तर है। संस्कृति अक्षुण्ण होती है, सभ्यता में परिवर्तन होता रहता है। सभ्यता जीवन-यापन के मार्ग को सरल और सुखदायक बनाने में सहायक और भौतिकता का पुट लिए होती है, संस्कृति युगाँतरकारी इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठो का सार होती है। हम भगवान् रामचन्द्र से सभ्यता के क्षेत्र में आगे हैं; क्योंकि हम वायुयान द्वारा यात्रा करते हैं, जबकि वे पैदल या नावों द्वारा ही चलते थे। परन्तु क्या हम सत्य बोलने में, आदर्शमय जीवन बिताने में, चरित्र-गठन की पटुता में एवं मानवीय भावनाओं का सुन्दर सामंजस्य करने में उनसे आगे हैं? ऐसा बिरला ही साहसी व्यक्ति होगा जो कहे कि हाँ, हम संस्कृति में रामचन्द्र-युग से आगे बढ़े हैं, हमने प्रगति की है।

प्रख्यात वैज्ञानिक यदि बुरा पति है तो वह शिक्षित नहीं, ख्यातिनामा वकील यदि श्रेष्ठ नागरिक नहीं तो वह सुशिक्षित नहीं और स्वदेश प्रेमी यदि नैतिक पतन के गड्ढे में गिर गया है, तो वह भी शिक्षित नहीं कहा जा सकता। विद्यार्थियों के लिए दो बातें बड़ी आवश्यक हैं। प्रथम तो यह कि वह अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति एवं विचारधारा को पुष्ट बनाए, विचार करे और उसे प्रकाश में लाए तथा उसका लक्ष्य यह हो कि उसी उद्देश्य की पूर्ति में वह अपना जीवन खपा दे। दूसरा यह कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्त करे जो उसे स्वयं को आगे बढ़ाने में सहायक हो और जिसकी सहायता से वह अपने जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सके।

हमारे विद्यालयों को चाहिए कि वे विद्यार्थी के जीवन की सर्वांगीण उन्नति की ओर तो देखे ही, साथ ही उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के एकीकरण की ओर भी उनका ध्यान जाना परमावश्यक है।

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