
परिस्थितियों की प्रतिकूलता
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(प्रो. लालजीराम शुक्ल)
मनुष्य को हर समय अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जो व्यक्ति सफलतापूर्वक इन समस्याओं का हल कर लेता है, उसका जीवन सुखी रहता है, किन्तु जो सामने की समस्याओं से भागने का प्रयत्न करता है, वह सदा दुःखी रहता है। समस्याओं का हल अपने आपको समझने अपनी शक्ति पहचानने और आत्म-संयम करने का साधन मात्र है। जिस मनुष्य में अपने विचारों पर नियंत्रण रखने और उन्हें सुव्यवस्थित करने की जितनी शक्ति होती है, वह अपनी परिस्थितिजन्य समस्याओं को हल करने में उतना ही समर्थ होता है। अपने विचारों को नियंत्रित न रखने से परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाती हैं तथा साधारण समस्याएँ भी भयंकर दिखाई देने लगती हैं।
जब मनुष्य में निकम्मापन आता है तो वह अपनी अकर्मण्यता का दोष वातावरण के सिर मढ़ने लगता है। इस प्रकार का मिथ्या आत्म-संतोष प्राप्त करता है पर उससे उसका मानसिक क्लेश नष्ट नहीं होता, अपितु वह और भी बढ़ जाता है। जो लोग जीवन में बड़े ऊँचे आदर्श रखते हैं, वे अपने आदर्श जीवन के अनुसार आचरण न कर सकने के लिये प्रायः अपनी परिस्थितिओं को ही कोसा करते हैं। इस प्रकार का दोषारोपण मनुष्य की दूसरों की सेवा न करने की इच्छा का ही परिणाम है। जब मनुष्य में स्वार्थपरायणता आती है तो उसके मन में भय और चिन्ताएँ आने लगती हैं। ये भय और चिन्ताएँ मानसिक शक्ति को नष्ट कर देती हैं। इस प्रकार मनुष्य में निराशा भर आती है। वह किसी भी काम में सफलता की सम्भावना नहीं देखता। वह अपने शत्रुओं से घिरा पाता है। वह दूसरों की हृदय से सेवा नहीं करना चाहता, पर वह इस बात को स्वीकार न कर वातावरण में अपनी अकर्मण्यता का कारण ढूंढ़ता है। पैसे की कमी, मित्रों की कमी, समाज की पूर्वावस्था आदि बातें शुभ काम के करने में रुकावट डालने लगती है। कभी-कभी कल्पित अथवा वास्तविक डडडडड कथा में डडडड डडडड डडडड हैं
एक दिन मुझे अपना एक पुराना शिष्य मिला, जो अब एक कॉलेज का प्रोफेसर है। हाल ही में उसने विवाह किया है। बड़ा श्रद्धालु है, जब वह आया तो उसने मेरा अभिवादन किया। उसकी स्त्री ने भी अभिवादन किया। मैंने सुझाया कि अब उसे राष्ट्र-सेवा करने की अच्छी सुविधा है। उसकी धर्मपत्नी सुशील, आज्ञाकारिणी और भारतीय संस्कृति के अनुसार पली है। उसे देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। मेरी बात सुनकर शिष्य ने कहा कि विवाह झंझट है। विवाह के पश्चात् मनुष्य देश सेवा नहीं कर सकता। उसे आजीविका की ही परेशानी रहती है। फिर वह अपनी विषम समस्याओं और परिस्थितियों की चर्चा करने लगा। उसका कथन था कि अनुकूल परिस्थितियों के बिना कोई व्यक्ति संसार में बड़ा काम नहीं कर सकता। उसने अपने कॉलेज के अधिकारी के प्रतिकूल होने की चर्चा की। उसी प्रकार अपने मित्रों द्वारा ठगे जाने की भी कहानी सुनाई।
इस प्रकार के विचार सामान्य नवयुवकों के होते हैं, जो उन्हें निकम्मा बना देते हैं। ऐसे विचारों के कारण मनुष्य अपने आस-पास प्रतिकूल वातावरण पैदा कर लेता है। वह सोचता है कि वातावरण किसी भी प्रकार के विचारों तथा आचरण का कारण होता है। विचार और आचरण वातावरण में उपस्थित परिस्थितियों के परिणाम-मात्र होते हैं। इस प्रकार की मनोवृत्ति निकम्मे व्यक्ति में होती है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से बचना चाहता है, वह उक्त विचार को दृढ़ता से पकड़ लेता है। मानसिक तथा शारीरिक रोगी वातावरण को ही अपने रोग का कारण ठहराते हैं। मनुष्य को रोग नहीं होता तब भी वह रोग की कल्पना कर लेता है, जिससे वह अपने प्रमाद का कोई बहाना बताकर अपनी कर्त्तव्य-बुद्धि को धोखा दे सके। जिस प्रकार हम दूसरों को धोखा देने की चेष्टा करते हैं, उसी प्रकार हम अपने आप को भी धोखा देते हैं। जब तक मनुष्य में धोखा देने की मनोवृत्ति का अन्त नहीं होता, वह अपने आप में भले काम करने की शक्ति नहीं पाता। धोखा देने की मनोवृत्ति से मानसिक शक्ति का उदय न होकर विनाश ही होता है।
जब मनुष्य आध्यात्मिक रूप से विचार करने लगता है तो वह अपने आचरण और सफलता का कारण अपने विचारों को ही पाता है। मनुष्य के विचार उसके जीवन से सम्बन्ध रखने वाली सभी वस्तुओं के कारण होते हैं। जैसे हम होते हैं वैसा ही हमारा संसार होता है। हम संसार के पदार्थों को अपनी बुद्धि के अनुरूप ही पाते हैं। यह मनोविज्ञान का सामान्य सिद्धान्त है। हमारे सामने रक्खा हुआ पदार्थ भी हमारे संस्कारों, कल्पनाओं और विचारों के अनुसार दिखाई देता है। जिस प्रकार की भावनाएं हमारे मन में रहती हैं, बाह्य पदार्थ वैसे ही दिल में दिखाई देने लगता है।
किसी व्यक्ति को भले अथवा बुरे मनुष्य उसके विचारों के अनुसार मिला करते हैं। जो व्यक्ति अपने आप से परेशान है वह परेशान करने वाले व्यक्तियों से स्वयं को घिरा पाता है। भले विचार वाले व्यक्ति को भले मनुष्य मिलते हैं, और बुरे विचार वाले व्यक्ति को बुरे।
उक्त प्रकार के वातावरण की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है। पहले तो मनुष्य की दूषित मनोवृत्ति भले मनुष्य में भी उसे बुराई ही दिखलाती है। जब कोई मनुष्य किसी व्यक्ति के विषय में दुर्भावना बना लेता है तो उक्त व्यक्ति की सभी बातों का वह विशेष प्रकार का अर्थ लगाने लगता है। यदि वह उसकी कुशलता पूछने आवे तो वह सोचता है कि वह उसके प्रति षड़यन्त्र कर रहा है। यदि वह उसकी बड़ाई करे तो वह समझता है कि चापलूसी कर रहा है, अथवा उसे धोखे में डाले रखना चाहता है। यदि वह उदासीन रहे तो समझता है वह शत्रुता के कारण नहीं बोलता। छोटी-छोटी बातों के विचित्र प्रकार के अर्थ लगा लिए जाते हैं। इस प्रकार के अर्थ लगाने से वास्तव में वह व्यक्ति बदल जाता है। जब हमारी साधारण बातों का कोई व्यक्ति विचित्र अर्थ लगाता है तो हम उस व्यक्ति के प्रति उसके विचारों के अनुरूप हो जाते हैं। यह परिवर्तन अज्ञात रूप से होता है। एक प्रकार की बीमारी में व्यक्ति सोचता है कि सारा संसार उसके प्रति षड़यन्त्र कर रहा है। इसके पर्याप्त प्रमाण भी उसे मिल जाते हैं। उन प्रमाणों को वह दूसरे से भी नहीं कहता। वह सोचता है कि उसकी बातें सुनने वाला उसके शत्रुओं से कह देगा और उससे वे अनुचित लाभ उठायेंगे।
वातावरण में परिवर्तन आध्यात्मिक आकर्षण के कारण भी होता है। जैसे मनुष्य के विचार होते हैं, उन्हीं के अनुसार दूसरे लोग अथवा परिस्थितियाँ उनके समक्ष आती हैं। कोई भी व्यक्ति हमारे पास इसलिए आता है कि हमारे भीतरी मन में उसके आने की आवश्यकता है। अपने स्वभाव को न जानने के कारण ही मनुष्य दूसरे लोगों के आचरण से परेशान रहता है, अथवा परिस्थितियों की प्रतिकूलता की शिकायत करता है। अपना ही स्वभाव प्रतिकूल परिस्थितियाँ उपस्थित करता है। इस प्रकार की परिस्थितियाँ हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक होती हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है—समान पंखों के पक्षी एक साथ उड़ते हैं। जो जैसा होता है, उसको वैसा ही व्यक्ति मिल जाता है। हम सदा अपने ही जैसे व्यक्तियों को अज्ञात जगत् में आकर्षित करते हैं और दूर-दूर से हमारे जैसे व्यक्ति संपर्क में आ जाते हैं। सभी व्यक्तियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर उनके विचार ही ले जाते हैं। विचार के आ जाने पर एक जगह से दूसरी जगह जाने का कारण भी मिल जाता है। विचार की उत्पत्ति आन्तरिक प्रेरणा से होती है।
सभी घटनाओं के दो कारण होते हैं—एक भीतरी और दूसरा बाहरी। हम जिन कारणों को घटना का कारण सोचते हैं वे प्रायः उनके बाहरी कारण मात्र होते हैं। ये कारण घटना के उतने महत्वपूर्ण कारण नहीं होते जितने आन्तरिक कारण हैं। आन्तरिक कारणों पर हमारा विचार प्रायः नहीं जाता। उसके लिए शान्त विचार की आवश्यकता होती है। अपने वैयक्तिक स्वार्थ से ऊपर उठने पर ही मनुष्य को आन्तरिक तथा वास्तविक कारण का पता चलता है। घटना का आन्तरिक कारण सूक्ष्म विचार होता है। जिस मनुष्य को जिस बात का भय होता है उसके जीवन में वह बात घटित हो जाती है, वह चाहे उसके प्रति कितना ही सतर्क क्यों न रहे। उस घटना को उसका विचार ही घटित करता है। इसी प्रकार संदेह-रहित शुभ विचार भी फलित होता है। हम जिस प्रकार के लोगों को चाहते हैं वे अनायास हमारे प्रति आकर्षित होते हैं। हमारा विचार देश और काल के प्रतिबन्ध को नहीं मानता। विचार की कोई सीमा नहीं है और उसकी गति का कोई माप नहीं। एक क्षण में विचार सारी सृष्टि की परिक्रमा कर सकता है। उसकी शक्ति भी अमोघ है। अतएव जिस व्यक्ति को हम चाहते हैं उसके आन्तरिक मन में अज्ञात प्रेरणा हमारी ओर की हो जाती है, पर यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि यह चाह ऊपरी चाह न हो, भीतरी मन की चाह हो। भीतरी मन जिन बातों को चाहता है वे ही बातें हमारे जीवन में घटित होती हैं। जब मनुष्य का भीतरी मन साँसारिक सफलता चाहता है तो उसे साँसारिक सफलता मिलती है, जब वह जीवन चाहता है तो उसे जीवन मिलता है, जब उसके मन में मृत्यु की इच्छा होती है तो मृत्यु भी उसे प्राप्त हो जाती है।
जो मनुष्य समाज की सेवा करना चाहता है उसे सभी प्रकार की परिस्थितियाँ अनुकूल दिखाई देती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी हमारे अनुकूल हो जाती हैं। जो व्यक्ति परिस्थितियों से नहीं डरता उससे परिस्थितियाँ डरती हैं और उसके अनुकूल हो जाती हैं। समाज की सेवा कोई दूर की वस्तु नहीं है। वह सब जगह हमारे समक्ष रहती है। यदि कोई मनुष्य समाज की अधिक सेवा न कर अपनी स्त्री का मन ही प्रसन्न करके रखता है, अपने बालकों को सुशिक्षित बनाता है तो वह समाज की भारी सेवा करता है। समाज व्यक्तियों का बना है। समाज के एक भी व्यक्ति को प्रसन्नचित्त करना समाज के अन्य व्यक्तियों के प्रति भारी सेवा है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति को देखकर दूसरे लोग भी प्रसन्न हो जाते हैं। स्वास्थ्य और रोग दोनों ही संक्रामक होते हैं। रोते हुए व्यक्ति रोते हुओं की संख्या बढ़ाते हैं। वे अपना रोग दूसरे लोगों में फैलाते हैं। जो अपने आप सुखी है, वह दूसरे व्यक्ति को भी सुखी बनाता है। जो अपने आप दुःखी है, वह दूसरे को भी दुःखी कर देता है। अतएव संसार के एक भी मनुष्य को प्रसन्न बनाना उसकी भारी सेवा है। मन की प्रसन्नता धन की सम्पत्ति वृद्धि से नहीं आती वरन् आशावाद की वृद्धि और स्वार्थपरता के त्याग से आती है। जो व्यक्ति अपने भाई-बंदों में उन गुणों की वृद्धि करता है, वह धन्य है, उसकी समाज-सेवा अमूल्य है।
वास्तव में मनुष्य समाज की सेवा नहीं करना चाहता। वह उसे अपने स्वार्थ का साधन मात्र बनाना चाहता है। जिस सेवा का ढिंढोरा पीटा जाता है; वही उसे अच्छी लगती है। जिसका ढिंढोरा नहीं पीटा जाता; उससे वह भागता है। पर सच्ची समाज सेवा दूसरे व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन की है। इसके लिए सच्चे आचरण की आवश्यकता है। इस प्रकार का आचरण करना बड़ा कठिन है। यदि एक गृहस्थ अपनी पारिवारिक समस्याओं को हल कर लेता है तो वह दूसरे लोगों को भी अपने आचरण से शिक्षा देता है। इस प्रकार वह सुखी परिवारों की संख्या बढ़ाता है। यहाँ दृष्टिकोण के परिवर्तन मात्र की आवश्यकता है। व्यक्ति अपने लिए जी कर सुखी नहीं रह सकता। अपने सभी कामों को समाज अथवा विश्वात्मा के प्रति समर्पित करने से ही सुखी हो सकता है। समाज के प्रति कल्याण का भाव रखना उसकी भारी सेवा है। दूसरों का सदा कल्याण चाहना, उनकी बाहरी सेवा करने से भी अधिक मौलिक कार्य है। पर यह वही व्यक्ति कर सकता है जो सदा अपनी परिस्थितियों से संतुष्ट रहता है और जिसका मन प्रसन्न है। निराशाग्रस्त व्यक्ति संसार में निराशा का ही प्रचार करता है। जिस व्यक्ति में आत्म विश्वास है, वह दूसरों को भी आत्म-विश्वास प्रदान करता है। समाज की सच्ची सेवा उन्हें अपने ऊपर निर्भर बनाने में कही, उन्हें स्वावलम्बी बनाने, उनमें आत्म-विश्वास उत्पन्न करने में है।