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Magazine - Year 1956 - Version 2

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भगवान का अनन्त भण्डार

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(श्री. लावेल फिल्मोर)

स्मरण रखिये कि उत्तम से उत्तम बीज, जब तक आप उसे बोयेंगे नहीं, तब तक आपको कोई फल नहीं दे सकता। यदि आप बीज को हाथ में ही रक्खे रहेंगे तो वह उग नहीं सकता और न उसमें फल ही लग सकते हैं। इसके लिए आपको बीज प्रकृति माता को सौंपना होगा तथा उसकी चमत्कारिक शक्ति एवं चतुराई पर विश्वास करना होगा,जिसके बल पर वह वस्तुओं का निर्माण करती है, जिसे आप नहीं कर सकते अथवा समझ तक नहीं सकते। आप खेत को जोत-जातकर तैयार कर सकते हैं, बीज बो सकते हैं तथा सिंचाई आदि कर सकते हैं, किंतु बीज को अंकुरित तथा धीरे-धीरे विकसित करने वाले तो भगवान ही हैं। वह सार्वभौमिक सिद्धान्त है।

हम अपनी मानुषिक शक्ति के सहारे अनेकों कार्य आरम्भ कर सकते हैं, किंतु हमें उस दैवी-शक्ति पर विश्वास रखना चाहिये क्योंकि सभी कार्य हमसे पूरे नहीं हो सकते। हम भोजन कर सकते हैं किंतु हम यह नहीं जानते कि उस भोजन का रूपांतर रक्त, हड्डी, बाल, स्नायु तथा नसों में किस प्रकार हो जाता है।

भगवान की शक्ति को हम भलीभाँति समझते नहीं, अन्यथा उस श्रेष्ठ शक्ति की सुरक्षा में अपने बीज, धन एवं सामाजिक तथा राजनीतिक मामलों को भी समर्पण कर देने में एक विशेष चमत्कार है अर्थात् अपने सभी मामलों को उनके ऊपर छोड़ देने से विलक्षण सफलता प्राप्त हो सकती है।

अधिकाँश लोग इस बात को जानते हैं कि जो धन संग्रह करके तिजोरी में रख दिया जाता है या गाड़ दिया जाता है तथा किसी भी कार्य में जिसका उपयोग नहीं किया जाता, वह धन न तो बढ़ता ही है और न हमें कुछ सुख-सुविधा देता है; किंतु जो धन व्यय किया जाता है, वह बदले में हमें ऐसी वस्तुएं देता है जिनके उपयोग से हम सुखी एवं प्रसन्न होते हैं।

कंजूसी के साथ वस्तुओं को रख छोड़ने से वस्तुओं की हमें सुख पहुँचाने वाली क्षमता सीमित हो जाती है। हमारे परिवार वाले तथा हमारे मित्र अपने पूर्ण सामर्थ्य भर हमारा हित तभी कर सकते हैं जब हम अपने उत्पीड़क शासन से उन्हें मुक्त कर दें। यदि उन्हें इस बात की स्वतन्त्रता दे दें कि वे अपने स्वाभाविक ढंग से भगवदाज्ञा का पालन करे तो वे और हम संसार से अधिक लाभ उठा सकते हैं।

यद्यपि धरती में बीज फेंक देने के लिए भी कुछ विश्वास की आवश्यकता है; किंतु अपने मित्रों को उनके निजी ढंग से भगवदिच्छा के अनुरूप कार्य करने के लिये स्वतन्त्रता प्रदान करने में अधिक विश्वास की आवश्यकता है। कभी-कभी तो केवल अपने को ही बुद्धिमान समझकर व्यर्थ ही हमें यह भय हो जाता है कि यदि हम अमुक व्यक्ति को अक्षरशः नहीं बताते जाएंगे तो वह कार्य पूरा न कर सकेगा।

बच्चों के लिये यह आवश्यक है कि उन्हें अपने भय से मुक्त कर दिया जाय और वे स्वतन्त्र भावना वाले बनें। हमारा यह तात्पर्य नहीं है कि उच्छृंखल होकर स्वच्छन्दता पूर्वक मनमानी करने के लिये छोड़ दिये जायँ हमारा तात्पर्य तो इतना ही है कि वे इस बात का अनुभव करें कि अपने ढंग पर अपनी बुद्धि का परिचय देने के लिए किसी सीमा तक वे स्वतन्त्र हैं। रचनात्मक एवं उपयोगी कार्य करने में उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रार्थना एवं अपने कार्यों के उदाहरणों द्वारा उनका पथ-प्रदर्शन किया जा सकता है।

यदि आपमें प्रतिभा है तो उसे भय एवं संशयों से मुक्त कीजिये तथा अपनी क्षमता के अनुसार उसका परिचय दीजिये। अपनी प्रतिभा को भगवान् के चरण कमलों में समर्पित कर दीजिये। यह धरती में बीज बोने के समान ही होगा। यदि आपकी प्रतिभा सच्ची है तो वह भगवान् की एक देन है; और जब वह भय, संशयों तथा बाधाओं से मुक्त होकर अपना मूल्य निर्धारित कराने के लिये विकास की ओर जाने दी जायगी तब वह बढ़ेगी और उसका सुन्दर फल प्राप्त होगा।

दान से वस्तु घटती नहीं, वरन् बढ़ती है। यदि आपके पास कोई उत्तम वस्तु है तो आप उसे दूसरों को भी दीजिए, इसके फल स्वरूप आपको वह वस्तु अधिक परिमाण में मिलेगी। यदि आपके मन में कोई अच्छा भाव है तो उसे भी लोगों में वितरित कीजिये; हाँ, बलपूर्वक किसी के गले के नीचे उतारने की आवश्यकता नहीं, किंतु जो प्रसन्नतापूर्वक उस भाव को ग्रहण करना चाहें उन्हें बिना किसी मूल्य के अपने उत्तम भाव का भागीदार बनाइये।

बहुधा प्रफुल्लता उत्पन्न करने वाला एक शब्द, जो दूसरों के लिए कहा गया हो, उनके तथा आपके भी जीवन को चमका सकता है। एक जलती हुई मोमबत्ती से आप हजारों मोमबत्तियाँ जला सकते हैं और फिर भी पहली वाली ज्यों-की-त्यों जलती रहेगी।

मनुष्यों के एक दल में दैवी गुणों का आना सचमुच वैसा ही जैसा कि एक स्त्री द्वारा थोड़े से खमीर को उससे तिगुने भोजन में मिलाना, जो अपनी बढ़ने वाली शक्ति के कारण तब तक बढ़ता रहा जब तक कि पूरे भोजन को उसने अपना जैसा खमीर नहीं बना लिया। वह थोड़ा-सा खमीर उस भोजन में स्वयं विलीन नहीं हो गया, किंतु उस भोजन में प्रवेश करके उसने उसे भी उन्नत अवस्था में पहुँचा दिया और अपने रूप को कई गुना अधिक बढ़ा लिया। इसी प्रकार सत्य का एक शब्द वह उस व्यक्ति के द्वारा चाहे बोला गया हो या आचरण में लाया गया हो, जो दूसरों को प्रदान करने में पर्याप्त विश्वास रखता हो- बहुतों में दैवी गुणों को ला देगा।

निस्संदेह मेरे कुछ पाठकों ने यह अनुभव किया है कि अपने जीवन में आयी हुई कठिन समस्या हो जब उन्होंने भगवान् पर छोड़ दिया है तब उन्हें अच्छा फल मिला है। उस स्थिति में कुछ भी अनुकूलता और अच्छाई थी, उसकी वृद्धि हुई एवं प्रतिकूलता तथा बुराई घटने लगी और शीघ्र ही विलीन हो गयी।

जो अपने समस्त धन को भगवान् को अर्पण कर देता है और दैवी आज्ञा के अनुकूल ही उसे व्यय करता है, उसका धन बढ़ता है तथा उसे अधिक सुख देने वाला होता है। बहुतों ने यह अनुभव किया है कि अपनी आय का दशमाँश भगवत् कार्य में लगाने से उन्हें बहुत अधिक आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हुई है।

बहुतों की सफलता में निश्चय रूप से यही बाधा आ पड़ती है कि वे कम हो जाने के डर से अपनी प्राप्त वस्तु में से किसी को कुछ देते ही नहीं। कहावत है ‘धरम किये धन ना घटे जो सहाय रघुवीर’। ऐसी भी कहावत है कि ‘सूम का धन शैतान खाये।’ कहने का तात्पर्य यह कि धर्म के काम में धन लुटाने से वह और बढ़ता है; किंतु जो कंजूसी के साथ उसका संग्रह कर रखता है उसे सदा कमी का ही अनुभव होता है। किंतु खुले हाथ दान देने का अर्थ मूर्खता के साथ धन का लुटाना कभी नहीं है। हम जो भी करें उसमें विश्वास, प्रेम और बुद्धिमानी का उपयोग अवश्य करें। ये तीनों गुण भगवान् के हैं, जो समस्त गुणों के एकमात्र मूल कारण हैं।

जो भगवदाज्ञा के अनुकूल चलेगा, वह कभी असफल नहीं हो सकता। अपनी वस्तु, सहायता करने की क्षमता, दयालुता या जो भी हमारे पास देने को है, उसे हम भय के कारण नहीं देते; अपने ही पास रख छोड़ते हैं। इसका यह परिणाम होता है कि स्वयं हमारे हित के लिये भी इन वस्तुओं के बढ़ने का अवसर नहीं आता; कंजूसी की भावना से किसी वस्तु को अपने ही पास रख छोड़ने का एक सुन्दर दृष्टांत मेरे मस्तिष्क में आया, जिसका अनुभव मेरी समझ से और भी कई फूल उगाने वालों ने किया होगा।

एक बार मेरे पास एक पुष्प विशेष की अनेक जातियाँ थीं। पुष्प-वृक्ष के कई कुञ्जों को मैंने वर्षों तक उसी स्थान में रक्खा। कुछ वर्षों में वे कुँज घने हो गये, किंतु वृक्षों की दशा ठीक नहीं थी। तब मैंने उनमें से कई पौधों को उखाड़कर अपने मित्रों को दे दिया। दूसरे वर्ष जिस कुँज से मैंने पौधे उखाड़े थे, उसके पौधों की दशा बड़ी अच्छी हो गई तथा पहले की अपेक्षा उनमें अधिक एवं उत्तम फूल फूले, साथ ही मेरे मित्रों के पौधे भी खूब बढ़े और फूले।

सफलता के पीछे जो दैवी सिद्धान्त काम करता है उसे यों कह सकते हैं, जितना अधिक आपको मिला हो उतना ही अधिक आप दीजिये। प्रत्येक अच्छी वस्तु को संभवतः जितना उपयोग हम कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक भगवान् ने हम सबको दिया है। हमें अधिक परिमाण में सब वस्तुएँ मिली हैं, इसको सिद्ध करने का सबसे उत्तम मार्ग भगवान् के प्रति कृतज्ञ होना तथा भगवान् के कार्य में उन वस्तुओं का बुद्धिमानी तथा निर्भयता के साथ उपयोग करना है।

सबसे पहले हमें अपने अभावमय संकुचित विश्वास से इन वस्तुओं को मुक्त करना होगा अर्थात् ऐसा सोचना छोड़ना होगा कि अपनी वस्तुओं का उपयोग कर डालेंगे तो ये कम हो जायेंगी और फिर हम अभाव में पड़ जाएंगे। भगवान् की असीमता पर विश्वास उत्पन्न करके ही हम ऐसा विचार ला सकते हैं। हमें विश्वास करना होगा कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक स्थान पर विद्यमान हैं। हमारे विश्वास के बल से वह अच्छी वस्तु हमें प्राप्त हो जायगी जिसे परम पिता ने हमारे लिए बनाया है।

भगवान ने हमें सभी वस्तुएँ दी हैं, किंतु हमें यह सीखना चाहिए कि अपने जीवन में हम इनका किस प्रकार व्यवहार करें जिससे ये हमारे काम आने लायक हो जायँ। भगवान् के दिए हुए बीज को लेकर हम बो देते हैं, किंतु उस बीज की वृद्धि भगवान् ही करते हैं और कुछ बीज के बदले में हमें मनों अनाज का ढेर दे देते हैं।

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