
भारतीय संस्कृति में त्याग की परम्परा
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(श्री. कन्हैयालाल श्रीवास्तव बी. ए. रसिया)
गीता के बारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में भगवान ने कहा है “मर्म को न जान कर किये हुये अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है। ज्ञान से मुझ परमेश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त होती है।”
यही त्याग की परम्परा भारत में अनादि काल से चली आ रही है पश्चिम भारत के ऐतिहासिक महापुरुषों में वीरता, साहस, धैर्य, बुद्धिमत्ता और समय की परख के साथ जब तक त्याग की भावना मिश्रित न हुई, भारतीय जन जीवन में उन्हें श्रेष्ठ स्थान प्राप्त न हो सका। यह परम्परा पश्चिमी देशों के ऐतिहासिक परम्परा से कुछ भिन्न है। वहाँ के लोक नायकों में त्याग की भावना को इतना महत्व नहीं दिया जाता है।
भारत के उत्थान और पतन का इतिहास ही इस भावना से जुड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। जब-जब त्यागी पुरुष और नेता पैदा होते गये देश उन्नति करता रहा परन्तु जब इस भावना की गति धीमी पड़ी इतिहास की धारा ही दूसरे ओर मुड़ने लगी।
महाराज हरिश्चंद्र, महर्षि दधीच आदि को त्यागी होने के कारण ही यश और अमरत्व प्राप्त हुआ!
भगवान रामचन्द्र जी के जीवन से यदि पिता की आज्ञा को मानकर राज का त्याग और बन गमन तथा सीता जी को त्याग कर आदर्श लोक हितकारी ‘राज की स्थापना’ का अंश निकाल दिया जाय तो वह एक साधारण शासक की कोटि में आ जाते हैं! यही बात कृष्णजी के जीवन में भी दिखाई पड़ती है उन्होंने कोई भी कार्य निज हित के लिये नहीं किया। कंस को मार कर मथुरा का राज न तो उन्होंने स्वयं लिया और न अपने पिता वासुदेव जी को ही दिया। जरासन्धबध के पश्चात मगध का राज्य उसी के पुत्र को सौंपा। महाभारत के भीषण नर संहार का उत्तरदायित्व बहुत अंशों में कृष्णजी पर आता है। युद्ध के पश्चात स्वयं गाँधारी ने उन्हें इसीलिये आप भी दिया था कि यदि वे (कृष्ण जी) चाहते तो बलपूर्वक युद्ध को रोक सकते थे। यह सारी लीला कृष्ण जी ने अधर्म को मिटकर धर्म राज की स्थापन के लिये किया था। युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर को राज तिलक देकर स्वयं द्वारिका को चले गये।
सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना करने वाला त्यागी चाणक्य था। राज का सारा वैभव चन्द्र गुप्त के लिये था और चाणक्य पहाड़ी पर एक फूस की कुटी में निवास करके सन्तुष्ट रहता था। विद्यार्थियों द्वारा भिक्षा में लाये हुये अन्न से अपना जीवन निर्वाह करता था।
सम्राट अशोक को बौद्ध जगत में जो ख्याति प्राप्त हुई वह उनके त्यागी जीवन का परिणाम था। युद्ध का त्याग कर उन्हें सत्य और अहिंसा का सन्देश घर-घर पहुँचाया। पुत्र और पुत्री को भिक्षु बनाकर तथागत को सन्देश सुनाने लंका भेजा।
यही भावना इसके पश्चात गुप्ता वंश में भी दिखाई पड़ती है प्रसिद्ध गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त को अकसर लोग यूरोप का नैपोलियन कहकर सम्बोधित करते हैं। उस समय लोग भूल जाते हैं कि दोनों में जमीन और आसमान का अन्तर था। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि नैपोलियन यूरोप का ही नहीं वरन् संसार का अद्वितीय वीर था उसने फ्राँस का नाम यूरोप में चमकाया और यूरोप में एक नई क्रान्ति पैदा की परन्तु समुद्र गुप्त से उसकी कोई तुलना नहीं। समुद्र गुप्त ने दक्षिण पथ की विजय करके राजाओं को केवल अपनी करद ही बनाया परन्तु नेपोलियन ने आस्ट्रिया में जोजेफ बोनापार्ट, West phialia में जैराम बोनापार्ट स्पेन में अपने अन्य भाइयों को ही राजा बनाया। बहुत से देशों को फ्राँसीसी साम्राज्य में भी मिला लिया।
वाटर लू के युद्ध में पराजित होने के बाद भी नैपोलियन की स्वार्थी भावना न गई। एक स्वाभिमानी वारी की तरह उसने अपने को न प्रकट किया। कीरसीका द्वीप में अपने अन्तिम समय में वह कारागार में बैठा अपने पुत्रों के लिये विरासत नामा लिख रहा था।
मध्य युग में त्याग वृति की गति मन्द दिखाई पड़ती है। राजपूत राजे निज स्वार्थ के लिये लाखों व्यक्तियों का खून बहा देने में न हिचकते थे। पृथ्वीराज ने प्रेयसी संयोगिता के लिये अपने नामी-नामी सात सौ वीर सरदारों का वध करा दिया परिणाम हमारे सामने है। भारत पर विदेशियों ने अधिकार किया और देश गुलाम बना। यह हमारा पतन काल था।
राजपूताने में स्त्रियाँ राणा प्रताप के गीत इसीलिये गाती हैं कि उस नर सपूत ने विशाल साम्राज्य के सम्राट अकबर के सामने सर न झुकाया और 14 वर्षों तक राज पाट त्याग कर जंगल की खाक छानता रहा। शिवाजी ने अपना राज कई बार समर्थ गुरु रामदास के चरणों में भेंट कर दिया था। वह अपने को केवल राज का प्रबन्धक ही समझते थे।
भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद भी त्याग की गति के दोनों पहलू दिखाई पड़ते हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 के असफलता के अनेक कारणों में से एक प्रमुख कारण यह भी था कि अधिकाँश नेता निजी स्वार्थों को ही ध्यान में रखकर युद्ध का संचालन कर रहे थे। झाँसी की रानी का शौर्य हमारे सामने न प्रगट होता यदि झाँसी राज अंग्रेजी राज्य में न मिला लिया जाता जनहित की भावना से यदि यह संग्राम लड़ा जाता तो अंग्रेज भारत से 110 वर्ष पूर्व ही चले गये होते।
लेकिन काँग्रेस के स्थापना काल से ज्यों-ज्यों त्यागी दयानन्द सरस्वती, राजाराम मोहनराय, ईश्वरचन्द विद्या सागर, लोक मान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, फीरोज शाह मेहता, लाला लाजपत राय, गाँधी, जवाहर और पटेल व अन्य ज्ञात अथवा अज्ञात नेता पैदा होते गये, भारत की बेड़िया क्रमशः टूटती गईं। वह पुण्य बेला भी आई जब हम अपने को स्वतन्त्र कह सकें।
क्या यह दिवस राष्ट्र पिता बापू के त्याग का ही परिणाम नहीं है?
त्यागी और भोगी में केवल भावनाओं का ही अन्तर होता है। त्यागी निज हित की परवाह न करके जन हित का चिन्तन करके अपना कार्य करता है और भोगी की सारी क्रियायें निज हित के लिये होती हैं। विश्व का कोई भी व्यक्ति त्यागी बने बिना सच्चे यश का अधिकारी नहीं बन सकता।