
दया, क्षमा, और दण्ड का यथार्थ उपयोग
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[ प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए. ]
भारतीय संस्कृति में मनुष्य के कल्याण के अनेक विधान हैं। हिन्दू धर्म के ऋषि मुनियों ने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर गंभीरता से विचार कर शास्त्रों की परम्पराएँ निश्चित की हैं। हमारी संस्कृति अधम से अधम और पतित से पतित के उद्धम और कल्याण की कामना से परिपूर्ण है। चाहे कोई कितना ही क्यों न गिर गया हो, समाज ने उसे कितना ही पतित क्यों न मान लिया हो, उसके लिए भी हिन्दू धर्म नई आशा और नए उत्साह का आह्लादकारी सन्देश लिए हुए है। दया, क्षमा और दंड इन तीनों के उचित उपयोग से ही यह संभव होता है। अतः इनका मर्म ठीक प्रकार समझ लेना चाहिए।
दया आपका मनुष्योचित धर्म है। जो कष्ट में है, सहायता के लिए कराह रहा है, वह आपकी दया का पात्र है। जो तुम से दुर्बल है, कम आयु के हैं, गिरी हुई स्थिति में हैं, उन पर निश्चय ही दया करनी चाहिए। दया आपका कर्त्तव्य है। दूसरों की सेवा करना ही ऊपरी सेवा करना है। पूर्ण मनुष्यत्व केवल साहस और वीरता से ही नहीं बनता, उसमें दया जैसे कोमल भाव की बहुत आवश्यकता है।
दया ही वह दिव्य गुण है, जिसके द्वारा ईश्वर आपसे अपने बन्धुओं की सहायता चाहता है। रोगियों का रोग दूर करने, दरिद्री को दारिद्रय से उबारने, दुखियों का दुःख दूर करने और मानवता की रक्षा के लिए दया एक महत्वपूर्ण सद्गुण है। इसे धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। आपकी दया का दायरा बढ़ते रहना चाहिए। उसमें मनुष्य ही नहीं, पशु पक्षी कीट पतंग इत्यादि भी सम्मिलित रहें।
लेकिन दया की भी एक मर्यादा है। जो व्यक्ति एक बार या दो बार आपकी दया से लाभ उठा कर ऊँचा नहीं उठता या उन्नति नहीं करता, वह मनुष्य नहीं पत्थर है हम आज समाज में देखते हैं कि अनेक भिखारियों ने दया की आड़ में भिक्षावृत्ति को एक पेशा बना लिया है। यह दया का अनुचित उपयोग है। इसी प्रकार के और भी अन्य अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे बचना होगा।
क्षमा हमारी दया का एक और अंग है। जो हमारे साथ दुर्व्यवहार करता है या अपकार, हानि, कष्ट का साधन बनता है, उसे मन में सच्चा पश्चात्ताप उदय होने पर क्षमा कर देना चाहिए। प्रायः अनेक दुष्ट क्षमा किए जाने पर गलत मार्ग से बच कर उन्नति के मार्ग पर चलने लगते हैं। मानव-जीवन बहुमूल्य है। अतः एक दो बार कसूरवार को भी क्षमा दे कर उसकी उन्नति का साधन उपस्थित करना चाहिए। हमारे समाज में आज अनेक उपेक्षित जातियाँ, दुःखी पिछड़े हुए मानव पड़े हुए हैं, जो हमारी दया चाहते हैं।
समाज मनुष्यों के समूह हैं। इसमें आगे आगे चलने और पिछड़े हुए सभी प्रकार के सदस्य हैं। प्रेम तथा दया का पारस्परिक व्यवहार कायम रहने से ही हमारा समाज ठीक स्तर पर रह सकेगा। सहकार मनुष्य की आत्मा का धर्म है। क्षमा करने से मनुष्य को सुधार का एक नवीन अवसर प्राप्त होता है।
दण्ड हमारी संस्कृति की अंतिम सीमा है। दुष्ट का दमन होना चाहिये। यदि लोक कल्याण के लिए दुष्ट को नीति का साधारण नियम भंग कर भी दण्ड देना पड़े, तब भी वह त्याज्य नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी को छल से बाली का वध करना पड़ा था। बाली दुष्ट था, उचित अनुचित का विवेक खो बैठा था और वासनाजन्य अत्याचारों से प्रजा काँप उठी थी। सामने आकर उससे युद्ध करने वाला और उसे मार डालने वाला कोई भी न था। सामने आकर युद्ध करने वाले की आधी शक्ति स्वयं बाली में आ जाती थी। इसलिए श्री रामचंद्र जी ने उसके सामने न आकर वृक्षों के पीछे से उसका वध किया था। राष्ट्र हित की दृष्टि से यह उचित था यद्यपि साधारण-युद्ध के नियम भंग करके यह कार्य हुआ था। दुष्ट को दण्ड दिया ही गया, चाहे वह जिस प्रकार हो।
इसी प्रकार कौरव-पाँडव युद्ध में कुलगुरु, द्रोणाचार्य ने पाण्डवों की सेना का बड़ा संहार किया पाँडव यह देखकर बड़े डरे। यदि कौरव जीत जाते, तो भारत में अनीति और अत्याचार का बोलबाला हो जाता, अतः श्री कृष्णजी ने अश्वत्थामा नाम के एक हाथी को मरवा दिया। द्रोणाचार्य के पुत्र का नाम भी अश्वत्थामा था। युद्ध में जब द्रोण ने श्रीकृष्ण के मुख से सुना कि अश्वत्थामा मारा गया, तो वह घबड़ा गया। इसी अवसर पर अर्जुन ने उसे मार डाला। छल से द्रोण न मारे जाते, तो कौरव जीत जाते और अनीति की विजय हो जाती।
बिहार में जरासन्ध नामक एक अत्यधिक अत्याचारी राजा राज्य करता था जिसने छोटे-छोटे 8 राजाओं के राज्यों को छीन रखा था और बहुत से राजाओं की स्त्रियों को हर कर अपने महलों में रखे हुए था। दुष्ट जरासन्ध के पास शक्ति बहुत थी और उससे मुकाबला करने की सामर्थ्य किसी में न थी। इसलिए श्री कृष्ण जी ने अर्जुन और भीम के साथ स्वयं ब्राह्मण वेष बना कर जरासन्ध के अन्तःपुर में पहुँच वहाँ अपने आपको ब्राह्मण कहा और उसी के महलों में भीम से जरासन्ध का मल्ल युद्ध कराकर उसका वध कराया था। इसी प्रकार कर्ण ने छल से अर्जुन के पुत्र को मारा तो श्री कृष्ण ने उसका भी बदला लिया था।
इस प्रकार समय समय पर संसार से अत्याचार और दुष्टता के निवारण, तथा मानव के सत्य, प्रेम, न्याय की रक्षा के लिए भारतीय संस्कृति में दण्ड का विधान रहा है। छल से, कूटनीति से या छुप कर भी दुष्ट को राष्ट्र और धर्म के हित के लिए दण्ड देने में अधर्म नहीं है। अनेक दुष्टों को, अनेक राक्षसों को इसी प्रकार दण्ड (दमन) दिये गए और उसी के फल स्वरूप हमारी संस्कृति आज जीवित है। “शठे शाठयं समाचरेत्” की नीति के पालन के कारण ही हमारी संस्कृति आज के उच्च गौरवशाली पद पर आसीन है।
दया, क्षमा, और दण्ड तीनों का विवेकपूर्ण उपयोग ही मानव जीवन में प्रयुक्त होना चाहिये प्रयाग में बड़ी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है। जो निर्बल हैं, पीड़ित हैं, आपकी प्रेरणा चाहते हैं, उन्हें दया कर क्षमा कर देना ही धर्म है। जिस प्रकार ईश्वर के नियम और दया सबके लिए हैं, उसी प्रकार आपकी दया और क्षमा मनुष्य मात्र के लिए होनी चाहिए। आपकी क्षमा से हो सकता है वे जीवन को नवीन मार्ग अपनालें और उच्च उद्देश्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। चाहे तुम किसी देश में किसी नगर ग्राम या परिस्थिति में हों, यदि तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है, जो तुम्हारी दया से ऊँचा उठ सकता है, तो उसके पुराने दोषों को क्षमा कीजिए क्षमा भाव स्वयं आपके हृदय में भी शांति और संतुलन उत्पन्न करने वाला है, आनन्द दायक शुभ भाव है, अध्यात्मिक सुख की वृद्धि करने वाला है। जिसे अक्षय सुख चाहिये उसे शत्रुता ईर्ष्या द्वेष भाव से मुक्त रहना चाहिए। क्षमा और दमा आपको इन दुष्ट भावों से मुक्त कर देंगे।
दंड के प्रयोग बहुत सोच समझ कर कीजिये सावधान! व्यक्तिगत द्वेषवश किसी पर अन्याय एक प्रकार की ऐसी दुधारी तलवार हैं, जो निर्बल को तो घायल करती ही है, सबल को भी अछूता नहीं छोड़ती।
आचार्य श्रीराम शर्मा के शब्दों में, “पड़ौसी के छप्पर में आग लगा कर अपना घर बचा लेना मुश्किल है, उसी प्रकार दूसरों पर अन्याय करके स्वयं चैन करना कठिन है। अन्याय एक तेजाब है, जो पहले उसी पर असर करता है, जिसमें वह रखा हुआ है। मनुष्य कागज की पुड़िया के समान है, जो अपने अन्दर अन्याय को धारण करता है अन्यायी बनता है। ऐसा व्यक्ति कुछ समय में अपने आप ही गलकर नष्ट हो जाता है इसलिए आप दंड तो दीजिए पर अन्याय से उसी प्रकार दूर रहिए जैसे सिंह और सर्प से दूर रहते हैं। इन्द्रियों के और मनोविकारों के बहकावे में आकर अपनी आत्मा के साथ अन्याय मत कीजिए। अहंकार से उद्धत होकर एवं लालच से अन्धे होकर दूसरों का अधिकार मत छीनिए, उनके स्वत्वों का हरण मत कीजिए, क्योंकि अनाचार और अत्याचार पारे की तरह है, जो किसी को पच नहीं सकता। उसकी चमक पर मुग्ध होकर लोग पेट में रखने की कोशिश करते हैं परन्तु अन्याय रूपी पारा घमंडी और लालचियों की मूर्खता पर हंसता हुआ उनके रोम रोम को चीर कर बाहर निकलता है। सूक्ष्म दृष्टि से न्याय की विवेचना कीजिए और जिसे बात में अन्याय समझें उसे त्यागते हुए दंड दीजिए।”