
सार्वभौम- सेवा के पथ में!
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(श्री लक्ष्मी नारायण जी बृहस्पति बुरहानपुर)
जिस प्रकार प्रेम के द्वारा अनायास ही शान्तिप्रद त्याग सिद्ध हो जाता है उसी प्रकार सेवा के द्वारा अनायास ही पुण्यवर्द्धक तप की सिद्धि और सर्वस्व की प्राप्ति होती है:– वही सेवा का रहस्य है।
अपने सुख के लिये दूसरों से सेवा लेते हुए साँसारिक भोगो के पथ में जितना पतन होता है, उतना ही दूसरों को विनम्र भाव से हितप्रद सुख देते हुए सेवा करने से शीघ्रतया उत्थान होता है।
सेवा करते हुए हमें अपने में किंचित् मात्र भी अभिमान न आने देना चाहिये और न सेवा के बदले में अपनी ख्याति या प्रशंसा की ही इच्छा रखनी चाहिये।
जिसकी सेवा का अवसर प्राप्त हो, उसकी भूलों को देखकर रुष्ट न होना चाहिए और उसके किसी प्रकार के दोषों के कारण उससे घृणा भी न करना चाहिये, क्योंकि किसी की सेवा तो गुण-गृहण करने के लिये की जाती है और किसी की सेवा दोष हरण करने के लिये की जाती है।
सेवा करते हुए सभी प्रकार की प्रतिकूलता को सहन करते हुए शान्त समस्थित रहना, कहीं भी आलस्य को किंचित् मात्र भी स्थान न देना, निरन्तर कर्त्तव्य पालन करने के लिये प्रमाद रहित होकर सावधान रहना—यही परम-पुण्य प्रदायिनी तपश्चर्या से सुसज्जित सेवा है।
जब मनुष्य के पाप क्षीण होने लगते हैं तभी उसके अन्तर में सेवा के भावों का उदय होता है और जब उसके पाप क्षीण हो जाते हैं तब वह मानव रूप में पवित्र देवता हो जाता है। तब वह सार्वभौम सेवा पथ पर आरुढ़ हो जाता है तथा उसके जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यों का उदय होकर उसका प्रत्येक श्वाँस सुरभित हो जाता है! वह प्रत्येक प्राणी में अपने प्रभु के दर्शन करता है और उसकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर अपने आप को धन्य समझता है—
सियाराममय सब जग जानी।
करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
इसी प्रकार एक अन्य कवि की और उक्ति है—
दर दीवार दरपन भया, जित देखहुँ तित तोहिं।
कंकर-पत्थर ठीकरी, भई आरसी मोहि॥
वास्तव में सार्वभौम-सेवा पथ के पथिक की ही विवेक-दृष्टि खुल पाती है और उसी को सच्चिदानन्द-घन परमात्मा के सार्वभौम-स्वरूप को बोध होता है।
कोई जाने या न जाने, माने या न माने ऐसे सार्वभौम-सेवक के अन्तर में ही परम-प्रेमास्पद, परात्पर परमेश्वर के परम तत्व का प्रकाश होता है। जिसके प्रकाश हुए बिना, जिसके बोध हुए बिना किसी को कहीं भी परम-शान्ति नहीं मिल सकती।
जो सद्गुरु कृपा से एक बार सार्वभौम-सेवा-पथ से प्रेम कर लेता है, फिर वह किसी भी वस्तु की, किसी भी सम्बन्धी की—यहाँ तक कि वह अपनी देह तक की परवाह नहीं करता। जिसको वह अपने लक्ष्य-पथ में बाधक देखता है, उसी को वह त्याग कर देता है।
सार्वभौम सेवा के पथ में कोई संन्यासी होकर, कोई उदासी या कोई वैरागी एवं यती, व्रती अथवा तपस्वी होकर, कोई ज्ञानी कोई ध्यानी होकर केवल विनम्र सेवा-भाव से ही सद्गति, परमगति और परमशान्ति को प्राप्त हुए हैं।
भगवान् बुद्ध, राजा भर्तृहरि, जगद्गुरु शंकराचार्य, समर्थगुरु रामदास, महर्षि दयानन्द, महात्मा गाँधी आदि-आदि अनेकों महान् आत्माओं के दृष्टान्त हमारे सन्मुख है।
सर्वत्र महामहिम प्रभु की महिमा को देखना, उन्हीं की सत्ता का सर्वत्र अनुभव करना कभी न भूलने वाला सुमिरन, चिन्तन और ध्यान है। ऐसे योग लाभ के लिये उत्कंठित, उल्लसित भाव से सतत् सावधान रहते हुए सेवा के लिये उद्यत रहना सेवक का प्रथम-कर्तव्य है।
सबमें विराट् शक्ति की व्याप्ति अनुभव करते हुए उनके विश्व-रूप के प्रति नमनशीलता और पूज्य भावना युक्त व्यवहार करना सार्वभौम-सेवा की सर्वोपरि साधना है।
अपनी समस्त कामनाओं, इच्छाओं और आवश्यकताओं को जगदाधार के चरणों में अर्पण कर देना ही प्रार्थना है!
जिस प्रकार तलवार की तीक्ष्णता रुई का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाती, उसी प्रकार सार्वभौम-सेवक की विनम्रता के आगे प्रकृति की कठोरता परास्त हो जाती है।
सहनशीलता, नम्रता, क्षमा और धैर्य के द्वारा ही सेवक के सद्गुणों का प्रकाश हो पाता है। वह प्रत्येक दशा में अपना हित ही समझता है, कभी किसी से उद्विग्न नहीं होता।
सार्वभौम-सेवा पथ का पथिक कभी भी निरर्थक बातों को नहीं सुनता, निरर्थक नहीं देखता, निरर्थक नहीं कहता और निरर्थक कर्मों को नहीं करता, वह संयम-नियम के अभ्यास से विचलित नहीं होता—वही वास्तविक सार्वभौम-सेवा-ब्रती कहा जा सकता है।
सेवा-भावी सज्जनों! आज भी जीवन है, समय है, शक्ति है, सभी तरह के उचित साधन सुलभ हैं! आप अपने समय और शक्ति का सदुपयोग कीजिये तथा विनम्र सेवा-भावी बनकर अपना जीवन सफल बनाइये। सार्वभौम-सेवा का पथ आपकी राह देख रहा है।