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Magazine - Year 1956 - Version 2

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बाबा मलूक दास

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(श्री राजेन्द्र शर्मा, सम्पा. ‘समाज’)

तुलसीदास जी का एक दोहा है:—

स्वपच सबर खस जमन जड़, पाँवर कोल किरात। राम कहत पावन परम होत भुवन विख्यात॥

राम नाम का जाप कर अधम भी परम पवित्र हो जाते हैं। यही नहीं राम नाम के प्रभाव से वे भुवन-विख्यात हो जाते हैं। लोकप्रिय हो जाते हैं। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के संत कवियों के बारे में तुलसी का यह दोहा कितना सत्य है। ऐसे ही एक भुवन-विख्यात संत कवि हैं, बाबा मलूकदास। नाम के प्रभाव और प्रताप को स्वयं मलूकदास जी ने भी स्वीकार किया है:—

राम नाम एक रती, पाप के कोटि पहाड़। ऐसी महिमा नाम की, जारि करै सब छार॥

राम नाम की ऐसी ही महिमा है। जिस प्रकार रुई के विशाल भण्डार को एक ही चिनगारी भस्म कर देती है, उसी प्रकार प्रभु का नाम जन्म-जन्मान्तर के पापों को नष्ट कर देता है। इससे भी बढ़कर बात यह है कि नाम के नशे में जो मस्त हो गया है, उससे तो इन्द्र भी छोटा है। अर्थात् इन्द्र का सुख नाम-जप-सुख से तुच्छ है।

गाँठी सत्त कुपीन में सदा फिरै निःसंक। नाम अमल माता रहै, गिनै इन्द्र को रंक॥

बाबा मलूकदास का जन्म विक्रम संवत् 1931 में इलाहाबाद जिले के कड़ा स्थान पर हुआ था। जाति के यह कक्कड़ खत्री थे। इनके पिता का नाम सुन्दरदास था। भक्ति मार्ग की ओर जाने में इन्हें अपने गुरु श्री विट्ठलदास जी से प्रेरणा मिली। देखिए, इस पद में इन्होंने गाया है:—

अब तेरी सरन आयो राम। जबै सुनिया साध के मुख, पतित-पावन नाम॥ यही जान पुकार कीन्ही, अति सतायो काम। विषय सेती भयो आजिज कह मलूक गुलाम॥

विषय-वासना भगवत्-भक्ति में सबसे बड़ी रुकावट है। विषय छूट जाते हैं, पर अहंकार छूटना उससे भी कठिन है। मलूकदास जी ने अपने पदों में अत्यन्त सरल और चालू भाषा में भक्ति मार्ग का निरूपण किया है। मोह, ममता, अहंकार छोड़कर ही भगवत्-प्राप्ति हो सकती है। काम, क्रोध त्यागना भी आवश्यक है।

आपा मेटि न हरि भजे तेइ नर डूबे। हरि का मर्म न पाइया, कारन कर ऊबे॥1॥

करें भरोसा पुत्र का साहिब बिसराया। डूब गए तरबोर को कहुँ खोज न पाया॥2॥

साधु मंडली बैठि के, मूढ़, जाति बखानी। हम बड़ि हम बड़ि करि मुए, डूबे बिन पानी॥3॥

काम क्रोध सब त्यागि के जो रामै गावै। दास मलूका यूँ कहैं तेहि अलख लखावै॥4॥

मलूकदास जी के पदों में निरभिमानता भी खूब झलकती है। पीड़ितों का दुःख हरना ही सबसे बड़ा धर्म है। “परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़न सम नहिं अधमाई” की भावना को मलूकदास जी के इन दोहों में देखिए:—

जो दुखिया संसार में, खोवो तिनका दुःख। दलिहर सोंप मलूक को, लोगन दीजै सुक्ख॥

दुखिया जन कोइ दूलिये, दुखिये अति दुख होय। दुखिया रोय, पुकारी है, सब गुड़ माटी होय॥

बाबा मलूकदास के दोहों और पदों में लोकोक्तियां और मुहावरे प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। परहित की भावना से जहाँ उनका काव्य लोकप्रिय हुआ है, वहाँ इस विशेषता से उनकी वाणी बिना पढ़े-लिखे लोगों की जुबान पर भी चढ़ गई। उनका यह दोहा किसने नहीं सुना होगा—

अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सब के दाता राम॥

दृढ़ ईश्वर-निष्ठा की कैसी सुन्दर अभिव्यक्ति है। ऐसी अटूट श्रद्धा से ही तो ‘उसका’ ज्ञान प्राप्त होता है। मलूकदास जी की ऐसी लोकप्रियता होते हुए भी, यह कैसे आश्चर्य की बात है कि और संत-कवियों की भाँति, उनके नाम पर कोई ‘पंथ’ नहीं चला। मलूकदास जी ने अपने जीवन-काल के 108 वर्षों में सम्प्रदायवाद की कड़ी भर्त्सना की।

ना वह रीझै जप तप कीन्हें-ना श्रातस को जारे। ना वह रीझै धोती टाँगै, ना काया के पखारे॥

दाया करै, धरम मन राखै घर में रहै उदासी। अपना सा दुख सबका जानै ताहि मिलै अविनाशी॥

किसी मत-सम्प्रदाय से प्रभु प्रसन्न नहीं होते। उन दया-धाम को दया से ही पा सकते हैं या फिर दिल में ढूँढ़ने से ‘वह’ मिलेगा।

मक्का मदीना द्वारिका, बदरी और केदार। बिना दया सब झूठ हैं, कहै मकूल बिचार॥

उसकी उपलब्धि हृदय में होगी:—

तौजी और निमाज न जानूँ, ना जानूँ धरि रोजा। बाँग जिकर तबही से बिसरी, जब से यह दिल खोजा॥

कहैं मलूक अब कजा न करिहौं दिल ही सौं दिल लाया। मक्का हज हिये में देखा, पूरा मुरसिद पाया॥

राम-भक्ति की महिमा जन-जन को बताते हुए, मलूकदास जी ने उपाँशु जप को ही सर्वश्रेष्ठ बताया है:—

जो तेरे घट प्रेम है तो कहि कहि न सुनाय। अन्तरजामी जानि हैं, अन्तरगत के भाय॥

और:—

सुमिरन ऐसा कीजिए, दूजा लखै न कोय। होंठ न फरकत देखिये, प्रेम राखिये गोय॥

इस प्रेम की महिमा ही ऐसी है। अनन्य भाव को प्राप्त होकर मलूकदास जी कहते है:—

माला जपौं, न कर जपौं, जिह्वा जपौं न राम। सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया विश्राम॥

वे भगवान् कितने दयालु हैं कि स्वयं भक्त का स्मरण करते हैं:—

परमदयाल राया राय परसोत्तम जी, ऐसो प्रभु छाँड़ि और कौन के कहाइये।

सीतल सुभाव जाके तामस को लेस नहीं, मधुर बचन कहि राखै समझाइये॥

भक्त बछल गुन सागर कला निधान, जाको जस पाँत नित वेदन में गाइये।

कहत मलूक बल जाउँ ऐसे दरस की, अधम उधार जाके देखे सुख पाइये॥

तुलसीदास जी ने कहा है—भूति भनिति कीरति भलि सोई। सुरसरि सम परहित जेहिं होई॥ कविता ऐश्वर्य तथा यश वही अच्छा होता है, जो गंगा के समान परहित कारी हो। मलूकदास जी ने भी भगवद्भक्ति की पराकाष्ठा से अपनी वाणी को लोक-कल्याणकारी बनाकर पवित्र किया है। मानवता के इस गायक ने आत्मिक विकास के लिए सबका उत्साह बढ़ाया है। साधू सन पूसौं चिम लाई। जिनके दरसन हिया जुड़ाई। भाव भक्ति करते निष्काम। निसदिन सुमिरैं केवलराम॥

साहिब मिल साहिब भये, कछु रही न तमाई। कहैं मलूक तिस घर गये, जहूँ पवन न जाई॥

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