
आत्म तत्व की उपासना रहस्य!
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(श्री गजेन्द्रलाल जी पूनीवाला एम.एससी.बी. टी.)
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जान।
दसद्वारे का देहरा, यामे पीव पछान ॥
—(सन्तवाणी)
दुग्ध से मक्खन निकालने के लिए परिश्रम चाहे जितना करना पड़े परन्तु दुग्ध से मक्खन कभी दूर नहीं है। इसी प्रकार अपने जीवन में जीवनाधार परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रयत्न चाहे जितना करना पड़े, लेकिन वह परमानन्द स्वरूप परमतत्व अपने जीवन से कभी भिन्न नहीं है। कोई भी मन को पूर्ण रूपेण स्थिर करके उसे अपने आप में पा सकता है।
वास्तविक ज्ञान न होने के कारण मनुष्य अपनी भावनानुसार भगवान् की उपासना करने के लिये किसी शिल्पकार के द्वारा निर्मित मन्दिर एवं प्रस्तर प्रतिमा का आश्रय लेते हैं और उसी में अपने आराध्य प्रभु की प्रतिष्ठा करके उसी को पूजते हैं लेकिन प्रकृति माता के बनाये हुए देह रूपी मन्दिर में निवास करने वाले सर्वोपरि प्रिय अपने आप रूपी आरूप-रूप में परम प्रभु की प्रतिष्ठा नहीं करते।
इससे अधिक सुन्दर मन्दिर और प्रिय मूर्ति संसार में भला कहाँ मिल सकती है?
जिन विवेकी पुरुषों की समझ में यह सुलभ युक्ति आ गई है वह तो देह रूपी मन्दिर में हृदय रूपी आसन पर परम प्रिय अहं रूपी प्रतीक में अपने परम प्रभु की स्थापना करके अभिन्न भाव द्वारा, अद्वैत ज्ञान की दृष्टि से परम प्रभु के परमानन्द स्वरूप की उपासना करते हुए परम-शान्ति को प्राप्त हो चुके हैं!
सर्वस्यैव जनस्यास्य विष्णुरभ्यन्तरे स्थितः।
त परित्यज्य में यान्ति यहिर्विष्णु नराधमाः॥
—(योगवा.)
सब प्राणियों के हृदय में विष्णु निवास करते हैं। अपने भीतर रहने वाले विष्णु को छोड़कर विष्णु की तलाश जो बाहर करते हैं- वह अधम हैं!
अपने से भिन्न वस्तु में महान् की महत्ता को देखते हुए उसी वस्तु के सहारे उस एक महान् तत्व में योगस्थ होना चक्कर का मार्ग है और अपने में ही उस महान् की महानता का अनुभव करते हुए अपने आपके सहारे उसका उपासक होना सीधा सरल मार्ग है!
उस एक परमोत्कृष्ट तत्व की महत्ता से महिमान्वित अनेकों पदार्थों को जो कोई देखते हैं- वह जगत को देखते हैं! और इस जगत की अनेकता के पीछे परमाधार तत्व को जो कोई देखते हैं—वहीं परमोपासनीय, परमगोपनीय, परमोत्कृष्ट जगदीश्वर को देखते हैं!
अपनी-2 योग्यता के अनुसार जो दृश्य-जगत दीख रहा है उसे तो सर्व साधारण प्राणी देखते हैं परन्तु जिसके द्वारा सब कुछ दीख रहा है उसे कोई लाखों में एक देखने की जिज्ञासा रखते हैं और लाखों जिज्ञासा रखने वालों में कोई विरले ही सौभाग्यवान् उसे अनुभव कर पाते हैं।
जब तक उस सर्वाधार महान तत्व की सर्वव्यापी महत्ता का ज्ञान नहीं होता तभी तक मनुष्य संसार के विनाशी पदार्थों को परम सुन्दर एवं महत्वपूर्ण मान कर उन्हीं में मोहित होकर रागी बनता है, और जब वे नष्ट होते हैं तब अत्यन्त दुःख को प्राप्त होता है लेकिन जो विवेकी यथार्थ दर्शी पुरुष है वह अनन्त नामों एवं अनन्त रूपों तथा अनन्त गुणों और चमत्कृतियों के पीछे, एक ही परमोत्कृष्ट तेजोमय सत्ता को देखता है और उसी परमाधार तत्व का उपासक बनता है।
ईश्वरो न महाबुद्धे दूरे न च सुदुर्लभः।
महाबोध मयैकात्मा स्वात्मैव परमेश्वरः॥
—(योगवा.)
“ईश्वर न कहीं दूर देश में स्थित है न बहुत दुर्लभ है, अपना बोध युक्त आत्मा ही परमेश्वर है।”
जो अपने जीवन के साथ परमाधार होकर नित्य मिला हुआ दिखलाई दे रहा है, जिसका संग कहीं भी किसी तरह नहीं छोड़ा जा सकता अर्थात् जिससे अटूट सम्बन्ध है वही अपना उपास्य देव परमेश्वर है।
ऐसे तो मनुष्य अपने जीवन में अनेकों सम्बन्धित पदार्थों को अपने निकट देखता है, और अनेकों को अपना मानता है परन्तु उन अपना मानने वाले पदार्थों से एक दिन में ही वह अनेकों बार मिलता और बिछुड़ता है।
जो देह सदा अपने साथ प्रतीत होती है, जिसको निश्चित होकर अपनी कहते हैं, उससे भी हर एक मनुष्य स्वप्नावस्था में अलग होता है और जाग्रतावस्था में फिर मिलता है।
इसके भी आगे जो मन, बुद्धि आदि पदार्थों का संयोग है वह भी सुषुप्ति अवस्था में छुट जाता है।
वास्तव में सबसे परे सबका आधार एक चिन्मय स्वरूप सत्ता ही शेष रहती है, जिसका संग कहीं भी नहीं छूटता, जिसको प्राणी किसी तरह नहीं छोड़ सकता।
अतः जिससे हम कभी अलग नहीं हो सकते वहीं अपना नित्य उपास्यदेव है। उसी का नित्य योगानुभव करना साधक की साधना का एक मात्र सत्य लक्ष्य है।
अविवेक वश मनुष्य अपने आप में ही अपने परमाराध्य को न जानकर अन्यान्य भिन्न पदार्थों को अपना मानता है और उन्हीं में ममत्व बढ़ाकर मोहासक्त हो संयोग-वियोग के झोंकों में झूलता रहता है। लेकिन वास्तव में जो अपना परम-प्रभु है उसके नित्य भोग में वह स्थित नहीं हो पाता।
ऐसी दशा में भ्रमित जीव को अपने उपास्य देव के तत्व-स्वरूप का ज्ञान कराने वाले सन्तसहगुरुदेव ही हैं।
साधक को निराभिमानी होकर उन्हीं का आश्रय लेना चाहिए। साथ ही जिस शास्त्र से, जिस उपदेश से, जिस साधना से, जिस कर्मानुष्ठान से अथवा जिसकी आराधना से अपने आप में आत्मा रूप परमात्मा का बोध हो उसी का आश्रय लेना चाहिये तथा उसी की ओर देखना चाहिये।
अव्यक्त के अभिव्यक्त होने वाले विश्वमय सौन्दर्य का दर्शन करने के लिये इस दृश्य-जगत से आंखें हटा लेनी होंगी जिसके कारण आंखों में अन्धत्व छा रहा है।
उस परमात्मा का पूर्ण योग इस जगत प्रपंच के संयोग वियोग मय भोग से छूट जाने पर ही होगा।
जग से न्यारे ह्वै रहो, लगे रहो हरि ध्यान।
पृथिवी पर देही रहे, परमेश्वर में प्रान।।
उपासक संसार में रहता हुआ, सांसारिक कृत्यों को करता हुआ भी उनसे पृथक रहता है और उसका ध्यान सदा भगवान में लगा रहता है, देह पृथिवी पर रहते हुए भी उसके प्राण परमेश्वर में स्थित रहते हैं। उसकी हर एक क्रिया, प्रत्येक भाव, समस्त विचार एक मात्र अपने उपास्य के लिये ही होते हैं!
उसी एक परम तत्व को व्यक्ति की उपाधि में निर्विकार आत्मा रूप से देखते हैं, समष्टि की उपाधि में उसी को परमात्मा रूप से पहचानते हैं और सभी सीमाओं के पार अनन्न, असीम की दृष्टि से उसी को परब्रह्म कहते हैं।
वही चिन्मात्र स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही ज्ञानी का उपास्य देव है। सब कुछ त्याग देने पर जो सबके पीछे शेष रहता है, जिसका त्याग किसी प्रकार हो ही नहीं सकता, जिसमें सब कुछ प्रगट होता है, जिसमें सबकुछ स्थित होता है और जिसमें सबकुछ विलीन हो जाता है- वही ज्ञानी का उपास्य देव है।
उस परमाधार, अचल,अविनाशी, नित्य तत्व को ही आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, प्रेमी, भक्त विविध नामों से पुकारते हैं और विविध रूपों की भावना द्वारा उसी एक को अनेकों प्रकार से भजते हैं।
कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढै बन माहि।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखता नाहिं॥
यही आत्मा-तत्व की उपासना का रहस्य है। प्रभु हमें उसका पात्र बनावे!