
अपमान और युक्ति का अन्तर
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राजगृह के एक चरवाहे की पत्नी बड़ी कला कुशल थी नृत्य और संगीत विद्या में उसे ऐसी निपुणता प्राप्त हुई थी कि कुलीन घरानों की कन्यायें भी उससे ईर्ष्या करती थीं। सच है साधना और अभ्यास से छोटे व्यक्ति सम्पन्न व्यक्तियों के समकक्ष योग्य और श्रद्धास्पद हो जाते हैं। चरवाहे की पत्नी को इस कला निपुणता के कारण राजदरबार तक में आमंत्रित किया जाता था।
राजगृह में एक बड़े उत्सव की तैयारी हुई। उसमें नृत्य के लिए इसी ग्वाले की पत्नी को कहा। स्त्री उन दिनों गर्भवती थी, उससे बहुत मना किया पर सामन्तों ने एक न सुनी। उसे अपमानित और विवश किया गया कि वह नृत्य करे।
नृत्य तो किया उसने पर इस अपमान से उसके हृदय में प्रतिशोध भड़क उठा। यह प्रतिशोध का भाव मृत्युपर्यन्त उसके मन से नहीं गया। दूसरे जन्म में वह यही संस्कार लेकर यक्षिणी होकर राजगृह में ही जन्मी।
जहाँ उसमें इस प्रतिशोध और दुर्भावना के संस्कार थे वहाँ पूर्व जन्मों की कला और ज्ञान का संचित कोष भी उसे संस्कार रूप में मिला। इसी कारण वह अपने पिता के स्थान पर नगर देवता की पुजारिन भी नियुक्त की गई।
जहाँ श्रेष्ठ कर्म और साधना ने उसे इस जीवन में सुखद परिस्थितियाँ दी, वहाँ पूर्व जन्म का प्रतिशोध पाप की प्रेरणा बनकर फूटा। यक्षिणी जिसका नाम हारीति था, नगर के बच्चे चुरा-चुराकर मारने और उनका भक्षण करने लगी। पुण्य की आड़ में पल रहे इस पाप को लोगों ने बहुत दिन बाद जाना। जब राजगृह नरेश को उसका पता चला तो उन्होंने हारीति को बन्दी बनाकर कारागृह में डाल दिया।
सामान्य व्यक्ति असामान्य घटनाओं को भी सामान्य दृष्टि से देखते हैं पर महापुरुषों की पैनी दृष्टि जब तक दूर तक विचार नहीं कर लेती, कोई तत्काल निर्णय नहीं देती। भगवान बुद्ध ने जब सुना कि हारीति को अनेक बालकों के वध के अभियोग में बन्दी बना लिया गया है, तब उनके मस्तिष्क में एक हलचल उठ खड़ी हुई कि ऐसे कुत्सित संस्कार इस विदुषी और कला निष्णात बालिका में आये कहाँ से? अन्तः दृष्टि से उन्होंने देखा यह सब पूर्व जन्मों के कर्म और उसके साथ हुए दुर्व्यवहार का परिणाम है, उसके लिये सर्वथा उसे ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
राजगृह नरेश से कहकर इधर तो उसे कारामुक्त करा दिया, उधर उसके बच्चे की चोरी करा ली। पुत्र के खो जाने से उसे मर्मान्तक पीड़ा हुई उसकी करुणा, उसका वात्सल्य भाव तीव्र रूप से जागृत हो उठा, तब उसने अनुभव किया कि ऐसा ही कष्ट उन माताओं को भी हुआ होगा, जिनके बच्चे चुराकर उसने भक्षण कर लिये हैं।
पुत्र वियोग से दुःखी हारीति का मन पश्चाताप से भर गया वह भगवान बुद्ध के पास गयी और बोली-”भगवन्! मेरे कर्मों का फल तो मुझे मिल गया पर अब यह बताएं कि उस पाप से मुक्ति कैसे मिले।”
बुद्ध ने कहा- “अब तक तुमने शिशुओं का भक्षण किया है, अब तुम शिशुओं की रक्षा और विकास में जुट जाओ। उसी से तुम्हें शाँति मिलेगी समाज के साथ की हुई छोटी सी भूल भी तब तक नहीं धुलती, जब तक सेवा के साबुन से उसे धोकर साफ न कर दिया जाय।
हारीति आजीवन बच्चों की रक्षा और उन्हें भगवान मानकर सेवा करती रही, जिससे अन्तिम समय उसे शाँति मिली और दूसरे जन्म में वह साति यक्ष की पुत्री अभिरति हुई उसका विवाह कुबेर के साथ हुआ।