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Magazine - Year 1970 - Version 2

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अध्यात्म का भावनात्मक आधार

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ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो प्रतिदिन भजन-पूजन करते और थोड़ी देर नहीं दो-दो, चार-चार घण्टे किया करते हैं। बहुत समय तक इस प्रकार पूजा-पाठ और भजन पूजन करते रहने पर भी जब वे अपने मोह-पाशों और और अशाँति-असन्तोष के कंटकित जीवन से मुक्ति नहीं पाते तो प्रतिक्रिया रूप भजन-पूजन को बेकार का काम और अध्यात्म को झूठा आडम्बर मानने लगते हैं। उनकी आस्तिक आस्था डगमगाने लगती है और वे नास्तिकता की ओर उन्मुख होने लगते हैं। वास्तव में आध्यात्मिक प्रयासों का यह परिणाम बड़ा खेदजनक है।

अध्यात्म क्षेत्र में इस प्रकार का निराशापूर्ण परिणाम उन लोगों को अंगीकार करना ही होता है, जो केवल मात्र स्थूल रूप से भजन-पूजन करते रहने में ही अध्यात्मवाद की चरमावधि मान लेते हैं। वैसे सत्य यह है कि आध्यात्मिक प्रयासों का, जीवन की सुख-शाँतिपूर्ण दिशा में सफल होना अनिवार्य है। अध्यात्म का वास्तविक उद्देश्य मानव-जीवन का सर्वांगीण विकास ही है। इससे आत्मा को उस अलौकिक आनन्द की उपलब्धि होनी ही चाहिए, जिसके सामने संसार के सारे सुख, सारे आनन्द तुच्छ होते हैं।

भजन-पूजन आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ने के लिए एक उपाय है, स्वयं में अध्यात्म नहीं। अध्यात्मवाद का आशय कुछ ऊंचा और विस्तृत है। उसे आत्म-विज्ञान अथवा जीवन-विज्ञान ही मानना चाहिये। अध्यात्म द्वारा ही मनुष्य का आत्म-सुधार, आत्म-विकास हो जाने से मनुष्य के पास सुख-शाँति उसी प्रकार आ जाती है, जिस प्रकार सूर्य उदय होने पर संसार को प्रकाश स्वतः प्राप्त हो जाता है।

भजन-पूजन में आत्म-शाँति की आशा से निराश होने वाले बहुधा पूजा-पाठ को ही अध्यात्म मान लेते हैं और सोचते हैं कि वे कुछ जितना कर रहे हैं, वह उनके आत्म-कल्याण के लिए पर्याप्त है। अपनी इस गलत धारणा के कारण वे काम-क्रोध-मद-लोभ आदि बाधक विकारों से मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते। बाधक-विकारों से युक्त व्यक्ति कितना ही और कितनी देर ही पूजा पाठ क्यों न करे, अध्यात्म की वह आलोकित दिशा नहीं पा सकता जो वस्तुतः वाँछनीय होती है।

भजन-पूजन का मूल आशय यह होता है कि मनुष्य अपनी बुराइयों तथा विकारों से मुक्त हो। धार्मिक क्रियाओं में निरत होना एक प्रकार से आचरण निर्माण का संकल्प है। जो व्यक्ति पूजा-पाठ करता है, उसके माध्यम से परमात्मा से संपर्क बढ़ाता है, वह उस उच्चादर्श के कारण बाध्य है कि अपनी बुराइयाँ दूर करे और गुण ग्रहण करे। जो ऐसा नहीं करता, वह उस पुण्य क्रिया से वंचित करता है और परमात्मा के उस पवित्र सम्बन्ध का अपमान करता है। ऐसी वंचक उपासना करने वाले लोग आनन्द और सुख के कल्याणकारी परिणाम से वंचित ही रहते हैं।

उपासना अथवा पूजा-पाठ वाले बाध्य हैं कि वे हर मूल्य और हर प्रयत्न पर निर्विकार बनें, शुद्ध और प्रबुद्ध बनें। किन्तु खेद है कि पूजा-पाठ का नियम निभाने वाले इस आवश्यकता की ओर ध्यान नहीं देते। बल्कि अहंकार के वशीभूत होकर ऐसा समझ बैठते हैं कि वे तो भगवान् के भक्त हैं। उसकी पूजा उपासना करते हैं। इसके उपलक्ष में उनके विकार क्षमा कर दिए जायेंगे। विकारों के रहते हुए उन पर भगवान् की कृपा होगी और उनकी साधना में सुख शाँति के मनोवाँछित फल लगेंगे। किन्तु उनकी यह धारणा कभी सत्य सिद्ध नहीं हो सकती। अध्यात्म में सफल होने, पूजा-पाठ का उचित फल पाने और परमात्मा से सच्चा सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विकारों का त्याग और गुणों का ग्रहण करना आवश्यक है।

भजन-पूजन अथवा पूजा-पाठ आत्म विकास का एक उपाय है। अध्यात्मवाद का एक अंग है। स्वयं आध्यात्म नहीं। यह साधन है साध्य नहीं। किन्तु इस उपाय से आध्यात्मिक उन्नति करते हुए आत्म-कल्याण की ओर तभी बढ़ा जा सकता है जब बुराइयों को छोड़कर सर्वथा निर्विकार बनता चले। काम-क्रोध-मद-मोह आदि के बन्धन पाश से जकड़ा हुआ मनुष्य आत्म कल्याण का सुखद परिणाम नहीं पा सकता। किन्तु यह साधना तब तक अधूरी है एकाँगी है, जब तक आत्म विकास और आत्म सुधार की प्रक्रिया भी इसमें नहीं जोड़ दी जाती। उपासक का कर्त्तव्य है कि वह भजन-पूजन तो करे ही साथ ही मानसिक मलों और शारीरिक दुष्टताओं का भी परिशोधन करता चले। उसकी उपासना तभी पूर्ण होगी, तभी फलवती होगी और तभी आनन्द-दायिनी।

मानव-जीवन की सफलता धन-संपत्ति संचय करने अथवा पूजा प्रतिष्ठा पा लेने में नहीं है। उसकी सफलता का लक्षण है समस्याओं, उलझनों, अशाँति एवं असन्तोष से मुक्त जीवन यापन की विधि। जो व्यक्ति जितनी मात्रा में पाश-मुक्त प्रसन्न जीवन जीता है, वह उतना ही सफल माना जायेगा। सुख के प्रचुर साधन प्राप्त हों समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा बनी हो, लेकिन हृदय में क्षोभ, उद्वेग, असन्तोष और भयभीरुता भरी हो तो इस स्थिति में किसी मनुष्य का जीवन सफल नहीं माना जा सकता है। बाह्य स्थिति कितनी ही सामान्य और साधारण क्यों न हो। एक बार अभाव तथा आवश्यकता का सामना क्यों न करना पड़ जाये, तथापि यदि मनुष्य अपनी मानसिक शाँति की रक्षा कर लेता है और प्रतिकूल परिस्थिति में अनुकूलता की खोज कर लेता है तो वह सफल मनुष्य ही माना जायेगा। मानव जीवन की सफलता बाह्य वैभव में नहीं आन्तरिक विभूति में है।

जिस प्रकार धन-दौलत, जमीन-जायदाद, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा बाह्य जीवन की विभूतियाँ हैं, उसी प्रकार शाँति-सन्तोष, प्रसन्नता, हर्ष, उल्लास आदि की सुखदायिनी स्थिति मानसिक विभूतियों के नाम से पुकारी जाती है। मानव जीवन की सच्ची विभूतियाँ मानसिक विभूतियाँ ही हैं। इनके अभाव में धन-दौलत के कितने भण्डार क्यों न भरे हों, मनुष्य दरिद्री ही बना रहेगा। अस्तु मानव-जीवन की वास्तविक सफलता के लिए मनुष्य भौतिक अथवा बाह्य उपार्जन के लिए तो प्रयास करे, वह करेगी साथ ही आन्तरिक विभूतियों के उपार्जन, संचय और अभिवृद्धि के लिए निश्चय ही प्रयत्न करता रहे। ज्यों-ज्यों मानसिक विभूतियों की अभिवृद्धि हो जायेगी, त्यों-त्यों मानव जीवन सफलता और पूर्णता की ओर अग्रसर होता जायेगा।

मानसिक वैभव प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है- जीवन में आध्यात्म का समावेश। आध्यात्म की सीमा, मात्र पूजा पाठ तक ही नहीं है। उसका प्रसार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक दिशा तक पहुँचता है। यदि उसे संजीवनी विद्या अथवा जीवन-विज्ञान भी कह लिया जाय तो भी असंगत न होगा, अध्यात्म वस्तुतः एक महान विज्ञान ही है। वह विज्ञान जिसके आधार पर मनुष्य उन गतिविधियों की प्राप्ति कर लेता है, जिनका पालन मानसिक संवृद्धि की ओर बढ़ाता है। अध्यात्म के ज्ञान और उसके समुचित पालन से ही जीवन जैसे मूल्यवान अवसर का सही-सही उपयोग संभव होता है। जो अध्यात्म नामी जीवन-विज्ञान से अनभिज्ञ है, वह अपने जीवन का सही उपयोग करने में सफल नहीं हो सकता। किसी बात के समुचित उपयोग पर ही सफलता का आधार निर्भर है। जीवन का समुचित उपयोग सफलता की ओर और अनुचित उपयोग असफलता की ओर ले जायेगा। यह निश्चित है, अटल है।

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