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Magazine - Year 1970 - Version 2

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वृत्ति शोधन से आत्मिक प्रगति

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“आग्नीध्र! तुम आ गये। मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। राज्य का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व तुम्हें सौंप कर अब मैं मुक्त हो जाना चाहता हूँ। मेरी एक ही इच्छा शेष रही है “आत्म-दर्शन” और “ईश्वर प्राप्ति”। कुलगुरु से आज्ञा मिल चुकी है। तपश्चर्या के लिये उन्होंने हिमावर्त जाने की आज्ञा प्रदान कर दी है। आज ही मुहूर्त है, तीसरे प्रहर मैं यहाँ से प्रस्थान कर दूँगा। इस बीच तुम्हें राज्य सम्बन्धी आवश्यक बातें समझा देना आवश्यक धर्म समझता हूँ। इसी हेतु तुम्हें यहाँ बुलाया है।” प्रियव्रत ने संक्षेप में सारी बात पुत्र आग्नीध्र को समझा दी।

आग्नीध्र को यह बात कुछ दिन पूर्व ज्ञात हो गई थी। उन्हें यह भी पता था कि मेरा राज्याभिषेक होने वाला है, किन्तु जब उन्होंने पिता के भावी-जीवन की कल्पना की तो उन्हें निश्चय हो गया था कि आत्म-निर्वाण और ईश्वरत्व की प्राप्ति से बढ़कर और कोई पुरुषार्थ नहीं है। मनुष्य जीवन में आने का सच्चा उद्देश्य भी वही है, ऐसा न होता तो ऋषियों-महर्षियों ने ऐश्वर्य का जीवन ठुकराया न होता। पिता-श्री स्वयं शास्त्रों के ज्ञाता हैं, उनकी बौद्धिक क्षमता किसी भी आचार्य से कम नहीं है। यदि उन्होंने तपश्चर्या का मार्ग चुना तो इसका यही अर्थ है कि आत्मोत्थान के लिये राज्य-वैभव भी ठुकराया जा सकता है। आत्म लाभ के आगे राज्य सुख भी तुच्छ है।

उन्होंने विनीत भाव से कहा-”तात्! आप जानते हैं कि सुख सम्पन्नता, राज्य-वैभव आत्म-कल्याण में बाधक है, इसलिये तो यह सब छोड़कर जीवन मुक्ति के लिये तप करने जा रहे हैं। आप ही बतायें अपना बन्धन मेरे पैरों में डालना क्या मुझे पाश-बद्ध करना नहीं। यदि हाँ तो मुझे यह ऐश्वर्य नहीं चाहिये। मैं भी आपके ही साथ चलूँगा और वन में रहकर तपश्चर्याएं करके आत्म शक्तियाँ जागृत करूंगा ताकि वे मेरे लिये ईश्वर दर्शन में सहायक बनें।”

राज्याभिषेक देखने के लिये आज राजधानी के सम्भ्राँत नागरिक नहीं राज्य भर से दूर-दूर की प्रजा आई थी। राज-भवन नर-नारियों से खचाखच भरा हुआ था। उस मंगल पर्व पर एकाएक वैराग्य-भाव उदय हो जाने से सारे सभा-भवन में सन्नाटा छा गया। सब के मन में उत्सुकता थी, देखें राजकुमार आग्नीध्र राज्य-सिंहासन सँभालते हैं या पिता के साथ ही वन गमन करते हैं।

महाराज प्रियव्रत ने राज-मुकुट उतारकर उसे सम्मानपूर्वक शीर्ष सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया, फिर प्रजा की ओर भाव वत्सल दृष्टि डाली। नर-नारियों के मुख-मंडलों पर एक मात्र जिज्ञासा दिखाई दी। तब उन्होंने आग्नीध्र के सम्मुख होकर कहा- “तुम्हारी अनासक्ति सराहनीय है आग्नीध्र! किन्तु क्या तुम यह जानते हो कि मैंने वर्णाश्रम धर्म का पालन किया है। आज तक मुझसे जितना बन सका प्रजा और परिजनों की सेवा की। उन्हें भगवान् के प्रतिनिधि मानकर पूजता रहा। मैंने राज्य सुखों का उपभोग भी किया है, आवश्यकता पड़ी है तो अपराधियों को दंड देने की कठोरता भी दिखाई है अब धार्मिक मर्यादा के अनुसार मैं चतुर्थ वय में प्रवेश कर रहा हूँ। मुझे उचित है कि मैं अब शेष जीवन तप करूं और अपना लोकोत्तर जीवन सुनिश्चित बनाऊँ।”

तुम्हारे लिये यही उचित होगा कि तुम अभी प्रजा की सेवा करते हुए अपनी महत्वाकाँक्षायें भी तृप्त करो योग और तपश्चर्या के लिये इन्द्रियासक्ति पर विजय पाना आवश्यक है तात्! तुम्हें पता नहीं दमन की हुई इन्द्रियाँ और भी बलवती हो उठती हैं, जो अपरिपक्व साधक को कभी भी साधन-भ्रष्ट कर सकती हैं। प्रजापति ने गृहस्थाश्रम की प्रतिष्ठा इसीलिये की कि मनुष्य इन्द्रिय सुखों का उपभोग करता हुआ उनकी निस्सारता की स्पष्ट अनुभूति करे, यदि ऐसा समझ में आ जाये तो चित-वृत्तियों का नियन्त्रण सरल हो जाता है। चित-वृत्तियों का निरोध अपने वश में न हो जावे, तब तक योग करने की अनुमति नहीं दी जाती।”

आग्नीध्र! चुप हो गये। पितृ देव का प्रतिवाद करना अच्छा न लगा। राज्याभिषेक के लिये आचार्यों ने मन्त्रोच्चारण प्रारम्भ किया। एक क्षण के लिये उभरी हुई निराशा, उत्साह और चहल-पहल में बदल गई। राज्याभिषेक हो गया। प्रजा ने प्रीति-भोज का आनन्द लिया। तृतीय प्रहर सबने महाराज प्रियव्रत को भाव भीनी विदाई दी। राज्य-भवन एक बार महाराज आग्नीध्र की जयकार से गूँज गया।

पर एक ही रात बीती होगी कि राज्य-सिंहासन सूना हो गया। आग्नीध्र के अन्तःकरण में आत्म-दर्शन की कामना ने इतनी तीव्रता से प्रवेश किया था कि उसके प्रभाव को सम्भाल पाना उनके लिये कठिन हो गया था। अधैर्य और क्षणिक आवेश ही तो कर्तव्य-पलायन कराते हैं। आग्नीध्र ने उसी प्रकार बिना विचारे राज-वैभव का परित्याग कर दिया और मन्दराचल पर तप करने लगे। चतुर मन्त्रियों ने राज्य हित में इस बात का कानो-कान समाचार न फैलने दिया। सारी व्यवस्था ज्यों-की-त्यों चलती रही। चिन्ता की बात इतनी ही थी कि आग्नीध्र के अतिरिक्त राज्य सम्भालने वाला और कोई दूसरा नहीं था। सब कुलगुरु के आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।

मन में अविचल वैराग्य हो और ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम तो साधना की सफलता में देर नहीं लगती। आग्नीध्र थोड़े दिनों में ही समाधि-सुख की अनुभूति करने लगे। जब वे तप के लिये बैठते तो साँसारिकता की ओर उनका चित तक न डोलता। आत्मा मुक्त आकाश में विचरण करने और देव-शक्तियों के दर्शन का आनन्द लेने में निमग्न होने लगी।

कुछ ही पखवारे बीते थे। आग्नीध्र एक दिन ऐसी ही अवस्था में ध्यानावस्थित ईश्वर चिन्तन कर रहे थे। बसन्त के दिन वैसे ही रमणीक होते हैं, उस पर मन्दराचल की सौंदर्यमयी छटा तो वातावरण को और भी चारु बना रही थी। सघन तरुवरों पर फैली स्वर्णलताओं की हरीतिम प्रभा, कोयल की कूक मयूरों का नृत्य, सरोवर में कारण्डव, जल कुक्कुट और कलहंसों का कूजन, कमल-पुष्प का हास और सुवास बिखेरता सौरभ वैसे ही साधकों के चित में माधुर्य जगा रहे थे। फिर आज तो एक और मधुर झंकार प्रातःकाल से ही आश्रम में गूँज रही थी, पायलों की झंकार। नृत्य और कोयल-कण्ठ को लुभाने वाला मधुरिम गीत। सब मिलाकर ऐसा लग रहा था, कामदेव रति को लेकर आश्रम में उतर आये हों।

आग्नीध्र का ध्यान टूट गया। स्वर संगीत अब मन को अधीर कर रहे थे। आंखें खुल गई, हृदय उसे देखने के लिये लालायित हो उठा था, जो आलौकिक सौंदर्य के संस्कार सारे वातावरण में बिखेरे दे रहा था। हृदय और मन को आल्हारित करने वाली विलासपूर्ण गति भेद-भरी चितवन, क्रीड़ा-चापल्य और अंगराग से सारे वातावरण को कामाभिसिक्त बनाने वाली कामिनी-आँख उठाकर आग्नीध्र ने देखा- सामने पूर्वचित्ति ऐसे खड़ी है जैसे किसी चित्रकार ने सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमा गढ़ दी हो।

आंखें देखते-देखते थक गई तो पाँव गतिमान हो उठे। आग्नीध्र ने आसन त्याग दिया और पागल की भाँति सुन्दरी पूर्वचित्ति की ओर भागे। रूप और वासना में वह शक्ति भर दी है, भगवान ने कि उन्हें पाकर मनुष्य अपने आपको भी भूल जाता है, अपने परम हितैषी परमात्मा को भी बिसरा देता है। यही तो प्रधान बाधा है, ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में। शास्त्रकार तभी तो कहते हैं, “योगी बनने से पहले चित्त-निरोधी होना आवश्यक है।”

पर जब चित चंचल हो गया तो फिर उसे रोक सकना स्वयं भगवान् के वश में नहीं, आग्नीध्र ने पूर्वचित्ति के सौंदर्य के सम्मुख आत्म-समर्पण कर दिया।

आग्नीध्र! बालकों की तरह प्रलाप करता जा रहा था- “पूर्वचित्ति! तुमने मुझे स्वीकार न किया तो मैं यहीं प्राणांत कर दूँगा, अब तुम्हारे बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता।”

और तभी सामने से मुस्कराते हुये महात्मा प्रियव्रत आते दिखाई दिये।- तात् उन्होंने आशीर्वाद का हाथ उठाते हुये कहा- “मैंने यही तो कहा था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करो, गृहस्थ में रहकर महत्वाकाँक्षाओं को पूरा किया जाता है, वह सच्ची तपस्या है, उसके बाद योग-भ्रष्ट होने की आशंका नहीं रहती। और तब उन्होंने पूर्वचित्ति का हाथ- आग्नीध्र के हाथ में देते हुये कहा ‘वत्स’! हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, तुम दोनों आज से सम्राट और साम्राज्ञी की तरह रहो, कुल धर्म वर्ण, श्रम धर्म का पालन करते हुये, प्रजा की सेवा करो भगवान तुम्हें वह अवसर भी देंगे, जब तुम ‘ब्रह्म-प्राप्ति’ करोगे।”

आग्नीध्र ने पलायनवादी दृष्टिकोण का परित्याग किया और सुखपूर्वक राज्य संचालन करने लगे। समयानुसार उन्होंने राज्य भोग त्याग कर संन्यास लिया और ‘ब्रह्म-निर्वाण’ का पद प्राप्त किया।

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