
सदाचार की शक्ति
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धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। अश्वमेध की प्रथा के अनुसार विश्व-विजय के लिए घोड़ा छोड़ा गया, उसके पीछे महाबली अर्जुन चले। जिस किसी ने घोड़े को पकड़ा अर्जुन ने उसे युद्ध में परास्त किया। इस प्रकार दिग्विजय करते हुये वे आगे बढ़ रहे थे।
घोड़ा विन्ध्याचल पारकर चम्पापुरी में प्रविष्ट हुआ। उस समय वहाँ सम्राट हंसध्वज राज्य करते थे। उन्होंने अपने पुत्र सुधन्वा को घोड़ा पकड़ने की आज्ञा दी। यशस्वी राजकुमार सुधन्वा ने घोड़े को बन्दी बना लिया। यह समाचार मिलते ही दोनों ओर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं।
रणक्षेत्र में उतरने से पूर्व सुधन्वा अपनी पत्नी प्रभावती से मिलने गया। युद्ध-वेष में पति को सामने खड़ा देखकर वीर बाला प्रभावती की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने कहा- “देव! शत्रु से संघर्ष करना ही हम क्षत्रियों का धर्म है, संघर्ष न करें तो सारा संसार अपनी हर अच्छी-बुरी इच्छा मनवाने का दुस्साहस करने लगता है।”
“किन्तु ........।” कहकर प्रभावती चुप हो गई। सुधन्वा ने पूछा- “प्रियतमे! कहो- रुक क्यों गई। हमने अग्नि के समक्ष एक दूसरे की आकाँक्षाओं को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की थी, वह मुझे याद है, तुम्हारी किसी भी कामना को पूर्ण करना, मैं अपना धर्म समझता हूँ।”
स्वामिन्! प्रभावती ने विनीत भाव से कहा- “आज तक आपने विवाहित होकर ब्रह्मचर्य की मर्यादाओं का पालन किया है, मैं उससे सन्तुष्ट ही रही हूँ, आप युद्ध में जा रहे हैं, युद्ध में विजय ही नहीं होती- पराजय और मृत्यु की सम्भावनायें भी स्वाभाविक होती हैं। यदि आपको कुछ हो गया तो मुझे निःसन्तान रहना पड़ेगा। एकाकी जीवन काटना नारी के लिए कठिन है। आज मेरे रजस्वला होने का 16 वाँ दिन है, आप युद्ध प्रातःकाल प्रारम्भ करते तो महान् कृपा होती?”
सुधन्वा ने बात स्वीकार कर ली। उधर युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं, इधर गर्भाधान की तैयारी। सारी प्रजा अस्थिर थी, किन्तु सुधन्वा को किंचित मात्र असन्तोष न था। एक सद्गृहस्थ की भाँति उसने गृहस्थ धर्म का पालन हँसी-खुशी के साथ किया।
प्रातः काल सुधन्वा रणक्षेत्र में आ डटा। उसका रथ अर्जुन के रथ के सामने आया, शंख-ध्वनि हुई और दोनों सेनाओं में बाण-वर्षा होने लगी। सुधन्वा के साथ सुमति, सुगति, तुष्ट, श्रद्धालु, सुबल, सुरथ आदि भाई और सामन्त युद्धरत थे तो अर्जुन की ओर से सारथी भगवान् श्रीकृष्ण और वृषकेतु, प्रद्युम्न, अनुशाल्व और कृतवर्मा आदि योद्धा युद्ध में भाग ले रहे थे। बड़ा घमासान युद्ध हुआ।
आज युद्ध का अन्तिम दिन था। सुधन्वा और अर्जुन दोनों आमने-सामने विजय की आकाँक्षा से शस्त्र प्रहार कर रहे थे। सुधन्वा के बाणों के आगे अर्जुन की एक भी न चल पा रही थी, तभी अर्जुन ने क्रोध करके प्रतिज्ञा की- “यदि मैंने तीन बाणों से सुधन्वा का सिर न काट दिया तो फिर कभी शस्त्र ग्रहण नहीं करूंगा।” अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर सुधन्वा ने भी शपथ ली- “यदि मैंने अर्जुन के तीनों बाण काट न दिये तो युद्ध में हार मानकर चला जाऊँगा।”
अर्जुन को विश्वास था, भगवान कृष्ण उनके साथ हैं, सो जयद्रथ वध की तरह प्रतिज्ञा तो पूरी होगी ही। सुधन्वा को अपने पर आत्म-विश्वास था-मैंने जीवन में कभी कोई कलुषित कर्म नहीं किया। कभी झूठ नहीं बोला, इसलिये मेरी आत्मा की आवाज कभी असत्य नहीं हो सकती। यों प्रतिज्ञायें अर्जुन और सुधन्वा ने कीं भी पर वस्तुतः टक्कर ईश्वर और सदाचार के बीच थी। भगवान को ही निर्णय करना था कि विजय सदाचारी की होती है अथवा भगवान के कृपा पात्र की।
युद्ध फिर प्रारम्भ हुआ- अन्तिम और निर्णायक युद्ध। अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाया और प्रत्यंचा कान तक खींची। भगवान कृष्ण ने कहा- “मैंने गोवर्धन उठाकर इन्द्र के कोप से गाय और गोपालों की रक्षा की थी। उसका जो पुण्य हुआ हो, वह मैं अर्जुन के बाण में जोड़ता हूँ। अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हो।”
सुधन्वा भी उसी समय गरजकर बोला- ‘दिशाओं! यदि मैंने अपने जीवन में एक पत्नीव्रत का पालन किया हो, भूलकर भी किसी पराई स्त्री को कुदृष्टि से न देखा हो तो मेरा यह बाण अर्जुन को मध्य में ही काट दे।” यह कहकर उसने भी धनुष चढ़ाकर बाण छोड़ दिया। दोनों बाण एक साथ छूटे और सबने देखा कि अर्जुन का शक्तिशाली बाण सुधन्वा के बाण से बीच में ही कटकर चूर-चूर हो गया। सुधन्वा का बाल भी बाँका न हुआ।
अर्जुन ने दूसरा बाण चढ़ाया और पुनः उसे कान तक खींचा। भगवान कृष्ण ने पुनः शक्ति दी और कहा- “ऐरावत हाथी को ग्राह के चंगुल से बचाते समय द्रौपदी को दुर्योधन द्वारा चीर-हरण कराते समय बचाने से और भक्त प्रहलाद की हिरण्यकश्यपु से रक्षा करने से मुझे जो पुण्य प्राप्त हुआ था, वह पुण्य अर्जुन के इस बाण में जोड़ता हूँ।”
उधर अर्जुन को धनुष तानते हुये देखकर सुधन्वा ने भी धनुष पर बाण चढ़ाया और बोला- ‘राजा होकर भी यदि मैंने प्रजा से अधर्म का धन ग्रहण न किया हो, प्राप्त धनराशि को केवल प्रजा के ही हित में लगाया हो तो यह मेरा तीक्ष्ण बाण अर्जुन के बाण को काट डाले।” यह कहकर सुधन्वा ने भी अर्जुन के साथ ही बाण छोड़ दिया। दोनों बाण मध्य युद्धस्थल में टकराये और अर्जुन का बाण निरस्त होकर वहीं कट गिरा।
अन्तिम बाण, आखिरी शक्ति लगाकर अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र शर का सन्धान किया। श्री कृष्ण बोले- “काल पुरुष होकर भी पृथ्वी को आसुरी शक्तियों से बचाने के लिए मैंने 24 बार मनुष्य शरीर धारण किया है, मैंने अपनी सारी शक्ति लोक कल्याण में ही लगाई है, उससे जो कुछ पुण्य हुआ हो, वह सब अर्जुन के इस तीसरे बाण में लग जाये।”
उधर सुधन्वा ने आकाश की ओर देखा और कहा- “हे तारागणों! तुम साक्षी हो एक सामान्य व्यक्ति होकर भी यदि मैं सम्पूर्ण जीवन अपने धर्म और अपनी संस्कृति की रक्षा में लगा रहा होऊँ तो अर्जुन का यह तीसरा बाण भी नष्ट हो जाये। यह कहकर उसने तीसरा बाण छोड़ा और उसने अर्जुन के तीसरे बाण को भी काट कर रख दिया।
अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण की ओर देखा और श्री कृष्ण ने अर्जुन की ओर- दोनों एक दूसरे का मुख ताकते खड़े थे और आकाश से देवतागण सुधन्वा पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। सदाचार की इस विजय पर सारी चम्पापुरी हर्ष मना रही थी और पाण्डवों की सेना इस दुविधा में पड़ी खड़ी थी कि युद्ध को यहीं विश्राम दे दिया जाये अथवा उसे आगे भी प्रारम्भ रखा जाये।