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आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मयुमेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य निन्दति॥
कटु वचन कहने वाले पुरुष से भी कभी स्वयं कटु वचन नहीं कहें और उस समय समुत्पन्न क्रोध को भी सहन कर लेना चाहिये। इससे विपक्षी नष्ट हो जायगा और पुण्य क्षीण हो आयेंगे।
प्रारम्भ में आदान-प्रदान, आवर्तन-परावर्तन की यह क्रिया थोड़ी धीमी होती है पर जैसे-जैसे मानसिक एकाग्रता बढ़ती है, प्रतिक्रिया भी तीव्र होती है और सूक्ष्म आत्मसत्ता भी तेजी से उन प्रकाश परमाणुओं से सुसज्जित होने लगती है, जो देव शक्ति से आकर्षित होते हैं।
उदाहरण के लिए सूर्य सम्पूर्ण सौर-मण्डल की आत्मा है, अर्थात् सूर्य की किरणों सम्पूर्ण ग्रह-नक्षत्रों को देखती हैं। सूर्य के प्रकाश परमाणुओं की किरणें सर्वदर्शी होती हैं, यह प्रकाश परमाणु गायत्री उपासक में जितना अधिक विकसित होते जाते हैं, वह उतना ही अधिक स्पष्ट भविष्यदर्शी, सार्थक स्वप्न देखने वाला और चमत्कारिक प्रेरणायें प्राप्त करने वाला होता जाता है। उसी प्रकार स्थूल ऊर्जा का लाभ स्वास्थ्य सुधार में होता है। अनेक रोगी गायत्री उपासक रोग मुक्त होते देखे गये हैं, वह सूर्य की किरणों की इस परावर्तित प्रतिक्रिया का ही परिणाम होता है। मन्त्र का लाभ इसीलिये अश्रद्धा होने पर भी अवश्य मिलता है। यद्यपि श्रद्धा और विश्वास के प्रगाढ़ होने पर लाभी भी द्रुतगामी होते हैं पर यदि ऐसा न हो तो भी साधक मंत्र जप के लाभ से कभी वंचित नहीं होता।