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Magazine - Year 1970 - Version 2

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हमारी अदृश्य किन्तु अतिसमर्थ सूक्ष्म शक्तियाँ

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प्रकाश एक शक्ति है पर अपने मौलिक रूप में पदार्थ भी है, क्योंकि वह टुकड़ों में विभक्त हो जाता है, यह प्रकाश-परमाणु ‘फोटो-सेल्स’ कहलाते हैं। उनमें भी इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन और न्यूक्लियस की रचना होती है। अर्थात् प्रकाश से भी सूक्ष्म सत्ताएं इस संसार में हैं, यह मानना पड़ता है।

वस्तुयें हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं। किन्तु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोश (सेल) को देखना चाहें तो वह इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें देख नहीं सकते। इलेक्ट्रानों को जब 50000 बोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है तो उनकी तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में 1/100000 भाग सूक्ष्म होती है, तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है, उसके भी 42.4 वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहाँ की गतिविधियाँ दिखा सकती है। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य की आँख एक इंच घेरे को देख सकती है तो उससे भी 500 अंश कम को प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी और 10000 अंश छोटे भाग को इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य शरीर के कोश (सेल्स) का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिये। इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया तो उसमें भी एक टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया। चेतना या महत्तत्व इस प्रकार के प्रकाश का ही अति सूक्ष्म स्फुरण है, यह विज्ञान भी मानता है।

मास्को के जीव वैज्ञानिक प्रो. तारासोव ने यह देख कर बताया था कि मनुष्य का प्रत्येक सेल टिमटिमाते हुये दीपक की तरह है, कुल शरीर ब्रह्माँड के नक्षत्रों की तरह- तो यह सूक्ष्मतम चेतना ही उसमें जीवन है।

यह जीवन तत्व शरीर के प्रत्येक अंग में छिटका हुआ है पर उसका एक नियत स्थान भी है, जहाँ से वह प्रभासित होता है। हम देखते हैं कि आत्मा नामक कोई वस्तु शरीर में है तो उससे प्रकाश-अणुओं के रूप में पाया जाना चाहिये पर जैसे सूर्य सारे ब्रह्माँड में बिखर गया है, यह चेतना भी सारे शरीर में संव्याप्त है और विचार तथा भावनाओं के रूप में निःसृत होता रहता है, इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसके विचारों के तरंग-दैर्ध्य चलती रहती है जो अधिक स्थूल स्वभाव और आचार-विचार के व्यक्ति होते हैं, उनका यह तरंग दैर्ध्य बहुत सीमित और दुर्गन्धित होता है इसलिये बुरे लोग अपने पास वाले को भी प्रभावित नहीं कर पाते, जबकि विचारशील लोग विशेष प्राणवान् लोग सभा-मण्डप में बैठे हजारों लोगों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति भाषणों द्वारा इतनी शक्ति और प्रेरणा दे सकते हैं कि सैंकड़ों लोग थोड़ी ही देर में अपने विचार पलटकर रख देते हैं। इस तरह के प्राणवान् व्यक्ति आदिकाल से ही लोगों की जीवन दिशायें बदलते और युगों में परिवर्तन लाते आये हैं।

हमारा शरीर एक प्रकार से आकाश है यदि त्वचा के आवरण बाँधकर उसे एक विशेष गुरुत्वाकर्षण शक्ति द्वारा पृथ्वी से बाँध नहीं दिया गया होता तो हम आकाश में कहीं विचरण कर रहे होते। सूक्ष्म रूप से हमारी चेतना विचार और संकल्पों के रूप में आकाश तत्व में तरंगित होती रहती है। भारतीय योगियों ने उस चेतना को विभिन्न प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योग क्रियाओं द्वारा मन के रूप में नियंत्रित किया था। आज्ञाचक्र नामक स्थान जो माथे में दोनों भौवों के बीच में पाया जाता है, ध्यान द्वारा देखा गया तो उस बिखरी हुई ज्योति के एकाकार दर्शन ऐसे ही हुए जैसे हजार दिशाओं में बिखरे होने पर भी सूर्य का एक पुंजीभूत रूप भी है और वह उन बिखरे हुए अस्त-व्यस्त कणों की तुलना में जो कि सारे सौर मण्डल की प्रकृति का निर्धारण करते हैं, कई अधिक ऊर्जा (प्रकाश, विद्युत, ताप) से सम्पन्न होता है। ऐसे ही मन जब शरीर के सब कोशों की ऊर्जा के रूप में नियन्त्रित हो जाता है तो उसकी शक्ति सामर्थ्य और विभेदन क्षमता का कोई पारावार नहीं रहता है। इस तरह का मन ही सर्वत्र गमनशील, सर्वदर्शी और सर्वव्यापी होता है। वही क्षण में कहीं का कहीं पहुँचकर बेतार के तार की तरह सन्देश पहुँचाता रहता है।

ऊर्जा का प्रकाश में बदलना एक अत्यन्त जटिल प्रणाली है पर वह वैज्ञानिक यह जान चुके हैं कि जब यह ऊर्जा किसी वस्तु में प्रवेश करती है तो उसके परमाणु उत्तेजित हो उठते हैं। फिर थोड़ा शाँत होकर जब वे अपने मूल स्थान को लौटते हैं तो उस सोखी हुई ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते हैं इस क्रिया को ‘संदीप्ति’ कहते हैं। यह गुण संसार के सभी प्राणियों में पाया जाता है, हम उसे जानते नहीं पर यह वैज्ञानिकों को पता है कि मनुष्य जो कुछ सोचता है, वह कितना ही छुपाये छुप नहीं सकता। वह इसी प्रकार सूक्ष्म प्रकाश तरंगों के रूप में बाहर निकलता रहता है, यदि हम उन तरंगों से भी सूक्ष्म आत्म-चेतना द्वारा उन तरंगों में प्रवेश पा सकें, जैसा कि ऊपर के प्रयोग में बताया गया है तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि यह व्यक्ति क्या सोच रहा है, भविष्य की इसकी योजनायें क्या हैं, आदि आदि। पर यह सब तभी संभव है, जब नितान्त शुद्ध रूप में हम मन पर नियंत्रण कर चुके हों।

पहले लोगों का विश्वास था कि प्रकाश छोड़ने का यह गुण (संदीप्ति) केवल जड़ वस्तुओं का गुण है पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि यह गुण जीवधारियों में भी पाया जाता है। ‘अणु और आत्मा’ पुस्तक में श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट ने इसी विज्ञान की व्याख्या की है और इस आत्म विज्ञान के पहलू को प्रकाश में लाकर उन्होंने वैज्ञानिकों को शोध की नई दिशा भी दी है। हम उस बात को सामान्यतः फुँगी मधुरिका, जुगनू आदि जीवों से समझ सकते हैं, जुगनू की तरह कई जीव समुद्र में भी पाये जाते हैं जो अपने शरीर में ‘एजाइमी आक्सीकरण’ की प्रक्रिया में मुक्त होने वाली ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते हैं। यही प्रकाश इनमें टिमटिमाता दिखाई देता है। मादा जुगनू जब कभी कामोत्तेजित होती है तो उसके शरीर में एक जैव-रासायनिक क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें रासायनिक द्रव्य लूसी फेरस एन्जाइम, लूसीफिरिन और ए.टी.पी. कम्पाउण्ड भाग लेते हैं इससे एक विशेष प्रकार की रासायनिक ऊर्जा तरंग उत्पन्न होती है। अर्थात् उस विद्युत तरंग में उस मादा की गन्ध रहती है, इसलिये उस विशेष सिग्नल को नर जुगनू पहचान लेता है। और मादा के पास जा पहुँचता है।

योग साधनाओं द्वारा जब किसी को कोई सन्देश देना होता है तो उसके शरीर के पसीने से लगा कोई कपड़ा इसलिये आवश्यक होता है कि ठीक उस व्यक्ति के स्वभाव से मिलते जुलते तत्वों वाली ऊर्जा उसके पास भेजी जाये और उसके मस्तिष्क में सन्देश भरकर अपनी ओर से उसे इतना प्रभावित कर दिया जाये कि वह वैसा ही करने को विवश हो जाये यह सब शरीर में प्राप्त विद्युत के उन सूक्ष्म विकिरणों के फलस्वरूप ही सम्भव होता है, जिसकी चर्चा ऊपर कर चुके हैं।

एन्जाइम एक प्रकार के सूक्ष्म नाड़ी तन्तु हैं, जो साँस द्वारा प्राप्त ऑक्सीजन को सारे शरीर में पहुँचा कर जीवन शक्ति बनाये रखते हैं। मानसिक शक्तियों का शुद्ध परिष्कार भी अधिकाँश प्राणायाम के अभ्यास पर ही निर्भर है, उसमें वायु में पाये गये प्राण तत्व (प्राकृतिक ऊर्जा) के द्वारा मन को प्रखर और शुद्ध बनाया जाता है।

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