
पूजा का मर्म (kavita)
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जिस घर में अंधियार घिरा हो, उसमें दीप जला कर,
किरण पुँज बिखरा देना ही तो सच्ची पूजा है।
ममता, स्नेह, सरसता, समता चली गयी जीवन से।
सारे सद्गुण सुमन भर चुके हैं जीवन कानन में।
तड़प रहे हों प्राण किसी व्याकुल के आकुल तृषा से,
उसको नीर पिला देना ही तो सच्ची पूजा है।
दौड़ रहा दिशि हीन मनुज है, पग-पग ठोकर खाता।
चरण तोड़ बैठे हैं अपना, लक्ष्य-बिन्दु से नाता॥
भटक रहा हो कोई अपनी मंजिल ही दिशि खोकर,
उसे राह दिखला देना ही तो सच्ची पूजा है।
उलझन, कटुता, व्यंग-विवशता, जीवन की परिभाषा।
गहन तिमिर से आच्छादित है प्राण दायिनी आशा॥
कोई डूब रहा हो मन के भंवरों बीच अकेला,
उसे किनारे पर ले आना ही सच्ची पूजा है॥
मुरझाता हो कोई अंकुर-सूखे कोई पाती।
कड़ी धूप में झुलस रही हो, जहाँ धरणि की छाती॥
सूख रहा हो कोई उपवन बिन शीतल पानी के,
उसमें फूल खिला देना ही तो सच्ची पूजा।
भौतिकता को सदा संजोया उसके पीछे दौड़े।
एक क्षणिक सुख की खातिर, सौ स्वर्ग सभी ने छोड़े॥
कोई जग के आकर्षण में उलझ गया हो उसको,
नश्वरता का बोध कराना ही सच्ची पूजा है।
गंवा दिया विश्वास, धैर्य, साहस मानव ने पशु बन।
भूल गया-क्यों मिला हमें मानव का यह सुन्दर तन॥
शाश्वत सत्य दिखाकर, उसके प्रति विश्वास जगाना।
नर को नारायण कर देना ही सच्ची पूजा है॥
-माया वर्मा,
*समाप्त*