
गंगा जल की महान् महिमा-2
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“भगवती गंगा का जल औषधि तुल्य है, वह रूप को चमका देता है, रोग का नाश करता है।” यह पंक्तियाँ पढ़ीं तो कुष्ठ रोग से पीड़ित महाकवि पद्माकर कानपुर पहुँचे और ‘पद्माकर-कोटी’ नाम से एक स्थान गंगा जी के किनारे लेकर वहीं रहने लगे। गंगा जी का जल पीना, उसी से स्नान करना, उसी के जल से भोजन बनाना, गंगा जी की ही पावन तटी पर विहार करना यही उनका क्रम हो गया।
जिस रोग को वैद्यों, डाक्टरों ने असाध्य घोषित कर दिया, गंगा माँ की कृपा से वह रोग अच्छा हो गया तो कवि हृदय से उनके प्रति स्वाभाविक श्रद्धा फूट पड़ी। “गंगा-लहरी” नाम से 55 छन्दों वाला उनका खण्ड, काव्य उन्हीं भावों की अभिव्यक्ति है। लगता है, भारतीय जन-जीवन को आदिकाल से गंगा जी से ऐसे ही चमत्कारी लाभ प्राप्त हुये हैं, तभी स्थान-स्थान पर उनकी स्तुति और भक्ति-गाथा गाई गई है।
बाल गंगाधर तिलक ने गंगा जी को संसार की सभी नदियों से पवित्र माना था। गाँधी जी तो थे ही महान् धार्मिक उनने भी भगवती गंगा के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा व्यक्त की। बंगाल के प्रसिद्ध कवि श्रीयुत द्विजेन्द्रलाल राय ने भारतीय आत्मा की अन्तिम श्रद्धा व्यक्त करते हुए भावपूर्ण शब्दों में लिखा है-
परिहरि भव सुख दुःख जे खत्ने,
माँ! शापित अन्तिम शपने।
वरषि श्रवणे तब जल कल-कल,
वरषि सुप्ति मम नयने।
बरषि शान्तिमम शंकित प्राणे,
बरषि अमृत मम अंगे।
माँ! भागीरथि जान्हवि सुरधुनि,
माँ! कल्लोलिनि गंगे।
हे कल्लोलिनि गंगे। तुम जन्म-जन्मान्तरों के दुःखों को दूर करने वाली हो। अन्तिम समय मेरे शंकित मन और प्राणों को शाँति और तृप्ति प्रदान करो। अपने अमृतमय जल की हमारे सम्पूर्ण अंगों में वर्षा करो।
कवियों और शास्त्रकारों द्वारा अभिव्यक्त इस श्रद्धा के पीछे कोई निराधार कल्पनायें और मात्र भावुकता नहीं रही। किसी भी तत्व के प्रति श्रद्धा, उसकी उपयोगिता और वैज्ञानिक गुणों के आधार पर रही है। गंगा जी के जल में ऐसे उपयोगी तत्व और रसायन पाये जाते हैं, जो मनुष्य की शारीरिक विकृतियों को ही नष्ट नहीं करते वरन् विशेष आत्मिक संस्कार जागृत करने में भी वे समर्थ हैं, इसीलिए उनके प्रति इतनी श्रद्धा व्यक्त की गई। वैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह बातें स्पष्ट होती जा रही हैं।
प्राचीनकाल में जब भारतवर्ष का अरब, मिश्र और योरोपीय देशों से व्यापार चलता था, तब भी और इस युग में भी सब देशों के नाविक गंगा की गरिमा स्वीकार करते रहे हैं। डॉ. नेल्सन ने लिखा है कि हुगली नदी का जो जल कलकत्ता से जहाजों में ले जाते हैं, वह लन्दन पहुँचने तक खराब नहीं होता, परन्तु टेक्स नदी का जल जो लन्दन से जहाजों में भरा जाता है, बम्बई पहुँचने के पहले ही खराब हो जाता है।
तब जबकि जल को रासायनिक सम्मिश्रणों से शुद्ध रखने की विद्या की जानकारी नहीं हुई थी, तब पीने के पानी की बड़ी दिक्कत होती थी। खारा होने के कारण लोग समुद्र का पानी नहीं पी सकते थे। अपने साथ जो जल लाते थे, वह भी कुछ ही दिन ठहरता था, जबकि समुद्री यात्रायें महीनों लम्बी होती हैं। यह दिक्कत उन्हें आने में ही रहती थी। जाते समय वे लोग (हुगली) गंगा जी का बहुत जल भर ले जाते थे, बहुत दिनों तक रखा रहने पर भी उसमें किसी प्रकार के कीड़े नहीं पड़ते थे। समुद्री जल में रखे चावल बहुत दिन तक अच्छे नहीं रहते, सड़ने लगते हैं, जबकि गंगा जी के पानी में वह शीघ्र नहीं सड़ते। यों संसार में और भी अनेक पवित्र नदियाँ हैं पर गंगाजी के जल में पाई जाने वाली जैसी पवित्रता किसी में भी नहीं है।
योरोपीय देशों में चैटल, गायोन सेण्ट नेक्टेयर बार्बूले और मोन्टेडोरे के कुण्डों को अति पवित्र माना जाता रहा है। हमारे देश में लखनऊ के पास कुकरैल नदी के स्नान से कुत्ते के काटे के अच्छा हो जाने का विश्वास किया जाता है। मोण्टेडोरे के बारे में भी वहाँ के लोगों का ऐसा ही विश्वास है। फ्रान्स के डॉ. मोनोद ने इन जल-कुण्डों की वैज्ञानिक जाँच करके यह बताया कि सचमुच इन जल-कुण्डों में कुछ ऐसे उपयोगी रसायन घुले हुये हैं, जो डिप्थीरिया, दमा आदि बीमारियों पर लाभकारी होते हैं। 1930 में इण्टेरियन लेक्चर में डॉ. मोनोद ने इन निष्कर्षों का विवरण दिया तो लोगों को उन मान्यताओं की वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ी। फिर इन जलकुण्डों से बढ़चढ़कर गुण देखने के कारण गंगा जी को पुराणों में इतना महत्व दिया गया तो उस पर आक्षेप करने का कोई कारण नहीं होना चाहिये था।
कानपुर और वाराणसी की बात और है, वहाँ पहुँचने तक गंगा जी के मार्ग में पड़ने वाले शहरों का मल और कारखानों की सारी गन्दगी उसमें ही पड़ती है। जहाँ ऐसी मिलावट नहीं होती, वहाँ से ऊपर का गंगा-जल गुणों की दृष्टि से अमृत के समान है, अब इसका वैज्ञानिक परीक्षण भी हो चुका है। गंगा-जल के जो रासायनिक परीक्षण किए गए हैं, उनके निष्कर्षों पर एकाएक वैज्ञानिक भी विश्वास नहीं करते, क्योंकि उसमें कुछ ऐसे तत्व पाये जाते हैं, जो संसार की और किसी भी नदी के जल में नहीं पाये जाते, चाहे वह अफ्रीका की आमेजन नदी हो अथवा अमेरिका की मिसीसिपी मिसौरी नदियाँ। यमुना में भी वह तत्व उपलब्ध नहीं, जो गंगा जी में बहुतायत से विद्यमान् है। इन तत्वों की वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकी कि वे क्या हैं और क्यों हैं पर उनमें अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व पाया गया है- उनका नाम ‘कालोइड’ रखा गया है।
फ्रान्स के प्रसिद्ध डॉ. हेरेल ने जब गंगा-जल की इतनी प्रशंसा सुनी तो वे भारत आये और गंगा जल का वैज्ञानिक परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि इस जल में संक्रामक रोगों के कीटाणुओं को मारने की जबर्दस्त शक्ति है। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक गिलास में किसी नदी या कूयें का पानी लें, जिसमें कोई भी कीटाणु नाशक तत्व न हो, उसे गंगा-जल से मिला दो तो गंगा-जल के कृमिनाशक कीटाणुओं की संख्या बढ़ जाती है, इससे सिद्ध होता है कि गंगा जी में कोई ऐसा विशेष तत्त्व है जो किसी भी मिश्रण वाले जल को भी अपने ही समान बना लेता है। यही कारण है 1557 मील लम्बी गंगा जी में गोमती, घाघरा, यमुना सोन, गण्डक और हजारों छोटी-छोटी नदियाँ मिलती चली गई, तब भी गंगासागर पर उसकी यह कृमिनाशक क्षमता अक्षुण्ण बनी रही। यह एक प्रकार का चमत्कार ही है।
डॉ. हेरेल ने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया कि इस जल में टी. बी., अतिसार, संग्रहणी, व्रण, हैजा के जीवाणुओं को मारने की शक्ति विद्यमान है। गंगा जी के कीटाणुओं की सहायता से ही उन्होंने सुप्रसिद्ध औषधि ‘बैक्टीरियोफैज’ का निर्माण किया, जो ऊपर कही गई बीमारियों के लिए सारे संसार में लाभप्रद सिद्ध हुई। आज भी भारतवर्ष के लगभग 15 हजार कुष्ठ रोगी रोग-निवारण की आशा से गंगा जी के किनारे रहते हैं। दूसरे देशवासी हमारी इस ईश्वरीय देन का विश्वासपूर्वक लाभ ले रहे हैं और हम भारतीयों ने उन्हीं श्रद्धास्पद भगवती गंगा में कितनी गन्दगी भर दी, उसका स्मरण करने भर से बड़ा कष्ट होता है।