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Magazine - Year 1970 - Version 2

Media: TEXT
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वैराग्य की प्रथम पाठशाला

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First 18 20 Last
देवदत्त सन्त थे पर साँसारिक सन्त। यों नहीं कि उन्होंने गृहस्थ का परित्याग नहीं किया हो वरन् इसलिये कि वे ईश्वर का भजन, साधन, स्वाध्याय, सदाचार, सद्-व्यवहार का आचरण करते हुए भी कभी-कभी क्रोध का व्यवहार कर जाते थे। धैर्य स्थिर रख सकना उनके लिए कठिन हो जाता था और घर में जब कभी ऐसी स्थिति आती, धर्मपत्नी को डाँटने लगते- ‘देख यदि तूने अमुक कार्य नहीं किया तो सन्त पुनीत के आश्रम में चला जाऊँगा और संन्यासी हो जाऊँगा।” सहिष्णुता का उनमें निताँत अभाव था।

धर्मपत्नी को उनसे तो नहीं, उनकी धमकी से बड़ा भय लगता था। नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन पोषण का प्रबन्ध कौन करेगा, यदि ये संन्यासी हो गये, यह कल्पना करते ही वह डर जाती और वे जैसा कहते करने लगती। किंतु ब्राह्मणी देवदत्त के इस आचरण से मन ही मन बहुत दुःखी रहती है। इन्हीं देवदत्त की गाँव के लोग कितनी श्रद्धा करते हैं, कितना स्नेह और आदर देते हैं, वह गाँव वालों से कैसी मीठे-मीठे बोलते हैं, इस पर ध्यान जाता तो उसे शंका होने लगती कि क्या दूसरों के लिये मीठा होना और घर के निरीह सदस्यों को दबाना और भक्ति का रोब जमाना ही सन्त का लक्षण है। यदि ऐसा ही है तो ईश्वर की उपासना व्यर्थ वस्तु है, ऐसा वह सोचती पर बोलती कुछ नहीं, क्योंकि उस बेचारी को ईश्वर की नहीं, पति की आवश्यकता थी।

सन्त पुनीत का आश्रम समीप ही था। महर्षि कभी-कभी गाँवों में चले जाते और लोगों के दुःख कष्ट पूछते, औषधि वितरण करते, ज्ञान-दान देकर शाम तक आश्रम लौट आते। एक दिन वे इसी प्रकार उस ब्राह्मणी को दुःखी देखकर उन्होंने पूछा- “विद्यावती! तू दिन-प्रति-दिन दुबली होती जाती है, तुझे कोई कष्ट है क्या?”

दुःखी आत्मायें करुणा की प्यासी होती हैं। महर्षि के स्नेह वचन सुनकर विद्यावती की आंखें भर आईं, उसने भरे कण्ठ से कहा- “भगवन्! और तो कोई दुःख नहीं है, वे पूजा-भक्ति करते हैं, वह मुझे भी अच्छा लगता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य के अन्तःकरण में प्रकाश आता है, वह मैं जानती हूँ पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि उसके लिये क्या घर छोड़ना आवश्यक ही है। ऐसा न होता तो ये (अपने पति का संकेत सम्बोधन) यों कहकर धमकाते नहीं- “मैं घर छोड़कर सन्त पुनीत के आश्रम में चला जाऊँगा और संन्यासी हो जाऊँगा?” क्या ईश्वर को प्राप्त करने के लिए संन्यासी होना ही आवश्यक है।”

“नहीं नहीं बेटी!” सन्त ने आश्वासन का हाथ उठाया और बोले- “मनुष्य अपने घर पर रहकर यदि मानवीय गुणों का आचरण निष्ठापूर्वक कर सके तो उतनी ही ईश्वर भक्ति पर्याप्त है, इतने से ही वह ईश्वरीय विभूतियों को प्राप्त कर सकता है! जो यहाँ अपना अहंकार नहीं छोड़ सका, वह मेरे आश्रम में आकर क्या वैराग्य करेगा।”

उन्होंने समझाया- “अच्छा बेटी! तू चिन्ता मत कर मैं ऐसा कर दूँगा कि देवदत्त फिर कभी ऐसे वचन न बोले। पर हाँ तू थोड़ा साहस करना। इस बार जब कभी देवदत्त यह कहे कि मैं सन्त के आश्रम चला जाऊँगा तो तू भी कह देना- हाँ, हाँ चले जाइये। आगे हम सम्भाल लेंगे।”

बात-बात में थोड़ा विलम्ब हो गया और उस दिन भी भोजन बनाकर तैयार होने में थोड़ा अधिक समय लग गया। देवदत्त घर लौटे और भोजन तैयार न मिला तो बहुत कुपित हुए, वही चिर-परिचित अस्त्र उठाया उन्होंने, बोले- “आज पहले यह बता दो कल से भोजन समय पर मिलेगा या नहीं, अन्यथा मैं अभी चला जाऊँगा और संन्यासी हो जाऊँगा।”

विद्यावती के मुख पर आज भय नहीं, मुस्कान थी। हलकी हंसी हंसती हुई बोलीं- “अजी! अभी ऐसी शाम नहीं हो गई, कल की कौन जाने, आज ही चले जाइये और संन्यासी हो जाइये। मुझे उसका जरा भी भय नहीं।”

जलती आग में घृत डालो तो आग और तीव्र हो उठती है। क्रोध भी असह्य जो जाता है, फिर यहाँ तो घृत उलीचा गया। देवदत्त ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा तुरन्त आश्रम की ओर चल पड़े। रात उन्होंने आश्रम जाकर बिताई।

सवेरा हुआ। महर्षि पुनीत का सत्संग जुड़ा। आज उसमें एक नये अतिथि भी थे। महर्षि ने मुस्कराते हुये, देवदत्त की कुशल-मंगल पूछी। देवदत्त ने कहा- भगवन्! संन्यास-दीक्षा लेना चाहता हूँ, उसका प्रबन्ध आज ही, अभी-अभी करा देने का अनुग्रह करें।

उसी तरह मुस्कराते हुए सन्त पुनीत ने कहा- “हाँ, हाँ वत्स! तू वस्त्र उतारकर यहाँ रख दे और गोदावरी स्नान कर, शीघ्र वापिस आ जा। अभी-अभी दीक्षा का प्रबन्ध किये देता हूँ।” देवदत्त उठे और अपने वस्त्र उतार कर एक ओर चल पड़े।

इधर सन्त ने उनके सब कपड़े फाड़कर फेंक दिये। खाने के लिए कुछ कडुए और कसैले फल मंगा लिये। देवदत्त स्नान करके आये तो अपने कपड़े माँगे। सन्त ने चिथड़ों की ओर संकेत किया- देवदत्त फटे कपड़े देख कर हो तो उठा क्रुद्ध। पर कुछ बोल न सका। महर्षि ने कहा- “क्या देखते हो, संन्यासियों को अपरिग्रही बनना पड़ता है। कम से कम वस्तुओं में काम चलाना पड़ता है। अच्छा ले भोजन कर ले।” यह कहकर वही कड़ुवे फल आगे कर दिये।

देवदत्त से एक फल कठिनाई से खाते बना। दूसरा तो मुख में रखते ही थूक दिया और बिगड़कर बोले- “मैं ऐसे कड़ुवे फल खाऊँगा? यह तो जानवर भी नहीं खाते?

शान्त हूजिये वत्स! ईश्वर को पाना एक बड़ी भारी कसौटी है। बैरागी को सन्तोषी धैर्यवान् और सहिष्णु होना पड़ता है, यदि तू पहले यही नहीं सीख सका तो क्या बनेगा, ईश्वर-निष्ठ! दया, करुणा, उदारता, संयम, सेवा ही नहीं, मिष्ट भाषण, धैर्य और सहिष्णुता भी ईश्वर-निष्ठा के आवश्यक गुण हैं। इनका तुझे अनिवार्य रूप से अभ्यास करना पड़ेगा।

अपनी अब तक की क्षुब्धता से उबलते हुये देवदत्त ने कहा- “तो फिर इनका अभ्यास तो मैं अपने घर में ही कर सकता था। आपके पास तो मैं इस कामना से आया था कि आप हमें कुछ विशेष विभूतियाँ और साधनायें सिखायेंगे।”

First 18 20 Last


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