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Magazine - Year 1999 - Version 2

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मातृसत्तात्मक समाज की होनी है अब वापसी

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मातृत्व सृजंता की सजल संवेदना का परिचय दिया है। उनमें केवल कोमलता ही नहीं, बलिइन की दृढ़ता भी है। अपने इन्हीं गुणों के कारण माताएँ परिवार तथा समाज की धुरी बनी रही है। भारत की देव संस्कृति में भी माता सदा से ही पूजनीय-वंदनीय रही है। समाज में उसे प्रतिष्ठित एवं सम्मानीय दृष्टिकोण से देखे जाने की परम्परा है। संतानोत्पत्ति उसकी सबसे गरिमामयी विशेषता है। वह प्रकृति की सबसे अनोखी और अद्भुत कृति है। वेदव्यास ने महाभारत में शाँतिपर्व में माता की महत्ता का कुछ इस तरह वर्णन किया है-

नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिय।रारानारान

अर्थात् माता के तुल्य कोई छाया नहीं है। माता के समान कोई सहारा नहीं हैं। माता के सदृश्य कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय नहीं है।”

स्वामी विवेकानन्द की अनन्य शिष्या भगिनी निवेदिता ने 22 अक्टूबर 1900 ने लन्दन में अपने एक भाषण में माता के प्रति उद्बोधन करते हुए कहा था-माता शब्द एक अनन्ततट है, जिसके बन्दरगाह पर सभी आत्माओं को आश्रय मिलता है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अमर सेनानी सुभाषचन्द्र बोस ने इस लिए कहा था कि मनुष्य अपने जीवन में एक स्थान ऐसा चाहता है, जहां तर्क विचार और विवेचना न रहे, रहे केवल श्रद्धा।” संभवतः इसी कारण माँ का सृजन हुआ होगा। स्वामी रामतीर्थ ने भी माता को वरेण्य मानते हुए स्वीकारा है कि माताएँ ही संसार को उठा सकती है। माताएँ ही देश को उठा और गिरा सकती है॥ माताएँ ही प्रकृति में ज्वार में उतार व चढ़ाव ला सकती है। महामानव सदा ही श्रेष्ठ माताओं की संतान हुआ है। मैक्सिमगोर्की के अनुसार माताएँ ही भविष्य के विषय में सार्थक विचार कर सकती है, क्योंकि वे अपनी संतानों के भविष्य को जन्म देती है।

माता शब्द को अमृतत्व का द्योतक है। यशवंत दिनकर पेढ़रकर ने माता की स्तुति करते हुए वर्णन किया है-हे माँ! तुममें ही कामधेनु की सामर्थ्य है। तुम मंगलमय हो तपस्वियों का अद्वैत हो। तुममें सागर की गम्भीरता और पृथ्वी की उदारता है। तुम्हारे नेत्रों में शान्त चन्द्रमा का तेज है और हृदय में मेघमालाओं का वात्सल्य है। हे माँ! इन समस्त गुणों का वास तुममें है। महान उपन्यासकार प्रेमचन्द्र ने अपने उपन्यास गोदान में लिखा है कि माता के प्रति ऐसी अभिव्यक्ति दी है -’जो नारी केवल माता ही नहीं है और उसके उपरान्त वह जो कुछ भी है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र है। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। प्रेमचन्द्र ने आगे उल्लेख किया है -एक शब्द में मैं उसे लय कहूँगा, जीवन का व्यक्तित्व का और नारीत्व का। रामकुमार वर्मा के अनुसार, माता के हृदय से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है। जननी की शक्ति संसार में सबसे महान हैं। डॉ. लक्ष्मीनारायण मिश्र ने माता शब्द में निहित भावों को इस तरह अपने शब्दों में पिरोया है-नारी शक्ति से ही पुरुष को विजयी मिलती है और फिर जहाँ माता की प्रेरणा काम करें, वहाँ असाध्य और असंभव कुछ नहीं है। माता की इन्हीं विभूतियों एवं विशेषताओं के कारण उसकी कोख से समाज का

उदय हुआ और बाद में मानव समाज का क्रमशः प्रगति आघ्र विस्तार बढ़ता गया। युगों के अंतराल के बाद कृषि युग का प्रादुर्भाव हुआ। इस युग में काम का बँटवारा हुआ। स्त्रियाँ पहले कई क्षेत्रों में आगे रहती थी। खेती की वजह से उन्हें अनाज भण्डारण, सुरक्षा, पशुपालन आदि का उत्तरदायित्व है घर के बाहर कृषि का सारा काम पुरुषों ने सम्भाला।

में प्रतिदिन में अपने घर का कार्य करता है एवं रात्रि के समय ससुराल में निवास करता है। कई साल बाद पति-पत्नी का संबंध सामान्य रहने पर इनको अलग घर बसाने का अधिकार होता है।

इन जातियों में सभी पुरुष दामाद के रूप में घर से विदा हो जाते हैं। परिवार के सबसे छोटी बेटी परिवार के धार्मिक अनुष्ठानों को पूरा करती है। अपनी माता का अंतिम संस्कार भी वही करती है। पी.आर.टी. गर्टन के अनुसार, छोटी बेटी के अधिकार में खानदानी जेवरात और घर का बड़ा हिस्सा आता है। वही संपूर्ण सम्पत्ति की संरक्षिका होती हैं। हालाँकि वह इसे अपनी बहिनों की अनुमति के बिना बेच नहीं सकती हैं किसी अन्य विपरीत परिस्थिति में सारा प्रभाग बड़ी बहिन को मिल जाता है। तत्पश्चात यह उसकी छोटी बेटी को हस्ताँतरित होता है। छोटी बहिन की मृत्यु हो जाने पर इस संपत्ति को दूसरी छोटी बहिन को हस्तांतरित कर दिया जाता है। छोटी बहिन की अपनी बेटी न होने की स्थिति में भी उससे बड़ी बहिन का इसका अधिकार मिलता है।

बड़ी बहन को इसे न सौंपने का कारण है- उसकी शादी का जल्दी हो जाना जिससे मातृसत्तात्मक व्यवस्था में व्यतिक्रम आ जाता है वहाँ पति का न तो बँटवारा होता है और न किसी का एकाधिकार। महिलाएं इसका संचालन और नियमन करती हैं। इस जाति की महिलाओं में अच्छी व्यवस्था-बुद्धि होती है। ये पुरुषों का सम्मान करती हैं। समाज एवं परिवार में महिलाओं का वर्चस्व होने के बावजूद पुरुषों को उनके अनुरूप कार्य का उत्तरदायित्व सौंपा जाता हैं। इन महिलाओं के लिए पति अनन्य सहयोगी होता है।

गारो जनजातियों में भी मातृत्व आधार पर ही वंश परंपराएं चलती हैं इनमें संपत्ति की वारिस पूरी तरह से महिलाएँ ही होती है इसका हस्ताँतरण महिलाओं को ही किया जाता है। पुरुष केवल संरक्षक होता है। माता-पिता अपनी किसी एक लड़की का वारिस के रूप में चुनाव करते है। सामान्यतया बड़ी लड़की के अलावा किसी अन्य लड़की को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती हैं लड़की के अभाव में किसी अन्य बहिन या बहिन की रिश्तेदारों में से उनकी लड़की को ही गोद लिया जाता है। लड़कों को गोद लेने की प्रथा नहीं हैं पति मर्यादा के अनुकूल अपनी पत्नी की संपत्ति का उपयोग करता हैं पति को पत्नी के मामले में सीमित अधिकार प्राप्त होते हैं, जबकि पत्नी को असीमित अधिकार मिलते हैं इन परिस्थितियों में भी यहाँ की पारिवारिक स्थिति सुदृढ़ एवं सामाजिक सौहार्द्रता की भावना प्रबल होती हैं।

मंगलूर में मातृ समाज अभी भी सुखी एवं समृद्ध माना जाता हैं इनकी प्राचीन कथाओं के अनुसार राजा अनालपाण्डी को उनकी बहिनों से अपरिमित सहयोग प्राप्त हुआ था। इसी कारा राजा ने समाज व परिवार के समस्त दायित्व अपनी बहिनों को सौंप दिए थे। मान्यता है कि तभी से परिवार में बहिनों को ये अधिकार मिले हुए है। इनमें विवाहोपराँत लड़का अपनी ससुराल में बस जाता हैं समाज में बच्चों की पहचान व नाम उनकी माता के अनुसार अनुरूप होते हैं। अतः वंश-परंपरा माता के नाम से चलती है।

केरल के नायर परिवार में भी लगभग इसी तरह के नियम एवं मानदंड हैं। नायर परिवार’तारपाड़’ के नाम से जाना जाता हैं इसमें लड़की के बेटे -बेटी ही रहती हैं। लड़कों की संतानें इसमें शामिल नहीं होतीं। संपत्ति अविभाजित रहती हैं इसमें स्त्री-पुरुष सभी का समान अधिकार होता है। संपत्ति का संरक्षक स्त्री का भाई होता है। इसे कार्यवान के नाम से जाना जाता हैं जब जब तारपाड़ को छोटे परिवारों में विभक्त कर दिया जाता है, तो वह परिवार तखाजी कहलाता हैं इसमें केवल महिलाओं के ही वंशज होते हैं।

के.एम. कपाडिया के अनुसार, केरल के कई भागों में आज भी कई समाजों में महिलाओं का वर्चस्व कायम हैं मालाबार के ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी पति,पत्नी के घर जाकर रहता हैं इनके पितृप्रधान समाज में बच्चों का नाम उनकी माता के नाम से जाना जाता हैं

विदेशों में भी कई स्थानों में मातृसत्तात्मक समाज का प्रचलन देखा जाता है। दक्षिण कोरोलिना में एवं मेरीलैंड में महिलाओं को विशेषाधिकार प्राप्त हैं वहाँ प्रायः सभी क्षेत्रों में महिलाओं का वर्चस्व है। इन स्थानों में तलाक निषिद्ध हैं जॉर्ज ए. बर्टन ने ‘एस्केच ऑफ सेमेटिक आँरिजन्स, सोशियल एण्ड रिलीजन्स में मातृसत्तात्मक समाज का विशेष रूप से उल्लेख मिलता हैं सेमेटिक जातियों में एक पत्नी प्रथा प्रचलित है। इनके समाज में नारी का स्थान रिमा र्पू होता हैं इतिहास प्रसिद्ध रानी वरमाजा लुगाण्डा के राजा की एकमात्र पत्नी थी। इसी कारा यहाँ का समाज नारी के इर्द-गिर्द घरूमता हैं महिलाएँ महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम एवं अधिकृत होती हैं हिब्रू जातियों में महिलाओं को व्यापक और विस्तृत अधिकार प्राप्त हुआ हैं जे.सी. हटन ने ‘ अबीसीनिया एण्ड इट्स पीपुल’ में नारी प्रभुत्व समाज का विवरण दिया हैं समाज के सभी धार्मिक, सामाजिक व अन्यान्य कार्यों में इनका योगदान महत्वपूर्ण होता हैं।

पुरुष प्रधान समाज प्रायः बड़ा ही आक्रामक एवं कठोर होता हैं इसकी इन्हीं जटिलताओं ने समाज में बिखराव व टकराहट की स्थिति उत्पन्न की है। इसके बदले मातृसत्तात्मक समाज भावना प्रधान होता हैं इसका परिवेश अधिक कोमल, सौहार्दपूर्ण व नियंत्रित होता है। इनमें पराक्रम होता हैं, तो सेवा की कोमल भावना भी माता की संप्रभुता होने के कारण सामाजिक आधार सुदृढ़ एवं भावपूर्ण होता हैं कल आने वाली इक्कीसवीं सदी नारी को उसका यही गौरव एवं वर्चस्व वापस कर दे तो किसी को हैरत में नहीं पड़ना चाहिए।

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Version 1
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