
अनुभूत ज्ञान ही सच्चा ज्ञान
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पंडित रामशणजी बहुत ही सज्जन पुरुष थे। पंडिताई के साथ साथ शास्त्रों का अध्ययन करते थे तथा वार्ताएँ भी करते रहते परंतु पंडित जी ज्यों स्वयं को मार्ग से परे पाते। यह तो मार्ग ही ऐसा है। पास हैं तो इतना कि अपने भीतर ही है और दूर है तो इतना कि विश्व में ‘नेति नेति’ कहते फिरो। पंडित जी भक्तों को कथा से समय समझते कि भाइयों मन बड़ा चंचल है। इसे वश में करो। संसार के रिश्ते स्वार्थी हैं। प्रभु भजन करो। पर पंडित जी मन में समझाते थे कि वे किताबी ज्ञान का वाचन मात्र कर रहे हैं। स्वयं में तो वे अभी भी कोरे हैं और जब तक व अमृतवर्षा स्वयं के भीतर नहीं हो जाती, तब तक यह उपदेश देना व्यर्थ है, निष्फल है,धन कमाने का निरा एक क्षुद्र स्वार्थ साधन मात्र है। अब तो बोलने के पहले तोलने लगे और फलतः अनुभव जब स्वयं के पास ही नहीं है फिर औरों को उपदेश देना कितना सार्थक है वे मौत तो हो गए, पर उन्हें रातभर नींद नहीं आती। बार बार मन में उठना शास्त्र झूठे नहीं हो सकते। फिर कहाँ गड़बड़ है वे एक दिन घर से बाहर निकल पड़े। वे यह समझते थे कि तीर्थों में भी कुछ नहीं है। तो सब जगह फिर तीर्थों के आडंबर से क्या मिलता है? कि से सुन रखा था कि एक महात्मा इधर जंगल में रहते है और प्रचार प्रसार से मुक्त है। कोई आए या जाए, उन्हें कोई सरोकार नहीं। गायत्री मंत्र का जप प्रभु का गुणगान ही उनका कार्य है।
अतः पण्डित जी अपनी पुस्तकें घर पर छोड़कर उधर चल पड़े। वे वहाँ पहुँच गये और महात्मा को प्रणाम कर बैठ गये।महात्मा अपनी सहज मुद्रा में बैठे थे। पण्डित जी काफी देर मौन बने रहे। वे एक टक महात्मा जी को निहार रहे थे।
“ पोथियों में कुछ नहीं धरा है। अनुभव किये बिना सब बेकार है।”महात्मा जी धीरे से बोल।
पंडित जी के हृदय बल्लियाँ उछल रही थी। मन की बात सुनकर गदगद हो गये। रोमाँच हो आया।बोले- महात्मन्! आपने सही कहा है। मैंने जीवन भर उपदेश दिया, परन्तु स्वयँ कोरा ही कोरा रहा। जीवन व्यर्थ जा रहा है।मनुष्य का सच्चा सुख ही उसकी प्राप्ति है। ईश्वर की अनुकम्पा व अनुभूति में ही शाँति है। यदि मानव जीवन में शाँति नहीं है तो यह सब व्यर्थ है।”
“ परन्तु यह शाँति दूर दूर भागती जाती है। जितना मनुष्य शाँति का प्रयास कर है उतना ही असफल हो जाता है। आप कोई सहज मार्ग बताइये ताकि उस प्रभु की कृपा प्राप्त हो सकें।”पंडित जी अब जिज्ञासे बन गये थे।
“पंडित जी इस मार्ग में हिसाब किताब नहीं चलता। यहाँ तो प्रेम और समर्पण चाहिए।” महात्मा जी इतना बोलकर चुप हो गये।
“ परन्तु यह कैसे पता चले कि प्रेम हो गया? “ पंडित जी बोल।
इस बार महात्मा जी जोर से हँसते हुए बोले-” ठीक! तुम सब समझते हो और मुझसे पूछते अपनी पत्नी से प्रेम करते हो या नहीं। इसकी क्या कोई विधि है? सब कुछ सहज है। पत्नी की हर वस्तु से प्रेम है। उसकी बुराई अच्छाई सब कुछ अपनी है। वही गति वहाँ की है। जब प्रेमी की हर बात में हर कार्य में अच्छाई ही अच्छाई दिखने लग जाए तो समझ लीजिए कि प्रेम हो गया।”
“महात्मन! यह तो आप ने सत्य कहा है, पर यह मन काबू में नहीं रहता है।”
“मन काबू में नहीं है, तो विजय की कल्पना भी दूर है। मन पर नियंत्रण होना चाहिए न कि उसका नियंत्रण आप पर हो।” वे थोड़ा रुके और फिर बोले-” सिकन्दर का नाम तो सुना होगा। वह जब भारत में आया तो वहाँ युद्ध में हाथियों का प्रयोग होता था। जब वह युद्ध के लिए कूच करने लगा; तो उसे हाथी पेश किया गया। ऊपर चढ़कर उसने कहा लगाम कहाँ है?लोगों ने कहा- इसके लिए अंकुश का प्रयोग होता है और वह महावत के पास है।
यह सुनकर वह हाथी से कूद पड़ा और बोला- ऐसी सवारी पर मैं नहीं बैठता, जिस पर मेरा नियंत्रण न हो। उसने घोड़ा सँभाला और उस पर बैठ गया। लगाम उसके हाथ में थी।
तात्पर्य यह कि मन अपने वश में रखो। मन को स्वयँ पर हावी मत होने दो, फिर देखो कि सत्ता कही आपके समीप ही है।सच्चा आनन्द आपके भीतर ही है।” महात्मा जी के कथन को पंडित जी समझ गये और गदगद हो गये। वे समझ गये कि कोरा किताबी काम आनन्द नहीं देता। वह तो एक साधन मात्र है, साध्य नहीं।
यथा दीपों निवातस्थौ
न्ोड्ढते सोपमा स्मृता।
युजतो योगमात्मनः।
“ जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है।”