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जो हमारे आँख से ओझल होने पर स्नेह-सहयोग न मिल सकने की बात सोचते हैं, उन्हें सूक्ष्म का-परोक्ष का भी महत्व समझना चाहिए। शरीर प्रत्यक्ष और प्राण परोक्ष है, तो भी हम प्राण् का सान्निध्य अनुभव करते और उसी के सहारे जीवित तक रहते हैं। हम सब जिस सुदृढ़ श्रृंखला में मजबूती के साथ बाँधे गए हैं, वह ऐसी नहीं है कि कच्चे धागे की तरह जरा-सा आघात लगते ही बिखर जाए। ऐसी तो स्वार्थियों की मित्रता होती है। अपना और परिजनों का मध्यवर्ती रिश्ता आदर्शों और उद्देश्यों पर अवलंबित है। वे जब तक यथास्थान बने रहेंगे तब तक किसी को भी निकटता या दूरी के कारण किसी प्रकार की गड़बड़ी होने की आशंका नहीं करनी चाहिए।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (वाङ्मय-28, पृष्ठ 1.28)
किसी युगशिल्पी को क्या, कब, कैसे, कहाँ और क्या करना है, यह निर्धारण व्यक्ति की योग्यता और स्थानीय आवश्यकता को देखते हुए सामान्य सूझबूझ के आधार पर किया जा सकता है। रेत में चावल मिल जाने पर उन्हें एक-एक करके बीनना पड़ता है और कचरे तथा अनाज को अलग करने का श्रमसाध्य, समयसाध्य उलझन भरा काम करना पड़ता है। गुड़ और गोबर एक में मिल जाने पर भी ऐसी ही कठिनाई पैदा होती है। इन दिनों विचारों और क्रिया–कलापों में उचित-अनुचित का असाधारण गड्ड-मड्ड हो गया है। सूझ नहीं पड़ता कि प्रचलन में किन विचारों और किन कार्यों को मान्यता दी जाए और किसे निरस्त-बहिष्कृत किया जाए। उचित और अनुचित में संशोधन का नाम ही विचार-क्राँति है। जो कुछ कहा-सुना और किया जा रहा है, उस सब पर नए सिरे से कसौटी लगाये जाने की आवश्यकता है। जो विवेकयुक्त है उसका निर्धारण नये सिरे से किया जाना है, क्योंकि प्रस्तुत अगणित समस्याओं का एकमात्र कारण उचित के स्थान पर अनुचित का आ विराजना ही है। उन्हें यथास्थान प्रतिष्ठित करने के लिए अस्त-व्यस्त को नये सिरे से यथास्थान जमाना पड़ेगा।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (वाङ्मय ग्रंथ क्र. 28, पृष्ठ-7.31)