
कल्पवृक्ष के समान एवं पवित्र तरु है- अश्वत्थ
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श्रीमद्भागवत् गीता के दसवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने वृक्षों की महत्ता करा प्रतिपादन करते हुए उसे अपना ही स्वरूप निरूपित किया है और कहा है-”अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्” अर्थात् मैं सब वृक्षों में अश्वत्थ पीपल हूँ। गीता 15-1 में एक ही अश्वत्थ की चर्चा की गयी है। और विश्व ब्रह्माँड की को इसकी उपमा दी गयी है। यही कारण है कि प्राचीन काल में भारतीय मानस में पीपल या अश्वत्थ वृक्ष के प्रति अगाध श्रद्धा है। इसे देवताओं की तरह पूजा और सार्वजनिक देवालयों में रोपा जाता है। लोगों को ऐसा विश्वास है कि इसमें देवताओं का निवास है इसलिए इसे देवसदन भी कहा जाता है। अथर्ववेद 6/4/3/,19/39/6 में मंत्र- “ अश्वत्थो देवसदनः” के अनुसार भी पीपल वृक्ष देवों के रहने का स्थान है। गीतकार में जिस पीपल वृक्ष को ईश्वरीय विभूतियों से युक्त बनाया है, वह अपने देश के कोने कोने में पाया जाता है।समय बदलने पर मान्यताएँ भले ही बदली हो, किन्तु भारतीय संस्कृति में पीपल के प्रति आस्था ज्यों की त्यों बनी है। मौर्यकाल में प्रत्येक ग्राम और जनपद में देवस्थानों पर पीपल वृक्ष रोपकर उसके नीचे चबूतरा अथवा ‘थान ‘ अवश्य बनवाया जाता था और उसकी पूजा भी की जाती थी। वैसे ‘थान ‘ आज भी गाँव में पाये और पूजे जाते है। बौद्ध, जैन और वैष्णव परम्परा में पीपल पूजा लोक आस्था के रूप में प्रचलित है। प्रायः इन सभी के मूर्ति-शिल्पों में पीपल उपासना के उदाहरण मिलते हैं। आज भी इस वृक्ष के प्रति लोगों में इतनी आस्था है कि इसे काटना, जलाना धार्मिक अपराध माना जाता है। मात्र हवन के लिए समिधा के रूप में तथा पीपल को जलाने में सकी लकड़ी प्रयुक्त की जाती है। अश्वत्थ अर्थात् पीपल वृक्ष को ज्ञानवृक्ष और ब्रह्मवृक्ष कहा गया है। सूर्य प्रकाश में विशेष रूप से संश्लेषण करने के कारण इसे सौर वृक्ष भी कहते है। प्राचीन काल में आर्यजाति शत्रुओं के विनाश के लिए पीपल को अपना विशेष आराध्य मानकर पूजती थी। शास्त्रों एवं पुराणों में इस वृक्ष के देवस्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है-
“मूलतःब्रह्मरुपाय मध्यतो विष्णुरुपिणे।
अग्रतः शिवरुपाय अश्वत्थाय नमोनमः।”
अन्यत्र भी इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। यथा-
मूलं ब्रह्म त्वचो विष्णुः शाखा शाखा महेश्वरःः।
पत्राणि देवता सर्वा वृक्षराज नमोऽस्तुते।
तात्पर्य यह है कि वृक्षों में सर्वश्रेष्ठ और पवित्र है, इसलिए ऋषि -मनीषियों ने इसको पूजन योग्य समझा। आज भी जन विश्वास है कि इसकी पूजा करने से सर्वमनोरथ पूरे होते है और भूत बाधा तथा अन्य किसी प्रकार के अनिष्ट का भय नहीं रहता है और खोटे ग्रहों की शाँति होती है और सुख सौभाग्य प्राप्त होता है। हड़प्पा और सिंध सभ्यता में भी पीपल पूजा का विशेष महत्व रहा है। माँगलिक कार्यों में और राजकीय मुद्राओं पर भी पीपल वृक्ष के अंशों का अंकन मिलता है। सृष्टिप्रक्रिया में सहायक होने से इसकी विशेषताओं और औषधीय गुणों को आयुर्वेदशास्त्रों में विशेष रूप से उजागर किया गया है। भारत में पीपल को अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे अश्वत्थ, पिप्पल, नागबंधु, गजाशन, बोधितरु, चैत्य वृक्ष, देवात्मा पीपल, पीपर, आदि। अंग्रेजी में इसे सैक्रेड फिग् ट्री कहते है। इसका वानस्पतिक नाम - इकस रिलिकजआँसा’ है। औषधीय गुणों कारण पीपल के वृक्ष को ‘कल्पवृक्ष ‘ की संज्ञा दी गयी है। इसके पंचाँग अर्थात् छाल, पत्ते, फल -बीज, दूध, जटा और कीपले तथा लाख प्रायः सभी प्रकार के रोगों तथा आधि व्याधियों के शमन के काम आते थे। वेदों में पीपल को अमृततुल्य माना गया है। सर्वाधिक आक्सीजन निस्सृत करने के कारण ही प्राणवायु का भण्डार कहा जाता है। आज के प्रदूषण युक्त वातावरण में इस वृक्ष की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती है। सर्वाधिक आक्सीजन का सृजन और विषैली गैसों का आत्मसात करने की इसमें अकृत क्षमता है। भू-रक्षण, भू-स्खलन तथा भूमि कटाव को रोकने के लिए यह पेड़ बहुत सहायक है। यदि वृक्षारोपण में इसके महत्व को समझा जाय और अधिकाधिक संख्या में लगाने को प्राथमिकता दी जा सके, तो औषधि की कमी व पर्यावरण संरक्षण दोनों की सहज ही पूर्ति हो सकती है।