
सच्चा कर्म वही जिसमें फल की चाह न हो
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नाम था उसका फकीरचंद, परंतु धन का उसके पास कोई अभाव नहीं था। धन के साथ उनका मन भी निर्मल था। कुछ अंश इसमें से वे सदा ही लोगों की सहायतार्थ खर्च करते रहते थे। किसी संत ने उनसे एक बार कहा था-”सेठ, सबकी सहायता किया कर। प्रभु तेरी सहायता करते रहेंगे।” तभी से वह दानी हो गया था-परोपकारी बन गया था।
संत की बात भी मिथ्या नहीं हुई। वह जितना देता, उससे अधिक पाने लगा। यह क्रम वर्षों तक चलता रहा। सेठानी भी उनके कार्य में हाथ बँटाती थी। सुखपूर्वक समय व्यतीत हो रहा था।
एक बार सेठजी व्यापारिक कार्य से बाहर कहीं गए थे। वह एक गाँव में पहुँचे। गाँव के निवासी उनको अच्छी तरह जानते थे। उनकी सहायता प्राप्त करने में वहाँ के लोग किसी भी तरह पीछे नहीं थे। उन क्षणों में सेठजी यात्रा की थकान से परेशान थे। भूख भी उन्हें व्याकुल कर रही थी और वे अपने मुँह से कुछ भी कह नहीं पा रहे थे और गाँव वालों ने भी उनसे कुछ नहीं पूछा। सेठजी को आशा थी कि गाँव वाले उनकी आवभगत में पलकें बिछा देंगे, परंतु वे लोग ऐसा नहीं कर सके।
सेठजी घर लौटे, तो इस बार वे काफी उद्विग्न, परेशान थे। बार-बार यह प्रश्न उनके दिमाग को मथता रहा कि मैं सदा सबकी सहायता करता हूँ और वे सहायता प्राप्त करने वाले थोड़ा-सा भी अहसान नहीं मानते! यह कैसी स्थिति है? उनका अशांत मन उत्तरोत्तर छटपटाने लगा।
दैवयोग से वही संत फिर उस गाँव से गुजरे। गाँव के बाहर तालाब के किनारे वट-वृक्ष के नीचे डेरा डाला। उनके शिष्य भी साथ थे। फकीरचंद का भी खबर लगी कि वही संत गाँव में पधारे हैं, जिन्होंने उसे दूसरों की सहायता करने के लिए कहा था।
सेठ बेचैन तो था ही, तत्काल संत के दर्शनार्थ जा पहुँचा। संत शांत मुद्रा में बैठे थे। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। तालाब का निर्मल जल हिलोरें ले रहा था। वातावरण शांत था। सेठ ने जाकर नमस्कार किया और एक तरफ खिन्न मन से बैठ गया।
“कैसे हो सेठजी? संत ने बात प्रारंभ करते हुए कहा।
“आपकी कृपा है, महाराज।” सेठ नम्रतापूर्वक बोला।
“फिर चेहरा मलिन कैसे दिखाई पड़ रहा है। कोई कष्ट आ पड़ा है क्या?
“नहीं महाराज! वैसे ही मन कुछ दिनों उद्विग्न रहने लगा है। बार-बार उसे समझाता हूँ, पर फिर भी बात बनती नहीं।” इसी के साथ सेठ ने सहायता करने से लेकर अहसान नहीं मानने तक की संपूर्ण व्यथा ही कह डाली और बोला-महाराज! यह दुनिया अहसान–फरामोश क्यों है? यही प्रश्न मेरे अंतर में हर-हमेशा कुलबुलाता रहता है और यही मेरी खिन्नता का कारण है। सेठ ने अपने अंतर्मन की पीड़ा अभिव्यक्त कर दी।
संत मुसकरा दिए। फिर मेघमंद्र स्वर में बोले-सेठजी एक बगीचे में बहुत-सी अंगूर की बेलें लगी हुई थीं। उनमें मीठे-मीठे अंगूर भी लगते थे। लोग उन्हें तोड़ लेते और और खाकर चले जाते। यही क्रम सालों-साल तक चलता रहा। एक दिन एक बेल दूसरी बेल से बोली, वर्षों से हम सबको अंगूर बाँट रही हैं। लोग स्वाद से खाते हैं और चले जाते हैं, न कोई धन्यवाद ही देता है, ऐसा क्यों है? हम कैसी अभागिने हैं?
यह वार्ता एक बुद्धिमान व्यक्ति सुन रहा था। उसने पास से गुजरे रहे एक संत से यह प्रश्न दुहराया। संत बेलों के पास आये और बोले-अंगूर पैदा करना तुम्हारी मजबूरी है और मजबूरी का फायदा उठाना लोगों की आदत है। इसमें अहसान मानने की क्या बात है?
सेठ का हृदय पिघल गया। वह सारी बात समझ गया था। उसके नयन बरस पड़े। वह कुछ भी नहीं बोल पा रहा था।
तब संत आगे बोले-गीता में भगवान कृष्ण ने भी तो यही कहा था- सच्चा कर्म वही है जिसमें, नहीं छिपी हो फल की चाह। सच्चा धर्म वही है जिसमें, रहे निरंतर एक प्रवाह॥
अतः तुम अपने पथ पर अग्रसर रहो। यह चिंता क्यों करते हो कि लोग तुम्हारे इस कार्य को महत्व देते हैं या नहीं। संत की बात सुनकर सेठजी का मन अब स्वस्थ, प्रसन्न और निर्मल बन गया था। उसके अंतर में निष्काम कर्म एवं परोपकार की महत्ता बैठ गयी थी।