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आज अज्ञानरूपी वृत्तासुर से सारा-का-सारा समाज ही अच्छादित है। जिनके कान हैं, वह समाज की पीड़ा और पतन की मर्मभेदी चीत्कार सुन सकते हैं तथा आँख वाले देख सकते हैं। यह समय व्यक्तिगत शौक-मौज का नहीं है। हम युगसंधि वेला में उपस्थित हैं। शीघ्र ही या तो हम सर्वनाश के गर्त में गिरेंगे या उन्नति के उच्च शिखर पर आरुढ़ होंगे। आज आवश्यकता है दधिचि जैसे आत्मदानियों की। शरीर तो नष्ट होगा ही, किंतु यदि अपने लक्ष्य को पूरा करने में नष्ट हो, तो ही इसकी सार्थकता है। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (वाङ्मय 31, पृष्ठ 5.38)
अच्छा होता यदि सघन अंधकार में भटकते हुए जीवन धर्म को कहीं से प्रकाश की एक किरण हस्तगत होने का सुयोग बनता और भ्राँतियों की भयानकता से उबरने का सुयोग प्राप्त हो पाता। अपने संबंध में विचार करने और जो बचा है, उसका सही सदुपयोग करके कुछ तो बना लेने का परामर्श प्राप्त होता; पर वह भी कहाँ बन पाता है। कदाचित कहीं से उपयोगी सुझाव उभरता है, तो उसे अनसुना कर दिया जाता है, प्रकाश की ओर से मुँह मोड़ लिया जाता है। इस दयनीय-दुर्मति और उसके साथ जुड़ी हुई दुर्गति का आकलन करने वाला विवेक ‘हा-हंत’ कहकर, पेट में घूँसा मारकर, मुँह को हाथों में छिपाकर किसी कोने में जा बैठता है। जहाँ लाभ को हानि और हानि को लाभ समझने की सनक ठंडे उन्माद की तरह सिर पर सवार हो रही हो, वहाँ कोई करे भी क्या? कहे भी क्या?